आइ केयर टेक : लाखों लोगों को दृष्टिहीनता से बचायेगा आर्टिफिशियल रेटिना इंप्लांट

भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में रेटिना व ग्लूकोमा संबंधी आंख की बीमारी से करोड़ों लोगों की दृष्टि कम हो जाती है़ कई बार दृष्टि पूरी तरह से खत्म भी हो जाती है. हालांकि, समय रहते इनकी पहचान होने पर बीमारी के जोखिम को कम किया जा सकता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 16, 2017 7:18 AM
भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में रेटिना व ग्लूकोमा संबंधी आंख की बीमारी से करोड़ों लोगों की दृष्टि कम हो जाती है़ कई बार दृष्टि पूरी तरह से खत्म भी हो जाती है. हालांकि, समय रहते इनकी पहचान होने पर बीमारी के जोखिम को कम किया जा सकता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हो पाता है.
ऐसे में वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किये गये नये रेटिना इंप्लांट से उम्मीद जगी है कि दृष्टिबाधा के मरीजों को अब नयी जिंदगी मिल सकती है. इसके अलावा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से शोधकर्ताओं ने ग्लूकोमा की पहचान की है, जाे आंखों को संबंधित जोखिम से बचाने की दिशा में एक ठोस कदम हो सकता है. क्या है यह रेटिना इंप्लांट और कैसे किया गया इसका परीक्षण व ऑटोमेटिक तरीके से कैसे की जायेगी ग्लूकोमा की पहचान समेत इससे जुड़े अनेक अन्य तथ्यों के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ आलेख …
वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रेटिना इंप्लांट विकसित किया है, जो दृष्टिहीन लोगों को दोबारा से नयी जिंदगी देने में कारगर साबित हो सकता है. यानी इसके जरिये इनसान की खोयी हुई दृष्टि हासिल की जा सकती है. फिलहाल वैज्ञानिकों ने चूहों पर इसका सफल परीक्षण किया है और उम्मीद की जा रही है कि अगले साल इनसानों पर भी इस प्रक्रिया का परीक्षण किया जायेगा.
मूलरूप से ‘नेचर मैटेरियल्स’ में प्रकाशित लेख के हवाले से ‘साइंस एलर्ट’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रकाश को इलेक्ट्रिकल सिगनल में कनवर्ट करनेवाला यह इंप्लांट रेटिनल न्यूरॉन्स को प्रोत्साहित करता है. इस प्रक्रिया की सफलता से यह उम्मीद जगी है कि आंखों की रोशनी कम होने के जिम्मेवार फोटोरिसेप्टर कोशिकाओं व रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा समेत रेटिना संबंधी विविध प्रकार की बीमारियों या उसके क्षय होने के कारण दुनियाभर में लोगों लोगों को फिर से आंखों की रोशनी मुहैया कराने में यह इंप्लांट कामयाब हो सकता है.
दरअसल, आंख के पिछले हिस्से में रेटिना मौजूद होता है और यह लाखों लाइट-सेंसिटिव फोटोरिसेप्टर्स से बना होता है. लेकिन, अब तक खोजे गये 240 में से किसी भी एक म्यूटेशन के कारण रेटिना में समस्या पैदा होने की शुरुआत हो सकती है, जहां ये फोटोरिसेप्टर कोशिकाएं खत्म होने लगती हैं. हालांकि, कई बार इसके आसपास के रेटिनल न्यूरॉन्स पर इसका कोई असर नहीं होता.
क्षतिग्रस्त रेटिना को बदलने में मिल सकती है कामयाब
चूंकि रेटिनल नर्व्स इससे अछूता और कार्यशील रहा है, पूर्व के शोध में रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा को बायोनिक आइ डिवाइस से इलाज किया गया है, जो प्रकाश के साथ न्यूरॉन्स को प्रोत्साहित करता है. जबकि अन्य वैज्ञानिकों ने दृष्टिबाधा के लिए जिम्मेवार म्यूटेशंस की मरम्मत के लिए क्रिस्पर जीन एडिटिंग प्रणाली की खोज की है.
हाल ही में इटैलियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने इस संबंध में एक नया नजरिया विकसित किया है, जिसके तहत आंख में इंप्लांट किये गये प्रोथेसिस को इस तरह से सक्षम बनाया गया है, ताकि वे क्षतिग्रस्त रेटिना को बदलने में कामयाब हो सकते हैं.
कंडक्टिव पॉलिमर के पतले लेयर से किया गया निर्माण
इस इंप्लांट का निर्माण कंडक्टिव पॉलिमर के पतले लेयर से बनाया गया है, जिसे सिल्क-आधारित सब्सट्रेट पर प्लेस किया गया है. साथ ही इसे सेमीकंडक्टिंग पॉलिमर से कवर्ड किया गया है. यह सेमीकंडक्टिंग पॉलिमर फोटोवॉल्टिक मैटेरियल की तरह काम करता है. यह इस तरह से काम करता है कि जब आंख के लेंस में प्रकाश दाखिल होता है, तो वह फोटोन्स को एब्जॉर्ब कर लेता है. ऐसा होने की प्रक्रिया के दौरान इलेक्ट्रिसिटी रेटिनल न्यूरॉन्स को प्रोत्साहित करता है और आंखों के द्वारा स्वाभाविक रूप से छोड दिये गये गैप को भरता है, लेकिन साथ ही फोटोरिसेप्टर्स को भी नुकसान पहुंचाता है.
चूहों की आंखों में किया गया कृत्रिम रेटिना इंप्लांट
इस डिवाइस का परीक्षण करने के क्रम में शोधकर्ताओं ने चूहों की आंखों में कृत्रिम रेटिना इंप्लांट किया. ऐसा करते हुए उन्होंने रेटिनल डिजेनरेशन के रोडेंट मॉडल को विकसित किया. 30 दिनों के बाद इन चूहों से ऑपरेशन के माध्यम से इन्हें हटाने पर शोधकर्ताअों ने पाया कि प्रकाश के प्रति वे कितना ज्यादा संवेदनशील हैं. इसे पुपिलरी रिफ्लेक्ट्स कहा जाता है.
इस दौरान सेहतमंद चूहों और बिना इलाज किये गये चूहों की तुलना की गयी. एक लक्स (चमक का एक मात्रक) की न्यून तीव्रता पर इन चूहों का इलाज किया गया. पाया गया कि इलाज किये गये चूहों में बिना इलाज किये गये चूहों के मुकाबले इस संबंध में ज्यादा रिस्पॉन्स दिया है. लेकिन, जैसे-जैसे चमक रूपी प्रकाश को बढा कर 4 या 5 लक्स तक ले जाया गया, तो इलाज किये गये पुपिलरी रिफ्लेक्ट्स सेहतमंद प्राणियों से व्यापक रूप से इतर था.
सर्जरी के छह और 10 माह बाद इन चूहों की फिर से जांच की गयी. भले ही उम्र ज्यादा होने के कारण कुछ हद तक दृष्टिबाधा पैदा हुई, लेकिन कुल मिला कर यह इंप्लांट अब भी चूहों में पूरी तरह से कारगर था. इस प्रयोग में इलाज किये गये चूहों व सेहतमंद प्राणियों को शामिल किया गया था.
लाइट सेंसिटिविटी टेस्ट के दौरान पाजिट्रॉन इमिशन टोमोग्राफी (पीइटी) के इस्तेमाल से चूहों की ब्रेन एक्टिविटी की निगरानी करते समय शोधकर्ताओं ने पाया कि प्राइमरी विजुअल कॉरटेक्स की सक्रियता में बढोतरी हुई है, जो संबंधित विजुअल सूचनाओं को प्रोसेस करता है.
इनसानों में भी कारगर परीक्षण
की जतायी गयी उम्मीद
उपरोक्त परीक्षण से पाये गये नतीजों के आधार पर शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि इंप्लांट ‘सीधे तौर पर क्षय हो रहे रेटिना में रिसाइडुअल न्यूरोनल सर्किट्राइज’ को सक्रिय करता है. लेकिन, उन्होंने यह भी कहा है कि बायोलॉजिकल स्तर पर इसे किस प्रकार से प्राेत्साहन मिलता है, इससे सटीक तरह से जानने के लिए अभी इस शोध प्रक्रिया को जारी रखना होगा. इस रिसर्च पेपर के मुताबिक, कृत्रिम अंग के जरिये किये गये इस ऑपरेशन का व्यापक सिद्धांत भी अब तक निर्धारित नहीं है. रिपोर्ट में इस संबंध में भी आशंका जतायी गयी है कि चूहों में भले ही इसके नतीजे सही पाये गये हैं, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इनसानों में भी यह पूरी तरह से सही होगा. हालांकि, शोधकर्ताओं को इस बात का भरोसा है कि वे इसे इनसानों के लिहाज से भी कारगर बनायेंगे.
इस शोध में शामिल रहे इटली के नेगरर में सेक्रेड हार्ट डॉन केलेब्रिया के ऑपथालमोलॉजिस्ट ग्रेजिया पर्टिले का कहना है, ‘हमें उम्मीद है कि मौजूदा विकसित किये गये मॉडल को हम इनसानों में भी समायोजित कर पायेंगे. हमारी योजना है कि इस वर्ष की दूसरी छमाही में इनसानों पर इसका परीक्षण किया जायेगा और अगले साल इसके आरंभिक नतीजे एकत्रित किये जायेंगे.
इसके सकारात्मक नतीजे आने पर दृष्टिबाधितों के लिए जिम्मेवार रेटिना की इस बीमारी का इलाज मुमकिन होगा. ऐसे लोगों के लिए यह टर्निंग प्वॉइंट साबित होगा.’
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से होगी ग्लूकोमा की पहचान
मेलबोर्न आधारित आइबीएम के शोधकर्ताओं की एक टीम ने एक ऐसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का विकास किया है, जो आंखों में पैदा होने वाली किसी प्रकार की विकृतियों (खासकर रेटिना में) की पहचान करने में सक्षम हो सकता है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि भविष्य में यह शोध बेहद कामयाब होगा और मरीजों में ग्लूकोमा जैसी आंखों की बीमारियों के जोखिम को समय रहते पहचाना जा सकेगा. सीआरएन डॉट कॉम डॉट एयू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो वर्षों से जारी इस शोध में आंखों में पैदा होने वाली अनेक प्रकार की विकृतियों को ऑटोमेटिक तरीके से पहचानने पर फोकस किया गया है और रेटिना समेत आंख के अनेक हिस्सों में संबंधित लक्षणों को जानने में कुछ हद तक कामयाबी मिली है. यह तकनीक दायें और बायें आंख की इमेज के फर्क को पहचान सकती है.
साथ ही यह रेटिना स्कैन की गुणवत्ता का मूल्यांकन कर सकती है और ग्लूकोमा के संभावित लक्षणों को पहचान सकती है. इस तकनीक का परीक्षण करने के लिए 88,000 रेटिना इमेज स्कैन किया गया और इसके लिए इमेज एनालिटिक्स टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया. संबंधित आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के जरिये ऑप्टिक कप-टू-डिस्क अनुपात के सांख्यिकीय प्रदर्शन के आधार पर ग्लूकोमा के प्रमुख लक्षणों को निर्धारित किया जाता है. यह पहचान करीब 95 फीसदी तक सटीक पायी गयी थी.
मेलबोर्न यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ डाॅक्टर पीटर वान विनगार्डन का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया में अनुमानित रूप से कम-से-कम 1,50,000 लोगों को ग्लूकोमा के इलाज की जरूरत होती है और तेजी से वृद्ध हो रही आबादी में इस संख्या में और ज्यादा बढोतरी हो सकती है. ऐसे में ऑस्ट्रेलिया समेत दुनियाभर में ग्लूकोमा के जोखिम वाले लोगों में समय रहते इसकी पहचान हो पायेगी, जिससे इसका इलाज भी आसानी से किया जा सकेगा. शोधकर्ताअों ने यह भी उम्मीद जतायी है कि आनेवाले समय में डायबिटीक रेटिनोपैथी और उम्र-संबंधी आंखों में पैदा होने वाली अनेक बीमारियों का इलाज मुमकिन हो पायेगा. आइबीएम रिसर्च ऑस्ट्रेलिया के वाइस प्रेसिडेंट और लैब डायरेक्टर डाॅक्टर जोआना बेस्टोना का कहना है कि इस खास प्रकार के मेडिकल इमेज एनालिसिस से हेल्थकेयर सेवाएं मुहैया कराने की क्षमता का तेजी से विस्तार हो सकता है.

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