बचके, कचरा गिराया तो सीधे कोर्ट चली जायेंगी गंगा-जमुना
-पुष्यमित्र- इस सोमवार को उत्तराखंड हाई कोर्ट से बड़ा दिलचस्प फैसला आया. अदालत ने कहा कि इस देश की दो प्रमुख नदियां गंगा और यमुना की कानूनन स्थिति आम इनसानों जैसी होगी. एक भारतीय नागरिक के तौर पर हमें और आपको जो-जो कानूनी अधिकार हासिल हैं, वे इन्हें और इनकी सहायक नदियों को भी हासिल […]
-पुष्यमित्र-
इस सोमवार को उत्तराखंड हाई कोर्ट से बड़ा दिलचस्प फैसला आया. अदालत ने कहा कि इस देश की दो प्रमुख नदियां गंगा और यमुना की कानूनन स्थिति आम इनसानों जैसी होगी. एक भारतीय नागरिक के तौर पर हमें और आपको जो-जो कानूनी अधिकार हासिल हैं, वे इन्हें और इनकी सहायक नदियों को भी हासिल होंगे. इन्हें नाबालिग माना जायेगा और एक एडवोकेट जनरल बहाल किया जायेगा, जो इनके लिए अभिभावक की भूमिका निभायेगा. जब-जब इन नदियों के कानूनी अधिकारों का हनन होगा, एडवोकेट जनरल इनके नाम से अदालतों में मुकदमे दायर कर सकेंगे और इन नदियों के लिए हक की गुहार लगा सकेंगे.
अब आप सोचेंगे कि अदालत को क्या हो गया. उसे नदियों को इनसान बनाने की क्या सूझी, इससे क्या नतीजा निकलेगा? आखिर नदियों को इनसान बनाकर क्या हासिल होता है? तीन दशक पहले राजकपूर ने इसी तरह गंगा को इनसान बनाने की कोशिश की थी और राम तेरी गंगा मैली फिल्म बना डाली थी. उस फिल्म में हीरोइन मंदाकिनी का किरदार जिसका नाम गंगा था, वह गंगा नदी का ही प्रतीक था. वह किरदार पहाड़ों से निकलकर मैदानों से गुजरते हुए सागर किनारे कोलकाता में खत्म हो जाता था. उस किरदार के बहाने राजकपूर ने गंगा नदी का दर्द एक इनसानी शरीर पर उभारने का प्रयोग किया था, ताकि लोग उस दर्द को अनुभव कर सकें और समझ सकें कि वे गंगा जैसी पावन नदी के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं. फिल्म तो सुपर हिट हो गयी, मगर इस प्रयोग के बावजूद गंगा मैली की मैली रह गयी, उसका मैल घटने के बदले और बढ़ता चला गया.
खैर, वह तो एक फिल्म की कहानी थी, इस बार उत्तराखंड की अदालत ने गंगा और यमुना नदी को वास्तविक इनसानी अधिकार दिये हैं, ताकि वह अपने ऊपर हो रहे जुल्म, अत्याचार, जोर-जबरदस्ती आदि की शिकायत अदालत से कर सके. वैसे, अभी तो यह फैसला ही आया है, इस फैसले को सरकारों को इम्प्लीमेंट करना है, फिर देखेंगे कि यह कितना कारगर होता है. क्या इन नाबालिग नदियों के अभिभावक एडवोकेट जनरल अदालत में यह शिकायत कर पाते हैं कि टिहरी बांध मेरे गले की फांस बन गयी है, फरक्का बांध ने मेरे मल द्वार को बंद कर दिया है. मुझे इन दोनों बांधों से मुक्ति दिलाई जाये, तभी मैं जिंदा रह पाऊंगी. और अगर यह शिकायत होती है तो यह देखना भी दिलचस्प होगा कि अदालत इन पर कैसा फैसला सुनाती है और सरकारें इन फैसलों को कैसे लागू करती है.
अब जबकि अदालत ने गंगा और यमुना नदी को इनसान मान लिया है तो एक बार कल्पना करके देखिए कि ये दोनों नाबालिग इनसान आपके बच्चे हैं और महसूस कीजिये कि इनके साथ क्या अत्याचार हो रहा है. महसूस कीजिये कि कैसे हरिद्वार से ही गंगा में पूजन सामग्रियों का विसर्जन शुरू हो जाता है. कानपुर में कई फैक्टरियां अपना सड़ा-गला अवशेष गंगा में सीधे बहा देती हैं. किनारे के तमाम शहर मल-मूत्र और दूषित जल उसी गंगा में बहाते हैं. इस नदी पर जगह-जगह बांध और बराज बने हैं, जो इसके नार्मल बहाव को बाधित करते हैं. यमुना का हाल उससे भी बुरा है, देश की राजधानी दिल्ली के करीब रहने की सजा कहीं अधिक क्रूर है. अगर आपके बच्चे के साथ यह सब होता तो आप कैसे रिएक्ट करते, कितना परेशान होते? अदालत जाते तो क्या-क्या दलीलें देते. क्या सरकारें और नदियों के अभिभावक एडवोकेट जनरल इस हिसाब से नदियों के हक की बहाली कर पायेंगे.
खैर, फिर भी यह एक बड़ा फैसला है. इसका दस फीसदी भी अगर सुनिश्चित हो जाता है तो इससे बड़ा फर्क पड़ेगा. इस फैसले का जो सबसे दिलचस्प पहलू मुझे समझ आता है वह यह है कि सिर्फ गंगा-यमुना नदी को नहीं बल्कि इसकी तमाम सहायक नदियों को यह अधिकार हासिल हुआ है. इस तरह इसके तहत केन, चंबल, बेतवा से लेकर गंडक, कोसी और बागमती को भी शामिल हो जाना है और उन तमाम छोटी-बड़ी नदियों को भी जो इन सहायक नदियों की उपधाराएं हैं. पिछले दिनों एक स्टोरी के सिलसिले में मुझे जानकारी मिली थी कि सिर्फ उत्तर बिहार में नेपाल से 206 नदियां भारत के इलाके में प्रवेश करती हैं और वे अंततः गंगा में गिरती हैं. पिछले दो-तीन दशकों में तटबंध, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण से इनमें से अधिकांश नदियां सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं. कई सूख गयी हैं, जिन्हें भू-माफिया कब्जाने में जुटे हैं.
क्या यह फैसला इन छोटी-छोटी नदियों को जीवन दे पायेगा जो रक्त शिराओं की तरह पूरे उत्तर बिहार में फैली हैं और हाल-हाल तक इस पूरे इलाके के पर्यावरण को नमी और जैव-विविधता से परिपूर्ण बनायेगा. क्या इस फैसले के तहत एडवोकेट जनरल बिहार सरकार से कह पायेंगे कि तमाम नदियों को तटबंधों से मुक्त कर दें, तभी इनकी 206 धाराएं जिंदा रह पायेंगी. यह भी देखना है.
वस्तुतः नदियों को इनसानों जैसे हुकूक देने की मांग दुनिया भर के पर्यावरणविद काफी वक्त से कर रहे हैं. हालांकि इस मांग को काफी रैडिकल माना जाता रहा है. ऐसे में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने यह फैसला कैसे ले लिया, यह सोच कर हैरत होती है. बहुत मुमकिन है जज साहब न्यूजीलैंड में पांच दिन पहले हुए उस फैसले से प्रभावित हों, जहां पहली बार दुनिया में किसी नदी को मानवाधिकार दिया गया था. वहां की नदी व्हांगनुई को इसी नाम के आदिवासी समुदाय हमेशा से इनसान ही मानते रहे हैं और इसको इनसानी अधिकार दिलाने के लिए सौ साल से संघर्ष कर रहे थे.
जज साहब ने सोचा होगा कि जब न्यूजीलैंड की किसी नदी को मानवाधिकार मिल सकता है तो भारत की पावन नदी गंगा-यमुना को क्यों नहीं. चलिये, उन्होंने जो भी सोचा हो, यह क्रांतिकारी फैसला है. हम उम्मीद करते हैं कि जज साहब ने जिस विचार के वश में आकर यह फैसला सुनाया है, सरकार भी इस फैसले को लागू करने में वैसी ही संवेदनशीलता दिखायेगी. क्या यह उम्मीद हम अपनी सरकारों से रख सकते हैं?