सर्वोच्च न्यायालय के हालिया सुझाव से कई दशकों से चले आ रहे बाबरी मसजिद-राम जन्मभूमि विवाद में एक नया मोड़ आ गया है. न्यायालय ने बातचीत से विवाद के निपटारे की सलाह दी है. यह भी दिलचस्प है कि यह सुझाव भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यन स्वामी की याचिका की सुनवाई पर दिया है, जिनका इस मसले की कानूनी प्रक्रिया से सीधे कोई लेना-देना नहीं है. एक तरफ आपसी बातचीत से समाधान निकालने की सलाह का स्वागत हुआ है, वहीं कई लोगों का यह भी मानना है कि अदालत को लंबित मामले पर निर्णय देना चाहिए. इस मुद्दे के विभिन्न आयामों पर चर्चा के साथ प्रस्तुत है संडे-इश्यू…
राममंदिर और बाबरी मसजिद के मामले में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक सुझाव दिया कि दोनों पक्ष आपस में मिल-बैठ कर इस मामले को सुलझायें और अगर दोनों पक्ष चाहेंगे, तो कोर्ट मध्यस्थता करने को तैयार है. मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के ऐसे सुझाव से यह मामला कभी हल नहीं होगा. जहां तक दोनों पक्षों की आपसी सहमति का सवाल है, तो हिंदू पक्ष न तो देश के सारे हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है और न ही मुसलिम पक्ष देश के सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है. ऐसे में अगर दोनों पक्ष आपस में सुलह के लिए बैठते भी हैं, तो भी ऐसी सहमति नहीं बन पायेगी, जो पूरे देश के हिंदू या मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करेगी. जिस तरह से पिछले कई दशकों से यह मामला लटकता चला आ रहा है, उससे दोनों पक्ष आपस में कभी नहीं बैठेंगे और न ही उनमें कोई आपसी सहमति ही बन पायेगी. जब तक कोर्ट कोई फैसला नहीं दे देता, चाहे वह किसी पक्ष को अच्छा लगे या ना लगे, तब तक इस मामले का कोई हल संभव नहीं हो सकता. क्योंकि, यह मामला देश के सबसे सर्वोच्च अदालत में है, उसके फैसले को सबको मानना ही पड़ेगा. इसलिए सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह अपना फैसला सुनाये. हां, उसके बाद फैसले की समीक्षा हो सकती है. इस विवाद का खत्म होना न सिर्फ दोनों पक्षों के लिए जरूरी है, बल्कि कोर्ट के लिए भी बहुत जरूरी है. सालों से यह मामला चल रहा है, लेकिन अब भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाये हैं. इसलिए मैं तो यही कहूंगा कि कोई मामला चाहे जितना भी पेचीदा क्यों न हो, कोर्ट को कानूनसम्मत अपना फैसला सुनाना ही चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के पीछे एक ही कारण नजर आता है कि कोर्ट को इतने बड़े विवाद पर कोई बड़ा फैसला न देना पड़े और आपसी सहमति से दोनों पक्ष किसी नतीजे पर पहुंच जायें. इस ऐतबार से यह सुझाव अच्छा तो है, लेकिन मसला यह है कि दोनों पक्ष जब कभी किसी नतीजे पर पहुंच ही नहीं सकते, तो फिर कोर्ट को ही फैसला देना होगा. कोर्ट को बड़ी ही निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ एक फैसला देना चाहिए, बिना किसी डर-संकोच के कि अगर उसके फैसले से कोई एक पक्ष नाराज होता है तो क्या होगा. कोर्ट का काम यह सोचना है ही नहीं, बल्कि अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर एक निष्पक्ष फैसला देना है. कोई भी मामला जब कोर्ट में आता है, तो कोर्ट का यह दायित्व बनता है कि वह सबूतों के आधार पर अपने एक निष्पक्ष फैसले तक पहुंचे, क्योंकि कोर्ट में कोई मामला जाता ही इसीलिए है कि वहां से एक अच्छा फैसला आयेगा.
इस मामले का लंबे समय तक लटके रहना देशहित में नहीं है. हर चुनाव के समय यह मामला आ खड़ा होता है. इससे दोनों पक्षों के बीच माहौल खराब होता है. देश और समाज का माहौल खराब होता है. लोगों की आपस में कोई सहमति भले न हो, लेकिन सबको सुप्रीम कोर्ट पर पूरा का पूरा भरोसा है. लोग राजनीति पर भरोसा कम करते हैं, और कोर्ट पर ज्यादा, इसीलिए लोग चाहते हैं कि कोर्ट कोई फैसला सुनाये. हमारे लोकतंत्र में किसी भी फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट आखिरी पड़ाव है, उसके बाद न्याय के लिए आप कहीं और नहीं जा सकते. इसलिए माना जाता है कि जो मामला सुप्रीम कोर्ट में चला आया है, उसका ऐसा फैसला होना चाहिए, ताकि लोगों का भरोसा कायम रहे.
जस्टिस आरएस सोढ़ी सेवानिवृत्त न्यायाधीश, दिल्ली हाइकोर्ट
अयोध्या विवाद
अब तक क्या-क्या हुआ
सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मसजिद-राममंदिर विवाद को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा मानते हुए दोनों पक्षों से आपसी सहमति के आधार पर हल करने का सुझाव दिया है. न्यायालय ने संबद्ध पक्षों को सहमति बना कर 31 मार्च तक सूचित करने का आदेश दिया है. अयोध्या विवाद के इतिहास पर एक नजर :
1949 : वर्ष 1949 के दिसंबर माह के अंत में विवादित मसजिद के भीतर भगवान राम की प्रतिमा मिली. इसके बाद पैदा हुए विवाद के निपटारे को लेकर हिंदू समुदाय की तरफ से महंत परमहंस रामचंद्र दास और मुसलिम समुदाय की तरफ से हाशिम अंसारी पक्षकार बने. सरकार ने मसजिद का दरवाजा बंद करा इसे विवादित घोषित कर दिया.
1950 : राम जन्मभूमि न्यास के प्रमुख महंत परमहंस रामचंद्र दास और गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद में याचिका दायर कर मूर्ति के सम्मुख पूजा करने की इजाजत मांगी. आंतरिक हिस्से में पूजा करने की इजाजत मिल गयी, लेकिन दरवाजा बंद ही रहा.
1959 : मुख्य पक्षकार निर्मोही अखाड़ा और अन्य ने मिलकर कोर्ट में याचिका दायर की और प्रार्थना की अनुमति मांगी.
1961 : उत्तर प्रदेश वक्फ बोर्ड के सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ने मसजिद का मामला दायर कर निकट में कब्रिस्तान होने का दावा किया.
1984 : विश्व हिंदू परिषद् ने मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन की शुरुआत की. भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसे एक राजनीतिक आंदोलन का रूप दे दिया.
1 फरवरी, 1986 : फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने हिंदुओं को प्रार्थना के लिए ढांचे को खोलने का आदेश दिया. इसके बाद बाबरी मसजिद एक्शन कमिटी का गठन किया गया.
1989 : तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ढांचे के नजदीक अविवादित स्थान पर शिलान्यास की इजाजत दे दी, लेकिन इसके बाद मामला उच्च न्यायालय में चला गया.
25 सितंबर, 1990 : देशभर में राम मंदिर के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा की शुरुआत की.
नवंबर, 1990 : आडवाणी की रथयात्रा बिहार के समस्तीपुर जिले में रोक दी गयी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद वीपी सिंह सरकार से भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपना जनाधार तेजी से बढ़ाया.
6 दिसंबर, 1992 : राम मंदिर के निर्माण के उद्देश्य से कारसेवकों के एक समूह ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की अवहेलना करते हुए विवादित ढांचे को ढहा दिया. इस घटना के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में भाजपा सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया.
5 मार्च, 2003 : मसजिद वाले स्थान पर मंदिर होने के दावे की जांच के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व विभाग को खुदाई का आदेश दे दिया.
22 अगस्त, 2003 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय को सौंपी गयी रिपोर्ट में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने बाबरी मसजिद के नीचे 10वीं सदी के मंदिर होने की बात स्वीकार की.
31 अगस्त, 2003 : ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट को न्यायालय में चुनौती देने की बात कही.
26 जुलाई, 2010 : खंडपीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा और दोनों पक्षों को आपसी सहमति बनाने का सुझाव दिया, लेकिन दोनों सहमति के लिए पक्ष इच्छुक नहीं थे.
8 सितंबर, 2010 : उच्च न्यायालय ने फैसले की तारीख 24 सितंबर मुकर्रर की.
14 सितंबर, 2010 : फैसले को स्थगित कराने के लिए रिट दाखिल की गयी, लेकिन उच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया.
23 सितंबर, 2010 : न्यायालय से बाहर समझौते की दलील सर्वोच्च न्यायालय पहुंची. न्याय के शीर्ष निकाय ने 28 सितंबर को अगली तारीख नियत की.
28 सितंबर : सर्वोच्च न्यायालय ने मोहलत के लिए दी गयी याचिका को खारिज कर दिया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को फैसले देने के लिए कहा.
30 सितंबर : लंबित अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद पर उच्च न्यायालय ने अपना फैसला दे दिया. फैसले के अनुसार विवादित क्षेत्र को तीन भागों में बांट दिया गया. इसमें सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और ‘रामलला विराजमान’ के बीच बंटवारा कर दिया गया.
26 फरवरी, 2016 : विवादित ढांचे के स्थान पर राम मंदिर के लिए निर्माण के लिए भाजपा सांसद सुब्रमण्यन स्वामी की हस्ताक्षेप की मांग को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार कर ली.
21 मार्च, 2017 : सर्वोच्च न्यायालय ने मुद्दे को आस्था और भावना से जुड़ा हुआ बताते हुए संबद्ध पक्षों को सलाह दिया कि वे आपसी रजामंदी से इसे सुलझाने की कोशिश करें.
अदालत ने इस प्रक्रिया में सहायता करने की बात भी कही है.
कोर्ट का फैसला हमारे लिए मान्य
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को आपस में बातचीत से मामला सुलझाने की जो बात कही है, इससे जाहिर है कि इस समस्या की जटिलता क्या है. और जटिल समस्याओं के लिए बातचीत से ज्यादा मायने रखता है कि कोर्ट ही कानून के मुताबिक कोई उचित फैसला दे. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस खेहर की सलाह उनकी नेकनीयती को जाहिर करती है, क्योंकि एक जगह पर यह आस्था का मामला तो है ही. हम पूजा कैसे करेंगे, नमाज कैसे पढ़ेंगे, ये सब आस्था के अंतर्गत आते हैं और कोर्ट इस आस्था पर कोई फैसला नहीं कर सकता. मंदिर पक्ष के लोग बार-बार यह कहते हैं कि यह आस्था का मामला है, जबकि मसजिद पक्ष के लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं कि वह कोई फैसला दे. लेकिन, कोर्ट के सामने यह पूरा मामला टाइटल सूट का है कि वह जमीन मंदिर की है कि मसजिद की है. और कोर्ट को यही फैसला करना है कि वह जमीन किसकी है, न कि आस्था पर कोई फैसला देना है. इसलिए हम उम्मीद यही करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ही फैसला दे.
सुब्रमण्यन स्वामी जो बात कह रहे हैं कि किसी भी हाल में मंदिर वहीं बनेगा, जहां राम का जन्म हुआ है, तो उनकी इस बात का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है. हिंदू धर्म शास्त्र में यह कहीं नहीं लिखा हुआ है कि राम के जन्मस्थान पर मंदिर ही बनना चाहिए. राम जी को स्वामी एक हिंदू देवता के रूप में देखते हैं, हिंदू पक्ष के रूप में देखते हैं, जबकि राम सबके हैं और पूरे भारत के मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. राम जी को सिर्फ हिंदू पक्ष में खड़ा करना मर्यादा पुरुषोत्तम रूपी उनकी सर्वप्रियता से इनकार करना है. मंदिर और मसजिद तो कहीं भी बनाये जा सकते हैं, लेकिन राम जन्मस्थान पर ही मंदिर बने, हिंदू पक्ष के पास इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है. पुराने जमाने में राजा या बादशाह ही अपने राज की जमीनों का मालिक हुआ करता था. मसलन, राम जी के बाद उनकी विरासत को संभालने के लिए उनके वारिस तो रहे ही होंगे. लेकिन, जब बाबरी मसजिद बनी थी, तब वह जमीन खाली थी. तब उनके वारिसों को रोकना चाहिए था और बताना चाहिए था कि वह जमीन राम जी की जन्मस्थली है. स्वामी का कहना कि मसजिद कहीं भी बन सकती है, यह बात सही है, लेकिन शर्त यह भी है कि जब कोई जमीन वक्फ की जायेगी, तभी वहां मसजिद बनेगी. उसके बाद जिस जमीन पर एक बार मसजिद बन गयी, तो वह जमीन खुदा की मिल्कियत में शामिल हो जाती है, इसलिए उसको कोई वापस नहीं ले सकता है. इसलिए स्वामी की बात निराधार है. दूसरी बात यह है कि सुब्रमण्यन स्वामी का हर बयान एक धमकीभरा होता है, जहां कोई बात रखना भी मुश्किल है. बातचीत के माकूल माहौल के लिए स्वामी का बयान आड़े आता है.
यह मानना मेरे लिए कुछ मुश्किल है कि योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने और प्रधान न्यायाधीश का इस सुझाव में कोई संबंध है. यह महज इत्तेफाक है कि उनका सुझाव ऐसे वक्त में आया है, जब योगी की छवि को लेकर देशभर में चर्चा हो रही हो और मंदिर वहीं बनायेंगे का नारा जोर मार रहा हो. यह मामला तो अरसे से चल रहा है, इसलिए इसको किसी हालिया घटनाक्रम विशेष से जोड़ कर माला-मतलब पहनाने की कोई जरूरत मैं नहीं समझता. यह महज इत्तेफाक है. हमारे लिए अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाये, वही हमें मान्य होगा. लेकिन, विडंबना यह है कि मंदिर पक्ष के लोग इस बात को कहने से हिचकते रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ही फैसला करे, क्योंकि वे जानते हैं कि कोर्ट का फैसला एक बार आ गया, तो उनके मंदिर वहीं बनायेंगे के नारे के लिए मुश्किल हो जायेगी. इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला एक तरह से पंचायती प्रकार का फैसला था, एक प्रकार का बंटवारा था, तभी दोनों पक्षों को सुप्रीम कोर्ट में जाने की जरूरत पड़ी. इसलिए अब वक्त का तकाजा है और यह बेहद जरूरी है कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ही अपना फैसला सुनाये. सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही हमारे लिए मान्य होगा.
मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी
इसलामी विद्वान
सबूतों ने आस्था की इमारत मजबूत की
अयोध्या में राममंदिर का निर्माण देश के हिंदुओं के लिए संवेदना से आगे जाकर आस्था का सवाल है. आजादी के बाद और खासकर अस्सी के दशक के बाद यह मुद्दा इतना संवेदनशील रहा है कि इसने लोगों को गहरे तक प्रभावित किया. राम जन्मभूमि को लेकर देश ने आंदोलनों का ज्वार देखा, बाबरी मसजिद का विध्वंस देखा, सरकारों की बर्खास्तगी देखी, इस मुद्दे को देश की सियासत की धुरी बनते देखा, प्रचंड बहुमत से जीते राजीव गांधी की सरकार के दौर में मंदिर का ताला खुलते और विवादित स्थल के बाहर शिलान्यास होते देखा और अब देख रहे हैं अदालतों में चल रही लंबी कानूनी लड़ाई. अगर यह मुद्दा पिछले सत्तर साल से लोगों को लगातार मथ रहा है, तो समझना चाहिए कि यह जनमानस में कितने गहरे तक पैठा हुआ है. सितंबर 2010 में जब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने फैसला दिया और जमीन को तीन हिस्से में बांटने का हुक्म दिया, तो सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट चले गये और इस फैसले के खिलाफ अपील कर दी. तब से यह मसला वहां लंबित है.
हाल ही में बीजेपी सांसद सुब्रमण्यन स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि कोर्ट इस मसले पर रोजाना सुनवाई कर अपना फैसला सुनाये. स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने अपनी टिप्पणी में कहा कि धर्म और आस्था से जुड़े मसले आपसी सहमति से सुलझाये जायें, तो बेहतर रहेगा. सर्वसम्मति से किसी समाधान पर पहुंचने के लिए आप नये सिरे से प्रयास कर सकते हैं. अगर आवश्यकता हो तो आपको इस विवाद को खत्म करने के लिए मध्यस्थ भी चुनना चाहिए. अग इस केस के पक्षकार की रजामंदी हो, तो मैं भी मध्यस्थों के साथ बैठने के लिए तैयार हूं. राम मंदिर के मसले पर यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं है सिर्फ टिप्पणी है, लेकिन इस टिप्पणी में मुख्य न्यायाधीश ने एक बेहद अहम बात कह दी है, जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है. जस्टिस खेहर ने कहा कि धर्म और आस्था के मसले में बातचीत का रास्ता बेहतर होता है. क्या यह माना जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है कि राममंदिर का मुद्दा धर्म के साथ-साथ आस्था का भी है. अगर अदालत ऐसा मानती है, तो फिर बातीचत की सूरत नहीं बनने पर उससे इसी आलोक में फैसले की अपेक्षा की जा सकती है.
हलांकि, इस पूरे विवाद में सुब्रमण्यन स्वामी ना तो पक्षकार हैं और ना ही किसी पक्ष के वकील, लेकिन फिर भी उन्होंने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपनी बात रखी है, जिस पर कोर्ट ने उक्त टिप्पणी करते हुए उनको 31 मार्च को फिर बुलाया है. कोर्ट के इस प्रस्ताव को लगभग सभी पक्षकारों ने ठुकरा दिया है और कोर्ट से आग्रह किया है कि वह फैसला करे, जो सभी पक्षों को मान्य होगा. श्रीराम जन्मभूमि न्यास के महंत नृत्य गोपालदास ने साफ किया है कि उनको किसी भी तरह की मध्यस्थता स्वीकार नहीं है. उनका तर्क है कि विवादित स्थल पर सभी पुरातात्विक साक्ष्य मंदिर के पक्ष में है. उधर आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड समेत कई मुसलिम संगठन कोर्ट के बाहर इसके समाधान को लेकर आशान्वित नहीं हैं.
दरअसल, अगर हम देखें तो बातचीत से सुलह इस वजह से भी संभव नहीं है, क्योंकि इसमें कुछ लेना और कुछ देना पड़ता है, जिसकी ओर सुप्रीम कोर्ट ने भी इशारा किया था. जिस देश में राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आदर्श मान कर पूजे जाते हों, वहां उनके जन्मस्थल को लेकर लेन-देन होना अफसोसनाक तो है ही, करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ भी है. आस्था तो लंबी अदालती लड़ाई के दौर में सबूतों की जमीन पर और गहरी होती चली गयी है. अगर हम 2010 के इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को देखें, तो उसमें भी उस जगह को राम जन्मभूमि मान लिया गया था. इसके अलावा पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट भी इसके पक्ष में ही है. दस हजार पन्नों के अपने फैसले में कोर्ट ने जमीन के मालिकाना हक का फैसला कर दिया था. हाइकोर्ट के इस फैसले के पहले भी सात या आठ बार बातचीत से इसको हल करने की नाकाम कोशिशें हुई थीं. शिया पॉलिटिकल काॅन्फ्रेंस के सैयद असगर अब्बास जैदी ने भी कोशिश की थी और प्रस्ताव दिया था कि जहां रामलला विराजमान हैं, वहां राम का भव्य मंदिर बने और मुसलिम समुदाय के लोग पंचकोशी परिक्रमा के बाहर मसजिद बना लें. लेकिन, यह मुहिम परवान नहीं चढ़ सकी थी. साल 2004 के बाद जस्टिस पलोक बसु ने भी इस दिशा में प्रयास किया था, लेकिन वे भी सफल नहीं हो सके. चंद्रशेखर से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने भी इस दिशा में गंभीर कोशिश की थी, लेकिन कभी मंदिर-समर्थकों ने, तो कभी मंदिर-विरोधियों ने इस मुहिम को सफल नहीं होने दिया. साल 2001 में तो कांची के शंकराचार्य ने भी मध्यस्थता की कोशिश की थी, लेकिन उस वक्त विश्व हिंदू परिषद् के विरोध की वजह से शंकराचार्य ने अरने कदम पीछे खींच लिये.
मध्यस्थता की बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है, लेकिन मामला इतना जटिल है कि इस तरह का कोई फॉर्मूला सफल हो ही नहीं सकता है. अगर किसी हाल में बातचीत की सूरत बनती भी है, तो स्वामी और ओवैसी जैसे अलग-अलग कौम के अलग-अलग रहनुमा सामने आ जायेंगे, जिससे पेंच फंसना तय है. मध्यस्थता की बजाये इस मसले पर देश के मुसलिम समुदाय को बड़ा दिल दिखाना चाहिए और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए आगे आकर उदाहरण पेश करना चाहिए. इससे दोनों समुदायों के बीच आपसी सद्भाव बढ़ेगा, क्योंकि यह तो तय है कि भारत के मुसलमानों के लिए भी आक्रमणकारी औरंगजेब से ज्यादा राम उनके अपने हैं. क्या इस देश में कोई मुसलमान ऐसा होगा, जो अपने को औरंगजेब के साथ कोष्ठक में रखना चाहेगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो फिर सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर सरकार को कदम उठा कर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता प्रशस्त करना चाहिए.
अनंत विजय
वरिष्ठ पत्रकार