विक्रम संवत् : भारत में कई किस्म के संवत्सर हैं प्रचलन में

संवत्सर: काल गणना का शोधपत्र !!सद्गुरु स्वामी आनंद जी!! आज चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा है. आज से ही विक्रम संवत् का आरंभ हो रहा है. संवत्, दरअसल काल या समय को गिनने या मापने का वह भारतीय पैमाना है, जिसे भारतीय कैलेंडर भी कहा जा सकता है. जंबूद्वीप यानी भारतीय उपमहाद्वीप में यूं तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 29, 2017 7:27 AM
an image
संवत्सर: काल गणना का शोधपत्र

!!सद्गुरु स्वामी आनंद जी!!

आज चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा है. आज से ही विक्रम संवत् का आरंभ हो रहा है. संवत्, दरअसल काल या समय को गिनने या मापने का वह भारतीय पैमाना है, जिसे भारतीय कैलेंडर भी कहा जा सकता है. जंबूद्वीप यानी भारतीय उपमहाद्वीप में यूं तो कई संवत् प्रचलन में हैं, पर आज के दौर में अनेक संवतों में दो संवत् अधिक प्रख्यात हैं. पहला, विक्रम संवत्, दूसरा शक संवत्. आइए आज जानें, आखिर संवत्सर है क्या?
विक्रम संवत् ईसा से लगभग पौने 58 वर्ष पहले वजूद में आया. काल गणना की यह पद्धति गर्दभिल्ल के पुत्र सम्राट विक्रमादित्य, जिन्होंने मालवों का नेतृत्व कर विदेशी ‘शकों’ को धूल धूसरित किया था, के प्रयास से अस्तित्व में आयी. बृहत्संहिता की व्याख्या करते हुए 966 ईस्वी में ‘उत्पल’ ने लिखा कि शक साम्राज्य को जब सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने पराभूत कर दिया, तब नया संवत् अस्तित्व में आया, जिसे आज विक्रम संवत् कहा जाता है.
विदेशी शकों को उखाड़ फेंकने के बाद तब के प्रचलित शक संवत् के स्थान पर विदेशियों और आक्रांताओं पर विजय स्तंभ के रूप में विक्रम संवत् स्थापित हुआ. आरंभ में इस संवत् को कृत संवत् के नाम से जाना गया. कालांतर में यह मालव संवत् के रूप में भी प्रख्यात हुआ. बाद में जब विक्रमादित्य राष्ट्र प्रेम प्रतीक चिह्न के रूप में स्थापित हुए, तब मालव संवत् खामोशी से, कई सुधारों को अंगीकार करते हुए, विक्रम संवत् के रूप में तब्दील हो गया. पर शकों का शक संवत् अब तक भारत में प्रचलित है. महाकवि कालिदास इन्हीं सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न थे.
द्वादश माह के वर्ष एवं सात दिन के सप्ताह का आगाज विक्रम संवत् से ही आरंभ हुआ. विक्रम संवत् में दिन, सप्ताह और मास की गणना सूर्य व चंद्रमा की गति पर निश्चित की गयी. यह कालगणना अंगरेजी कैलेंडर से बहुत आधुनिक और विकसित प्रतीत होती है. इसमें सूर्य, चंद्रमा के साथ अन्य ग्रहों को तो जोड़ा ही गया, साथ ही आकाशगंगा के तारों के समूहों को भी शामिल किया गया, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है. एक नक्षत्र चार तारा समूहों के मेल से निर्मित होता है, जिन्हें नक्षत्रों के चरण के रूप में जाना जाता है. कुल नक्षत्र की संख्या सत्ताइस मानी गयी है, जिसमें अट्ठाइसवें नक्षत्र अभिजीत को शुमार नहीं किया गया.
सवा दो नक्षत्रों के समूहों को एक राशि माना गया. इस प्रकार कुल बारह राशियां वजूद में आयीं, जिन्हें बारह सौर महीनों में शामिल किया गया. पूर्णिमा पर चंद्रमा जिसनक्षत्र में गतिशील होता है, उसके अनुसार महीनों का विभाजन और नामकरण हुआ है. सूर्य जब नयी राशि में प्रविष्ट होता है, वह दिवस संक्रांति कहलाता है
पर, चूंकि चंद्रवर्ष सूर्यवर्ष यानी सौर वर्ष से ग्यारह दिवस, तीन घाटी, और अड़तालीस पल कम है, इसीलिए हर तीन साल में एक एक मास का योग कर दिया जाता है, जिसे बोलचाल में अधिक माह, मल मास या पुरुषोत्तम माह कहा जाता है.
राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत् भारत की बेहद प्रचलित काल निर्णय पद्धति है. शक संवत् का आरंभ यूं तो ईसा से लगभग अठहत्तर वर्ष पहले हुआ, पर इसका अस्पष्ट स्वरूप ईसा के पांच सौ साल पहले से ही मिलने लगा था. वराहमिहिर ने इसे शक-काल और कहीं कहीं शक-भूपकाल कहा है.
शुरुआती कालखंड में लगभग समस्त ज्योतिषिय गणना और ज्योतिषीय ग्रंथों में शक संवत् ही प्रयुक्त होता था. शक संवत् के बारे में धारणा ये है कि यह उज्जयिनी सम्राट ‘चेष्टन’ के अथक प्रयास से प्रकट हुआ. इसके मूल में सम्राट कनिष्क की भी महती भूमिका मानी जाती है. शक संवत् को ‘शालिवाहन’ भी कहा जाता है. पर, शक संवत् के शालिवाहन नाम का उल्लेख तेरहवीं से चौदहवीं सदी के शिलालेखों में मिलता है. कहीं-कहीं इसे सातवाहन भी कहा गया है. संभावना है कि सातवाहन नाम पहले साल वाहन या शाल वाहन बना और कालांतर में ये ‘शालिवाहन’ के स्वरूप में प्रख्यात हुआ. शक संवत् के साल का आगाज चंद्र सौर गणना के लिए चैत्र माह से और सौर गणना के लिए मेष राशि से होता है.
इनके अलावा एक और संवत्सर प्रचलित है, जिसे लौकिक संवत् कहा जाता है. इसे सप्तर्षि संवत् भी कहते हैं, जो उत्तर में विशेष रूप से कश्मीर और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है. इसे शक संवत् से भी अधिक प्राचीन माना गया है. बौद्ध धर्म के विस्तार से पूर्व इस संवत्सर के विस्तारसूत्र चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया और उससे आगे तक नजर आते हैं.
बृहत्संहिता के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र में शतवर्षों तक यानी सौ साल तक रहते है. मान्यताओं के अनुसार युधिष्ठर के शासन काल में भिनसप्तर्षि संवत्सर अस्तित्व में था. सप्तर्षि संवत् दरअसल मेष राशि से प्रारंभ होकर, सौ वर्षों के वृत्तों में गणना की विधि थी. मध्य काल में अन्य बहुत से संवत् वजूद में थे.
जैसे गुप्त, कोल्लम या परशुराम, हर्ष, वर्धमान, चेदि, बुद्ध-निर्वाण और लक्ष्मणसेन. वक्त के थपेड़ों में गुम होने से पहले ये सारे संवत् अपने काल में आज के अंगरेजी कैलेंडर और विक्रम या शक संवत् से कहीं बहुत ज्यादा प्रख्यात, असरदार और प्रभावी माने जाते थे.
Exit mobile version