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आदिवासी जीवन दर्शन और सरहुल

झारखंड की गोद में प्रकृति की हरियाली, पलाश फूल की लालिमा, कोयल की कूक मन को मोहती है. सरई फूल की खुशबू से झारखंड का कोना कोना महक उठता है. सरहुल महापर्व में प्रकृति यानी सखुआ वृक्ष की पूजा कर नववर्ष का आरंभ होता है. चैत शुक्ल पक्ष अमावस्या की द्वितीया तिथि को सरहुल की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 30, 2017 5:51 AM

झारखंड की गोद में प्रकृति की हरियाली, पलाश फूल की लालिमा, कोयल की कूक मन को मोहती है. सरई फूल की खुशबू से झारखंड का कोना कोना महक उठता है. सरहुल महापर्व में प्रकृति यानी सखुआ वृक्ष की पूजा कर नववर्ष का आरंभ होता है. चैत शुक्ल पक्ष अमावस्या की द्वितीया तिथि को सरहुल की पूजा की जाती है. पूजा के एक दिन पहले राजा अौर पाईनभोरा उपवास कर पंजरी मिट्टी पूजा के लिए लाते हैं. पाईनभोरा गांव के नदी या तालाब से नये घड़ा में पानी भर कर गांव के सरना स्थल में रखता है. दूसरे दिन पाहन राजा, पाइन भोरा अौर गांव के लोग उपवास कर अपने अपने घर में पूजा करके सरना स्थल पर लोटा से पानी लेकर जाते हैं. जिसके बाद पूजा की जाती है.

अच्छी खेती अौर गांव समाज की खुशहाली के लिए प्रार्थना की जाती है. पाहन राजा नये फल अौर सात प्रकार की सब्जी जिसमें सहजन, कटहल, पुटकल, बड़हर, ककड़ी, कचनार, कोयनार, की सब्जी बनाकर अौर मीठा रोटी पहले धरती मां को चढ़ाकर पूजा संपन्न करता है. फिर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है. पूजा के बाद एक दूसरे को सरहुल की बधाई देते हैं अौर मांदर की थाप में लोग सरहुल की शोभायात्रा में शामिल होते हैं. शोभायात्रा अपने गांव, मोहल्ले से शुरू होकर सिरोमटोली तक जाती है अौर पूरा झारखंड मांदर की थाप पर झूम उठता है. तीसरे दिन फूलखोंसी की जाती है. सरहुल साक्षात प्रकृति की पूजा है. प्रेम अौर भाईचारा का पर्व है.

डॉ मीनाक्षी मुंडा

दुनिया में लगभग तीस करोड़ आदिवासी हैं और उनमें से करीब 15 करोड़ सिर्फ एशिया में हैं. आदिवासी, जो कभी अपने स्वावलंबन और स्वाभिमान के लिए जाने जाते थे, आज विकास के नाम पर अपनी जमीन से बेदखल हो रहे हैं. एक स्वावलंबी और स्वाभिमानी समुदाय से भूमिहीन मजदूर और वफादार घरेलू कामगार के रूप में बड़े शहरों में बिखर रहे हैं. आज के इस वैश्वीकरण के दौर में त्योहार भी किसी हूल से कम नहीं लगते. सरहुल (सरई हूल) साल फूल के माध्यम से सारी प्रकृति के नवरूप का स्वागत करता है. आदिवासी जीवन सीधा-सादा है और प्रकृति से जुड़ा है. इसके हर रीति-रिवाज, पर्व- त्योहार, जीवन- मरण में प्रकृति शामिल है. यहां तक कि प्रकृति का मानवीकरण कर उनसे प्रार्थना के रूप में संवाद में भी शामिल है.

अन्य देशों के आदिवासी भी करते हैं प्रकृति की पूजा

जैसे भारत के आदिवासी पृथ्वी को अपने अनुष्ठानों में प्रमुख स्थान देते हैं, वैसे ही पेरु देश के क्वेचुआ आदिवासियों का एंडीन अनुष्ठान भी इस मूल विश्वास पर आधारित है कि सभी चीजों या आध्यात्मिक जीवन शक्ति में ऊर्जा मौजूद है. इस ऊर्जा को संतुलित अवस्था में बनाये रखने की जरूरत है.

यह ऊर्जा पेड़ पौधों, नदियों, ग्लेशियर, झील, चट्टानों और ऊंचे पर्वत चोटियों सहित सभी प्राकृतिक रूपों में मौजूद है. क्वेचुआ आदिवासी मानते हैं कि स्वस्थ जीवन, अच्छी फसल और एक उपजाऊ और प्रचुर मात्रा में पशुधन के लिए एक संतुलित संबंध आवश्यक है. सभी जीवन पचमामा (धरती मां) से आता है और मृत्यु के लिए उसके पास लौट जाता है. जब ऊर्जा असंतुलित हो जाती है, तो सामंजस्य स्थापित करने के लिए अनुष्ठानों की जरूरत होती है. वे (धरती मां) पचमामा के प्रतीक एक बड़े घड़े में वर्ष के नये अन्न, फल, फूल, फसल एवं पारंपरिक पेय डालाते हैं और यह कामना करते हैं कि विश्व के किसी भी मनुष्य, जीव जंतु को अन्न की कमी न हो. खुशहाली बनी रहे. उसी तरह बर्मा देश के कारेन आदिवासी बु-थाव-कोन या लाह-कु-की-सु त्योहार के माध्यम से प्रकृति की पूजा अर्चना करते हैं व धन्यवाद ज्ञापन करते हैं.

विश्व भर के आदिवासियों की सबसे दिलचस्प बात यह है की वे विषम पर्यावरण स्थिति में भी रहना जानते हैं एवं प्रकृति के हर संकेत को पढ़ना जानते हैं. इन्होंने पर्यवावरणीय प्रबंधन और विकास प्रक्रिया के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. उनका पारंपरिक ज्ञान पर्यावरण बहाली में उपयोगी रहा है. ये सभी जानते हैं कि प्रकृति के साथ सदभावपूर्वक कैसे जीना है.

आदिवासी जहां भी रहते हैं, पर्यावरण को क्षति पहुंचानेवाले विकास के तरीकों का विरोध करते हैं. भारत जैव विविधता से समृद्ध है और आदिवासियों ने जैव विविधता के संरक्षण में काफी मदद की है. फिर भी तेजी से हो रही औद्योगिक क्रांति व विकास की दौड़ के कारण स्थिति चिंतनीय है. पर्यावरण की रक्षा में ही सबकी भलाई है और इसमें सबकी भागीदारी हो. इसके बिना सरहुल सरहुल न होकर सरई- हूल हो सकता है.

(लेखिका एशिया पेसिफिक इंडिनजिनस यूथ नेटवर्क की प्रेसिडेंट हैं)

लोककथाएं और परंपरा

मुंडारी लोककथा के अनुसार सरहुल धरती की बेटी बिंदी का मृत्युलोक से वापसी का त्योहार है. इसके अनुसार धरती की इकलौती बेटी बिंदी जब नहाने गयी, तो उधर से ही गायब हो गयी. पृथ्वी दुखी रहने लगी, पृथ्वी पर पतझड़ छा गया़ खोजबीन करने पर पता चला कि बिंदी पाताल में है.

दूतों ने पाताल के राजा से अनुरोध किया कि पृथ्वी की बेटी को वापस भेज दे, लेकिन पाताल के राजा ने कहा कि जो यहां एक बार आता है, वह वापस नहीं लौटता. बहुत अनुरोध करने पर पाताल के राजा ने बिंदी को आधा समय उनके पास रहने और आधा समय पृथ्वी के पास रहने की अनुमति दी. तब से जब जब बिंदी वापस आती है, पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है. पेड़ पौधों में ये पत्ते- फूल लगते हैं. पृथ्वी पर हरियाली छा जाती है. एक सृष्टि कथानुसार मछली और केकड़ा पृथ्वी के पूर्वज हैं और उन्होंने ही समुद्र के नीचे से मिट्टी को ऊपर लाकर पृथ्वी का निर्माण किया. इसलिए सम्मान प्रकट करते हुए सरहुल का पहला दिन मछली और केकड़े को अर्पित होता है. शाम को भोजन में उन्हें सम्मिलित कर लोगों के खाने के पहले घर के मुखिया थोड़ा सा अंश घर के पूर्वजों को अर्पित करते हैं. उसी दिन गांव के पाहन गांव के लोगों के साथ सरना स्थल जाते हैं.

वहां की साफ-सफाई, गोबर से लिपाई-पुताई करते हैं और दो नये घड़ा में पानी भर का पानी की गहराई को साल की टहनी से नाप लेते हैं. दोनों घड़ों को नये धागों (अदवा धागा) से बांध देते हैं. घड़ों को मिट्टी के ढक्कन से ढंक देते हैं, फिर वापस गांव लौट आते हैं. गांव की सीमा में गाजे- बाजे से उनका स्वागत किया जाता है और पाहन को ससम्मान उनके घर पहुंचाया जाता है़ दूसरे दिन गांव के पुरुष नहा-धो कर अपने अस्त्र-शस्त्र साफ कर पाहन के घर जाते हैं और वहीं से पूजा की सामग्री, जैसे अरवा चावल, उदर, धूवन, सिंदूर, अदवा सूता, दीया, एक सूप, मुर्गे- मुर्गी लेकर सरना स्थल जाते हैं. गांव की महिलाएं सिर पर लोटा रख कर पीछे-पीछे जाती हैं. गाजे-बाजे के साथ. सरना स्थल में अस्त्र-शस्त्र पूजा स्थल में रखते हैं. पाहन साल के फूल ससम्मान तोड़ कर लाने के लिए बोलते हैं.

फिर एक दिन पहले रखे गये घड़े के पानी का निरीक्षण करते हैं और वर्षा का अनुमान लगाते हैं. यदि पानी कम हुआ तो यह अनुमान लगाते हैं कि इस वर्ष कम बारिश होगी. फिर उसी पानी से साल फूल व सभी लोगों का स्वागत करते हैं. नये अदवा धागे से साल के फूलों को लपेटते हैं, धूप, धुवन व दीया जलाते हैं. जमीन पर सिंगबोंगा, पृथ्वी और जल देवता (इकिर बोंगा) के लिए तीन लकीरें और पंच पूर्वजों के लिए प्रतीक रूप में पांच खड़ी लकीरें बनाते हैं.

इसके बाद पाहन क्रमश: सिगबोंगा, पृथ्वी और पहाड़ देवता (बुरु बोंगा), जल देवता (इकिर बोंगा), ग्राम देवता (हातु बोंगा) और पूर्वजों को संबोधित कर उनसे प्रार्थना करते हैं. मुर्गे- मुर्गियों की बलि देते हैं और पारंपरकि पेय, हड़िया अर्पित करते हैं. इसके बाद पाहन व उनके सहयोगियों द्वारा पूजा मंत्र उच्चारण किया जाता है. सभी अनुष्ठान में पृथ्वी को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वही जीवन स्रोत है.

बीज के माध्यम से सभी पुनः जीवन को प्राप्त करते हैं. प्रार्थना में चारों दिशाओं, पृथ्वी, आकाश, पाताल, सृष्टि, जीव-जंतु को संबोधित किया जाता है एवं समस्त मानव के लिए या विश्व के सभी जीवित जनों के भले की कामना की जाती है. उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना की जाती है. रोग, दुख, क्रोध, लोभ से मुक्ति की कामना की जाती है और समस्त देवी-देवताओं को साथ बैठकर खाने-पीने, बात करने का न्योता दिया जाता है.

इसके बाद बलि में चढ़ाये गये मुर्गे- मुर्गी की खिचड़ी बनती है और प्रसाद स्वरूप सेवन किया जाता है. फिर नाच गान कर वापस गांव लौट आते हैं. अपने-अपने घरों के मुखिया पूजा करते हैं. प्रार्थना में पूर्वजों को प्राथमिकता दी जाती है. शाम को कुटुंब-बंधुओं के साथ नृत्य-संगीत का कार्यक्रम रात भर चलता है. तीसरे दिन, दिन भर मेहमानों के साथ खान-पान एवं शाम को फूल विसर्जन किया जाता है. चौथी शाम को अखरा मिटाने के नाम पर फिर से एक बार लोग नाचते गाते हैं.

सरहुल शोभायात्रा का बदलता स्वरूप

रांची शहरी क्षेत्र में 1964 से निकल रही है सरहुल की शोभायात्रा

प्रवीण मुंडा

रांची : सरहुल यानी सूर्य अौर धरती के विवाह का पर्व. सरहुल यानी प्रकृति पर्व. सरहुल की शोभायात्रा का दृश्य भी अदभुत है. ढोल, नगाड़े अौर मांदर की थाप पर थिरकते हजारों लोग.

नाचते-गाते प्रकृति प्रेमियों का हुजूम. इस पर्व का संदेश भी साफ है- प्रकृति से जुड़े रहें, प्रकृति में बने रहें. झारखंड का आदिवासी समुदाय सदियों से सरहुल पर्व मना रहा है. हालांकि सरहुल के अवसर पर शोभायात्रा निकालने का चलन साठ के दशक से शुरू हुआ.

केंद्रीय सरना समिति के अनुसार 1964 में पहली बार रांची में सरहुल की शोभायात्रा निकाली गयी थी. इस शोभायात्रा को जमीन बचाने के लिए निकाला गया था. सिरोम टोली स्थित केंद्रीय सरना स्थल पर एक व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण किया जा रहा था. सिरोम टोली के लोगों ने अतिक्रमण हटाने के लिए समाज के लोगों से मदद मांगी. तब स्व कार्तिक उरांव, पूर्व मंत्री करमचंद भगत अौर अन्य लोगों ने सिरोम टोली को अतिक्रमण से मुक्त कराया अौर पूजा-अर्चना की. उसी के बाद से सरहुल की शोभायात्रा निकलने लगी. स्पष्ट है कि सरहुल की शोभायात्रा की शुरुआत जमीन बचाने के लिए थी.

पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा का था अहम योगदान

सरहुल की शोभायात्रा को लोकप्रिय बनाने में पद्मश्री स्व डॉ रामदयाल मुंडा का बड़ा योगदान रहा. अमेरिकी नागरिक अौर स्व डॉ रामदयाल मुंडा की पहली पत्नी हेजेल ने एक बार एक किस्सा सुनाया था. अमेरिका से डॉ रामदयाल मुंडा के वापस रांची आने के बाद एक कार्यक्रम में आदिवासी नृत्य के माध्यम से लोगों का स्वागत किया जा रहा था. इस दौरान लोगों ने आदिवासी नृत्य व गान को बंद करने को कहा क्योंकि वह उन्हें अच्छा नहीं लगता था अौर वे इसे हीन दृष्टि से देखते थे. अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में आदिवासी समुदाय के लोग भी दूसरे लोगों के समक्ष अपने नृत्य व गीतों की प्रस्तुति को लेकर हिचकते थे. डॉ रामदयाल मुंडा ने इस हिचक को दूर किया अौर आदिवासी समुदाय के बीच अपने गीत व नृत्य को लेकर एक अभिमान का भाव भरा. सरहुल की शोभायात्रा में जब वे खुद मांदर को गले में टांगकर निकलते थे, तो वह देखने लायक दृश्य होता था.

झारखंड अलग राज्य के गठन के बाद सरहुल की इस शोभायात्रा में धीरे-धीरे कई बदलाव देखने को मिले. पहले लोग सिर्फ ढोल-मांदर, नगाड़े के साथ निकलते थे. बाद में लाउडस्पीकरों पर नागपुरी गीतों के साथ जुलूस में शामिल होने लगे. इसके बाद डिस्को लाइट अौर रिमिक्स गीतों का भी दौर शोभायात्रा में जुड़ गया. एक अौर परिवर्तन यह था कि शोभायात्रा में झांकियां भी निकलने लगी. इन झांकियों में जल, जंगल जमीन बचाने, पर्यावरण की रक्षा, गांव का जीवन जैसे दृश्य होते हैं.

इसके अलावा जनजातीय जीवन के विभिन्न पहलुअों से जुड़े मुद्दे भी इन झांकियों का विषय होते हैं. इस बार सीएनटी/एसपीटी कानून में संशोधन के खिलाफ झांकियां निकालने की अपील की गयी है. कुछ लोग कहते हैं कि सरहुल एक धार्मिक आयोजन है अौर इसमें इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिए. पर लोगों को यह भी जानना चाहिए कि आदिवासी समुदाय की सारी व्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं. सरहुल की शोभायात्रा जमीन बचाने की मुहिम से शुरू हुई थी अौर यह इस वर्ष भी अपने सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक पक्ष के अलग-अलग आयामों के साथ निकलेगी.

प्रकृति संरक्षण की कुंजी है यह त्योहार

डॉ अजीत मुंडा

प्रकृति के प्रति श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, आदर, प्रेम की भावना आदिवासियों की विरासत में है. ये प्राचीनतम निवासियों में हैं और इनकी संस्कृति, पद्धति, दर्शन, परंपरा रहस्यों से परिपूर्ण है. झारखंड के आदिवासियों का जीवन व संस्कृति प्रकृति के साथ जुड़ा एक अटूट बंधन है. इसलिए आदिवासी समुदाय आधुनिकता से दूर प्रकृति से जुड़े रहना पसंद करता है और इसके विभिन्न रूपों की पूजा, अराधना करता है. सरहुल उनका एक प्रमुख प्रकृति पर्व है. साल का वृक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. इसके जड़ से लेकर फल तक औषोधीय गुणों से परिपूर्ण हैं.

प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं, क्योंकि शुद्ध हवा, शुद्ध जल, भूमि आदि प्रकृति के ही रूप है. इसलिए सरहुल के रूप में प्रकृति की पूजा करना महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक भी है. झारखंड के आदिवासी आदिकाल से प्रकृति की गोद में ही पलते आये हैं. उनके पास नये मौसम के आने के स्वागत और पतझड़ के विरह के लोकगीत हैं. इस प्रकृति से उसे जीवनदायी कंद-मूल, फल-फूल, औषोधीय गुणों से परिपूर्ण जड़ी-बूटी मिलती है. वहीं, जब हवाओं के विशाल झोंके, घनघोर बारिश जैसी विपदाएं प्रकृति के सौंदर्य को तहस-नहस करती है, तब सरल आदिवासी हृदय विचलित हो जाता है. इसलिए आदिवासी मनमस्तिष्क में प्रकृति के प्रति श्रद्धा, भक्ति, आदर, प्रेम की भावना है. वहीं, प्रकृति के रौद्र रूप उसके मन में भय उत्पन्न करते हैं. वह समझता है कि प्रकृति से जब उसे नुकसान पहुंचता है, तब यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति उनसे नाराज है.

जब से उसे प्रकृति की आपत्तियों का सामना करना पड़ा तब से उसने किसी अदृश्य शक्ति की ओर देखना प्रारंभ किया. कभी जिज्ञासा तो कभी भय के कारण मनुष्य में धार्मिक प्रवृति उदित हुई. यही धर्म आदिम जातियों की सार्वभौमिक प्रवृति है.प्रकृति के उपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उसे खुश रखना आवश्यक है. इसलिए वह प्रकृति के विभिन्न रूप, पेड़-पौधे, नदी-नाले, पहाड़-पर्वत आदि की पूजा, प्रार्थना या आराधना करता है. आज विडंबना है कि विलासिता, औद्योगीकरण, विज्ञान के नित नये प्रयोग के कारण मनुष्य प्रकृति को उजाड़ने में लगा है और जीव समुदाय के लिए ‘प्राणघातक’ जहर उगल रहा है. यदि समय रहते सरहुल के रहस्यों को नहीं समझेंगे, तो वह दिन दूर नहीं कि प्रकृति का विकराल रूप देखने को मिलेगा.

(लेखकजनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व शोधार्थी हैं)

पारंपरिक कथाअों में सखुआ का है महत्व

गिरिधारी राम गौंझू

सरहुल के आने का नेवता (निमंत्रण) प्रकृति कैसे बांटती है? साखू के हरे-भरे पेड़ को पीले रंग में प्रकृति रंग देती है. फिर निमंत्रण पत्र बांटने के लिए तेज हवाअों को लगा देती है. पीले पत्ते पेड़ों से अलग होकर दूर-दूर तक उड़ कर सरहुल का नेवता बांट देते हैं.

सारे साखू के पेड़ पर्ण विहीन हो जाते हैं. फिर सबसे पहले सरई के फूल मंजर गाते हैं. इसकी भीनी-भीनी खुशबू वन प्रांतों को सुवासित कर देती है. पेड़ों में लाल अौर गुलाबी पल्लव चमकते हैं. बाद में ये हरे हो जाते हैं. चैत का चांद आकाश में चमकने लगता है, तो सरहुल आ गया बता देता है. साखू के सुनहले फूलों सेे मधु रस लेकर मधुमक्खियां चारों अोर सब को जदुर नृत्य-गीत का संदेश देती हैं.

सखुआ का महत्व सरहुल में क्यों है, इसे इनका मौखिक इतिहास बताता है-मुंडाअों अौर दिकुअों में अचानक युद्ध हुआ. मुंडाअों ने सिंगबोंगा के आदेश पर साखू के फूल-पत्तों से अपने को सजा लिया, ताकि दिकुअों को आसानी से पहचाना जा सके. इस युद्ध में साखू के पुष्प-पल्लवों से आवृत होने के कारण विजयी हो गये मुंडा. इसकी स्मृति में सरहुल साखू के फूल पत्तों की टहनियों से सरना स्थल में मनाया जाता है. दूसरी कथा कहती है, मुंडाअों का अन्य विजातियों से भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध में अनेक मुंडा वीर शहीद हो हुए. उन्हें मसना में गाड़ दिया गया. उसी मसना के ऊपर सखुआ के पेड़ उगे अौर फूल-पत्तों से लद गये. मुंडाअों को लगा हमारे वीर शहीद ही साखू के पेड़ अौर फूल पत्ते बनकर छा गये. इसकी स्मृति में सरहुल मनाना शुरू हुआ.

तीसरी कहानी है मुंडाअों का विदेशी लोगों से युद्ध का. सिंगबोंगा ने मुंडाअों को साल के फूल पत्तों में छिपने के लिए कहा. वे ऐसा कर अदृश्य हो गये. विदेशी दुश्मनों को कुछ पता न चला कि मुंडा कहां, किधर अौर कितने हैं. इस तरह मुंडाअों की विदेशी दुश्मनों से जीत हुई. इस स्मृति में सरहुल मनाने लगे. चौथी कथा कहती है, महाभारत के युद्ध में मुंडा कौरवों की अोर से युद्ध कर रहे थे. युद्ध में अनेक मुंडा योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए. इनकी लाश को साखू के पत्तों की टहनी से ढंक दिया गया, ताकि युद्ध की समाप्ति से बाद उनका अंतिम संस्कार किया जा सके.

युद्ध की समाप्ति के बाद देखा गया कि साखू के फूल-पत्तों व टहनियों से ढंकी लाश सुरक्षित थी. इससे साखू के पत्तों का महत्व का पता चला. तब से सरहुल मनाया जाने लगा. साल के पेड़ के संबंध में कहावत है कि हजार साल खड़ा, हजार साल पड़ा, हजार साल सड़ा. ये ही इसकी आयु. इसके पत्ते सूखने के बाद भी भिंगो देने से दोना पत्तल के काम आते हैं.

इसका गोंद धूवन, पूजा एवं पर्यावरण शुद्धि के काम आता है. इसकी लकड़ी से बने सामान टिकाऊ होते हैं. इसके पत्ते और लकड़ी देर तक जलती है. सखुआ के फूल दूर-दूर तक अपना विस्तार करते हैं, इन्हीं गुणों की वजह से इसकी पूजा की जाती है.

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