एक दशक में 20 फीसदी बढ़ा डिप्रेशन का जोखिम

विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) मुंबई के एक होटल में हाल ही में एक 24 वर्षीय छात्र ने 19वीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली और छलांग लगाने से पहले उसने एक वीडियो बनाया कि आत्महत्या कैसे करें. उसने इस वीडियाे को फेसबुक पर भी शेयर किया है. इस घटना का जिक्र यहां इसलिए, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 6, 2017 5:49 AM
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विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल)

मुंबई के एक होटल में हाल ही में एक 24 वर्षीय छात्र ने 19वीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली और छलांग लगाने से पहले उसने एक वीडियो बनाया कि आत्महत्या कैसे करें. उसने इस वीडियाे को फेसबुक पर भी शेयर किया है. इस घटना का जिक्र यहां इसलिए, क्योंकि आज ज्यादातर लोग डिप्रेशन जैसी मानसिक बीमारी को समझ नहीं पाते. न तो इस मानसिक बीमारी से पीड़ित मरीज खुद इसे समझ पाते हैं और न ही उनके परिवार के सदस्य, दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि समझ पाते हैं.

इसी समस्या के प्रति लोगों का ध्यान केंद्रित करने के लिए इस वर्ष आयोजित किये जा रहे विश्व स्वास्थ्य दिवस के संदर्भ में डिप्रेशन को थीम बनाया गया है. क्या है डिप्रेशन और किस तरह का है इसका जोखिम समेत इससे संबंधित अनेक अन्य पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …

– कन्हैया झा

वै श्विक स्वास्थ्य के महत्व को रेखांकित करने और दुनिया की आबादी को इस ओर ध्यान आकृष्ट कराने के मकसद से विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में प्रत्येक वर्ष सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस का अायोजन किया जाता है. सात अप्रैल को ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की स्थापना की गयी थी.

इस खास दिवस के मौके पर ‘डब्ल्यूएचओ’ की ओर से लोगों को वैश्विक और स्थानीय स्वास्थ्य समस्याओं से अवगत कराया जाता है. यह संगठन हर वर्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रकार के खास विषय आधारित कार्यक्रमों का अायाेजन करता है. प्रत्येक वर्ष किसी खास स्वास्थ्य समस्या को फोकस करते हुए उसे थीम या कैम्पेन के तौर पर शामिल किया जाता है.

इस वर्ष का थीम है- डिप्रेशन यानी अवसाद. यह किसी भी उम्र समूह के और किसी भी समुदाय के इनसान को हो सकता है. यह न केवल इनसान की मानसिक दशा काे प्रभावित करता है, बल्कि लोगों के सोचने-समझने की प्रक्रिया पर भी इसका असर पड़ता है. साथ ही इससे रोजमर्रा के सामान्य कार्य भी प्रभावित हाेते हैं. कई बार परिवार के सदस्यों, मित्रों और रिश्तेदारों से व्यावहारिक बर्ताव असामान्य किस्म का हो जाता है और यहां तक कि उसका असर प्रोफेशनल लाइफ पर भी स्पष्ट रूप से दिखने लगता है. इसका सबसे विकृत स्वरूप उस वक्त दिखता है, जब इस बीमारी के शिकार आत्महत्या की कोशिश को अंजाम देते हैं. 15 से 29 वर्ष की उम्र समूह में तो यह दुनिया में मृत्यु का दूसरा बड़ा कारण बन चुका है.

हालांकि, डिप्रेशन से बचा जा सकता है और इसका इलाज मुमकिन हो सकता है. इस बीमारी के प्रति जागरूकता पैदा करने के मकसद से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अक्तूबर, 2016 में एक-वर्षीय अभियान की शुरुआत की थी. इसके तहत लोगों को मदद लेने और देने के लिए प्रेरित किया गया. उसी दौरान इस मसले की गंभीरता को महसूस किया गया और तय किया गया कि वर्ष 2017 में विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में इसे ही फोकस किया जायेगा. जरूरत इस बात की है कि हम इस स्वास्थ्य समस्या को समझें और इसकी गतिविधियों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें.

दुनियाभर में 32 करोड़ लोग हैं प्रभावित

दुनियाभर में डिप्रेशन के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक के दौरान डिप्रेशन की दर में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है. इस बीमारी के कारण दुनियाभर में लोगों में खुदकुशी करने की प्रवृत्ति बढ़ी है.

रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में दुनियाभर में डिप्रेशन की संशोधित परिभाषा के तहत करीब 32.2 करोड़ लोग इस बीमारी से पीड़ित थे, जो वर्ष 2005 के मुकाबले 18.4 फीसदी तक बढ़ चुका था. विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख मार्गेंट चान का कहना है कि ये नये आंकड़े उन सभी देशों और उनके निवासियों के लिए एक चेतावनी है, जहां इसका असर बढ़ रहा है. चान का कहना है कि इससे निपटने के लिए समय रहते समुचित कदम उठाने की जरूरत है.

ऊर्जा का अभाव, नीद्रा के पैटर्न में बदलाव, व्यथित रहने और खुद को मूल्यहीन समझने जैसी दशाएं इनसान को डिप्रेशन की ओर ले जाती हैं. कई बार इनसान इन कारणों से खुदकुशी के लिए भी प्रेरित होता है.

व्यक्ति की कार्यक्षमता या उसकी उत्पादकता में कमी आने और उसकी मेडिकल दशाएं अक्सर डिप्रेशन से संबद्ध पायी गयी हैं. कार्यक्षमता घटने और मेडिकल खर्चों के बढ़ने के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बीमारी के चलते वैश्विक स्तर पर करीब एक खरब डॉलर के नुकसान होने का अनुमान व्यक्त किया है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मेंटल हेल्थ एंड सब्सटांस एब्यूज डिपार्टमेंट के प्रमुख शेखर सक्सेना का कहना है कि जिन लोगों को साइको-सोशल और मेडिकल ट्रीटमेंट दोनों ही की दरकार है, उन तक पहुंच कायम करते हुए इसे ज्यादा प्रभावी बनाया जा सकता है. यहां तक कि ज्यादातर विकसित देशों में भी जितने लोग डिप्रेशन से पीड़ित हैं, उनमें से आधे का भी इलाज या निदान नहीं किया जाता है. विकासशील और अल्प-विकसित देशों में तो ऐसे लोगों की संख्या 80 से 90 फीसदी तक बतायी गयी है.

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, डिप्रेशन की दशा को सुधारने के लिए किये गये प्रत्येक डाॅलर के निवेश पर बेहतर स्वास्थ्य और उत्पादकता के रूप में बदले में चार डॉलर हासिल किया जा सकता है.

सक्सेना का कहना है कि इस बीमारी की आरंभिक स्टेज में पहचान और इलाज होने पर इसे प्रभावी रूप से कम किया जा सकता है और इस प्रकार इस कारण से होनेवाली आत्महत्या की दर को कम किया जा सकता है. ‘हेल्थ 24 डॉट कॉम’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में सालाना करीब आठ लाख लोग खुदकुशी करते हैं यानी प्रत्येक चार सेकेंड में एक इनसान ऐसा करता है. सक्सेना कहते हैं कि अध्ययनों से प्रदर्शित हुआ है कि खुदकुशी करनेवालों में से 70 से 80 फीसदी लोग उच्च-आय वाले देशों से आते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि दुनियाभर में करीब 32 करोड़ लोग डिप्रेशन का शिकार हैं. संयुक्त राष्ट्र के ताजा आंकड़े बताते हैं कि हर 25 में से एक व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार है. डिप्रेशन के करीब 80 फीसदी मरीज कम और मध्यम आय वाले देशों में बसते हैं. खासतौर से जो देश प्राकृतिक आपदा, बीमारियों और संघर्षों के शिकार हुए हैं, वहां डिप्रेशन के ज्यादा मरीज हैं. वर्ष 2015 में 15 से 19 साल के किशोरों और युवकों की मौत के लिए डिप्रेशन दूसरी सबसे बड़ी वजह रहा.

इस संबंध में क्या है लोगों की धारणा

मौजूदा दौर में लोगों की जिंदगी में भाग-दौड़ बढ़ गयी है, लेकिन इसके बावजूद कई बार लोग मानसिक रूप से अकेलापन महसूस करते हैं, क्योंकि वे अपने मन की बातों को दूसरे से साझा नहीं कर पाते.

इस बीमारी के पीड़ित खुद को भले ही दिनभर लोगों के बीच व्यस्त रखते हों और ऐसा देख कर उनके आसपास के लोगों को यह महसूस होता हो कि वे अपनी जिंदगी के सभी आयामों से खुश हैं, लेकिन कहीं-न-कहीं उनके मन का सुकून कुछ हद तक खोया रहता है. उनकी दिनचर्या इतनी व्यस्त हो जाती है कि उन्हें अपने लिए समय नहीं मिल पाता है.

दिनभर दिमाग में कुछ-न-कुछ चलता रहता है, जो एक दिन किसी मानसिक बीमारी का रूप ले सकती है. डिप्रेशन को लेकर एक गलत धारणा है कि यह केवल उसे ही होती है, जिसकी जिंदगी में कोई बहुत बड़ा हादसा हुआ हो या जिसके पास दुखी होने की बड़ी वजहें हों. यह पूरी तरह से गलत है.

डिप्रेशन के दौरान इनसान के शरीर में खुशी देने वाले हॉर्मोन्स जैसे कि ऑक्सिटोसीन का बनना कम हो जाता है. यही वजह है कि डिप्रेशन में आप चाह कर भी खुश नहीं रह पाते. आपने किसी ऐसे इनसान को देखा होगा, जो अपने आप से बातें करता रहता है या फिर कोई ऐसा, जो हमेशा मरने की बातें करता है. हर छोटी-छोटी बात पर रो देता है. आप उन खुशमिजाज और मस्तमौला लोगों से भी मिले होंगे, जिनकी खुदकुशी की खबर पर आपको यकीन नहीं होता. ऐसे लोग डिप्रेशन या मानसिक परेशानी के शिकार होते हैं. यह अलग बात है कि वे दूसरों को एहसास नहीं होने देते.

भारत में पांच करोड़ से ज्यादा लोग डिप्रेशन के शिकार

भारत में डिप्रेशन के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण पूर्व एशिया और पश्चिमी पेसिफिक क्षेत्र में चीन के साथ भारत ऐसा देश है, जहां इस मानसिक बीमारी का जोखिम सबसे ज्यादा पाया गया है. डब्ल्यूएचओ के हालिया मूल्यांकन के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 32 करोड़ लोगों में डिप्रेशन की बीमारी है, जिसमें से तकरीबन आधे लोग केवल चीन और भारत से संबंधित हैं.

भारत में डिप्रेशन के अलावा एंक्जाइटी एक प्रमुख मानसिक समस्या देखी गयी है, जिस कारण से यहां लोग आत्महत्या करते हैं. भारत में वर्ष 2015 में एंक्जाइटी डिसॉर्डर के मरीजों की संख्या करीब 3.8 करोड़ तक पायी गयी थी.

आंकड़े दर्शाते हैं कि न्यून और मध्य आमदनी वाले देशों में वैश्विक आत्महत्या के करीब 78 फीसदी मामले सामने आये हैं. वर्ष 2015 में मृत्यु के 20 प्रमुख मामलों में आत्महत्या भी शामिल रहा है. वर्ष 2014 में प्रकाशित विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में रेखांकित किया गया कि वर्ष 2012 में भारत में आत्महत्या करनेवालों की संख्या पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा रही. रिपोर्ट में बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर प्रत्येक 40 सेकेंड में एक इनसान आत्महत्या करता है.

डिप्रेशन की पहचान

इस मानसिक बीमारी की पहचान करना ज्यादा मुश्किल नहीं है. यदि आपको यह महसूस होता हो या आशंका हो कि आपके परिवार का कोई सदस्य, कोई दोस्त या परिचित कहीं इस बीमारी का शिकार तो नहीं हो चुका है. ऐसे में आपको उसकी इन हरकतों पर रखनी चाहिए नजर …

– अक्सर उदास या परेशान रहता हो.

– बातचीत के दौरान वह हमेशा ही खुद को कोसता रहता हो.

– स्वयं को असहाय महसूस करता हो.

– खूब सोता हो या फिर उसे नींद बहुत ही कम आती हो.

– बिलकुल कम खाता हो या बहुत ज्यादा खाता हो.

– उसका वजन अचानक बढ़ रहा हो या तेजी से कम हो रहा हो.

– खुशी के मौकों में बहुत कम ही शामिल हो.

– अक्सर वह सिरदर्द और बदन दर्द की शिकायत करता हो.

– बात-बात में चिढ़ कर या झल्ला कर जवाब देता हो.

किसे हो सकता है डिप्रेशन?

हालांकि, यह किसी को भी हो सकता है. लेकिन, एक शोध से पता चला है कि इसके पीछे कोई आनुवांशिक वजह भी हो सकती है. इसके तहत कुछ लोग जब चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे होते हैं, तो उनके अवसाद में जाने की आशंका अधिक रहती है. जिन लोगों के परिवार में अवसाद का इतिहास रहा हो, वहां लोगों के डिप्रेस्ड होने की आशंका भी ज्यादा होती है. इसके अलावा गुणसूत्र में होने वाले कुछ आनुवांशिकीय बदलावों से भी अवसाद हो सकता है. इससे लगभग चार फीसदी लोग प्रभावित होते हैं.

दवाओं की क्या है भूमिका

दिमाग में रसायन जिस तरह काम करता है, एंटी डिप्रेसेंट्स उसे प्रभावित करता है. लेकिन इन रसायनों की अवसाद में क्या भूमिका होती है, इसे पूरी तरह समझा नहीं जा सका है और एंटी डिप्रेसेंट्स सबके लिए कारगर नहीं साबित हुए हैं. ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिमाग में जिस तरह से न्यूरोट्रांसमीटर काम करते हैं, उसका संतुलन भी अवसाद के चलते बिगड़ जाता है. ये रासायनिक संदेशवाहक होते हैं, जो न्यूरॉन्स यानी दिमाग की कोशिकाओं के बीच संपर्क कायम करते हैं.

न्यूरोट्रांसमीटर जो संदेश भेजते हैं उन्हें अगले न्यूरॉन में लगे रेसेप्टर ग्रहण करते हैं. कुछ रेसेप्टर किसी खास न्यूरोट्रांसमीटर के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं या फिर असंवेदनशील हो सकते हैं. एंटी डिप्रेसेंट्स, मूड बदलने वाले न्यूरोट्रांसमीटर्स का स्तर धीरे-धीरे बढ़ाते हैं. सेरोटॉनिन, नॉरपाइनफ्राइन और डोपामाइन जैसे न्यूरोट्रांसमीटर्स इसमें शामिल हैं.

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