चंपारण डायरी-3 : मन चंपारण पर अटका था
अरविंद मोहन 8 अप्रैल, 1917, कलकत्ता आज पूरा दिन तो कांग्रेस की बैठक में रहा, पर मन चंपारण पर अटका रहा. राजकुमार शुक्ल के पहुंच जाने के बाद अब वहां जाने का कार्यक्रम टलने का प्रश्न नहीं है. पर मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि मुझे लखनऊ अधिवेशन के पहले चंपारण का नाम भी […]
अरविंद मोहन
8 अप्रैल, 1917, कलकत्ता
आज पूरा दिन तो कांग्रेस की बैठक में रहा, पर मन चंपारण पर अटका रहा. राजकुमार शुक्ल के पहुंच जाने के बाद अब वहां जाने का कार्यक्रम टलने का प्रश्न नहीं है. पर मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि मुझे लखनऊ अधिवेशन के पहले चंपारण का नाम भी नहीं मालूम था. नील की खेती क्या होती है, इसका खयाल भी नहीं था. नील की गोटियां मैंने जरूर देखी हैं, पर यह चंपारण और तिरहुत इलाके में उगने वाली किसी फसल से तैयार होती हैं, इसका मुझे जरा भी पता न था. और इसके चलते हजारों किसान कष्ट सहते हैं, इसका तो कोई अंदाजा न था. बंगाल के नील विद्रोह के बारे में भी मुझे ज्यादा पता न था.
शाम को चार बजे जब बैठक से लौटा तो राजकुमार शुक्ल मिले और यह सूचना दी कि कल तीन बजे बांकीपुर अर्थात पटना जाने वाली गाड़ी का टिकट हो गया है. मेरे कहे अनुसार उन्होंने तीसरे दर्जे का ही टिकट कटाया है. उन्हीं के साथ और हीरालाल के साथ बातचीत करता रहा, जो कांग्रेस के फैसलों और सामान्य विषयों पर ही थी. रात में बैठ कर कई पत्र लिखे और अब सबको चंपारण जाने की योजना के बारे में भी लिखा. कहां जाना है, क्या करना है और क्या देखना है, इसकी मुझे अभी भी कोई जानकारी नहीं है. पर इस दृढ़निश्चयी किसान ने मेरा दिल जीत लिया है और मुझे भरोसा है कि मैं इसके सहारे चंपारण के किसानों का कुछ दुख-दर्द कम कराने में सफल होऊंगा.
(जारी)