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घातक होतीं सड़क दुर्घटनाएं, जीवन आपका है, इसे बचाने की जिम्मेवारी भी आपकी ही है

।।अनुज कुमार सिन्हा ।। 10 अप्रैल का अखबार आपने पढ़ा होगा. एक खबर है-रांची में सड़क हादसे में तीन स्कूली छात्रों की मौत. दूसरी खबर है-टैंकर ने धक्का मारा, बैंक मैनेजर की मौत. ऐसी खबरें हर दो-चार दिनों पर अखबारों में दिख रही हैं. ये खबरें बेचैन करने वाली हैं. तीन स्कूली छात्र बाइक लेकर […]

।।अनुज कुमार सिन्हा ।।

10 अप्रैल का अखबार आपने पढ़ा होगा. एक खबर है-रांची में सड़क हादसे में तीन स्कूली छात्रों की मौत. दूसरी खबर है-टैंकर ने धक्का मारा, बैंक मैनेजर की मौत. ऐसी खबरें हर दो-चार दिनों पर अखबारों में दिख रही हैं. ये खबरें बेचैन करने वाली हैं. तीन स्कूली छात्र बाइक लेकर निकलते हैं, किसी के सिर पर हेलमेट नहीं, रफ्तार तेज, डिवाइडर से टक्कर और तीनों की जान चली जाती है. ये सिर्फ तीन छात्रों की मौत नहीं है. देश के तीन होनहारों की भी मौत है, भविष्य की मौत. परिवार, मां-बाप की पीड़ा की कल्पना भी असंभव है. सवाल-काश ये बच्चे हेलमेट पहने होते तो शायद ये बच जाते. इनकी जिंदगी बच जाती. कौन है इन बच्चों की मौत या सड़क दुर्घटना में हो रही ऐेसी मौतों का का जिम्मेवार? बहस का विषय यही है. दोषारोपण का वक्त नहीं. समाधान सोचिए. जीवन बचाने का रास्ता-उपाय तलाशिए. अगर थोड़ी सतर्कता बरती जाये तो इससे बचा जा सकता है.

सड़क दुर्घटना सिर्फ रांची या झारखंड की समस्या नहीं है. देश-दुनिया के लिए सबसे बड़ी समस्या है. पूरी दुनिया इससे चिंतित, तभी तो ब्राजील घोषणा में यह तय हुआ कि सड़क हादसों को 2020 तक 50 फीसदी कम करना है. आंकड़े देखिए. देश में हर साल लगभग डेढ़ लाख लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं (2015 में यह संख्या 1,46,133 थी). यानी हर दिन लगभग चार सौ लोगों की जान जा रही है. मरने वालों में 15 से 34 वर्ष के बीच के लोग सबसे ज्यादा (54.1 फीसदी हैं). यानी इस उम्र के लोग सावधानी नहीं बरत रहे हैं. एक आंकड़ा यह आया है कि हर दिन 20 वैसे बच्चों की मौत होती है, जिनकी आयु 14 साल से कम है.
इनमें से अधिकांश की जान दोपहिए वाहन चलाते वक्त होती है. सवाल यह है कि 14 साल से कम उम्र के बच्चोंको बाइक-स्कूटी कौन देता है. माता-पिता देते हैं. जिम्मेवार कौन हुआ? सबसे पहले माता-पिता. लाइसेंस मिल नहीं सकता, बगैर लाइसेंस के ये गाड़ी चलाते हैं. पुलिस इन्हें पकड़ती नहीं है. अगर कभी पकड़ भी लेती है तो अभिभावक पहुंच जाते हैं पैरवी करने. पुलिस वसूली कर छोड़ देती है. यही बच्चे फिर गाड़ी चलाते हैं, अपने मूड में, टकराते हैं, या तो किसी की जान लेते हैं या खुद इनकी जान जाती है. कभी-कभार सड़कों पर 10 साल के बच्चे को भी बाइक-स्कूटी चलाते देख सकते हैं, पीछे पिता या बड़ा भाई बैठ कर उसे सिखाते मिलेगा. यह उस बच्चे की जिंदगी से खिलवाड़ है. जिस दिन ये बच्चे कम उम्र में बाइक-स्कूटी चलाना सीख लेते हैं, अधिकांश अभिभावक खुश होते हैं कि बेटे ने बाइक चलाना सीख लिया, अब खुद ट्यूशन जायेगा, स्कूल जायेगा. अपनी जिम्मेवारी से मुक्त समझ लेते हैं लेकिन जब कोई घटना घटती है, तब पता चलता है कि इसका बीज उन्होंने ही बोया था.
ऐसी बात नहीं है कि सड़क दुर्घटना में सिर्फ बच्चों की मौत होती है. चालक जिस तरीके से लापरवाही बरतते हैं,शराब पीकर गाड़ी चलाते हैं, सड़क को कभी-कभी बीच में काट कर छोड़ दिया जाता है, ये सब बड़े कारण है. झारखंड में अब सड़कें अच्छी हो गयी हैं. रफ्तार भी उसी हिसाब से तेज रहती है. हर किसी को जल्दी. इसलिए दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं. रफ्तार तेज होने के कारण दुर्घटना होने पर बचने की संभावना नहीं के बराबर. हां, वन-वे कारण आमने-सामने की टक्कर कम होती है. अभिभावक को जिम्मेवार और पुलिस को चौकस होना होगा. बाइकर्स ग्रुप धूम स्टाइल में शहर की सड़कों पर करतब दिखाते हैं, साइलेंसल खोल कर बाइक उड़ाते हैं (इसे बाइक चलाना मत कहिए). ये पकड़ में भी नहीं आते. कानून का उल्लंघन होता है, कोई कार्रवाई नहीं होती. स्कूलों में बच्चे बाइक लेकर जाते हैं (चाहे उम्र हो या नहीं), बगैर हेलमेट के जाते हैं (हेलमेट पहनने से बाल खराब हो जायेगा).
यह नहीं समझ पाते कि जिंदगी से खेल रहे हैं. अब स्कूलों को भी जिम्मेवारी निभानी होगी. कुछ स्कूलों में कड़ाई है. बड़ी भूमिका है अभिभाव की. बच्चों को बाइक खरीद कर कौन देता है, अभिभावक ही न. बच्चों की जिद के आगे झुकने का खतरनाक रिजल्ट भी हो सकता है. जहां तक हेलमेट पहनने का सवाल है, अगर प्रशासन चाह ले तो यह एक दिन में लागू हो सकता है. हाल में रांची में इसे कुछ दिनों तक कड़ाई से लागू किया गया. गुलाब बांटने से नहीं होगा. कानून में संशोधन हो. सिर्फ फाइन कर देने से कुछ नहीं होगा. ऐसे-ऐसे बददिमाग वाले सनकी मिलेंगे जो हर चौक पर फाइन देना पसंद करेंगे लेकिन हेलमेट नहीं पहनेंगे.
पहले समझायें. नहीं माने तो बेहतर उपाय है गाड़ी को पुलिस कब्जे में ले ले. थाना-कोर्ट का चक्कर लगायें. इसके लिए कानून में थोड़ा बदलाव लाना होगा, लेकिन जिंदगी बचाने के लिए ऐसे कड़े फैसले करने होंगे. हां, यह अभियान तभी सफल हो सकता है जब अच्छा काम करनेवाले पुलिसकर्मियों को सम्मान मिले, काम करने की आजादी मिले. ऐसा न हो कि ट्रॉफिक सिपाही किसी को पकड़े और उसी की नौकरी चली जाये. नियम तो नियम है. जिसने भी नियम तोड़ा, चाहे वह मंत्री-अफसर या उनका बेटा-बेटी क्यों न हो, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. बेहतर होगा लोग खुद समझें. जिंदगी उनकी अपनी है. इसे तेज गाड़ी चला कर, बगैर हेलमेट पहन गाड़ी चला कर या शराब पी कर गाड़ी चला कर क्यों गवायें. अभिभावक से-अगर आप अपने बच्चे को गाड़ी दे रहे हैं, या आपके बच्चे बगैर हेलमेट के गाड़ी चला रहे हैं, तो चेत जाइए. उम्र से पहले गाड़ी चलाने मत दीजिए, उसके लिए बाइक मत खरीदिए.
बच्चों से- अगर बाइक चलाने की आपकी उम्र नही हुई है तो मत चलाइए, उम्र हो गयी है तो सतर्कता बरतते चलाइए, दोस्तों के साथ मौज -मस्ती और हाइवे में गाड़ी उड़ा कर खतरे मत लीजिए. गौर कीजिए, आपका एक कदम आपके परिवार को तबाह कर सकता है. दुर्घटना के बाद खुद तो चले जाते हैं लेकिन जिंदगी भर के लिए मां-बाप को बिलखने के लिए छोड़ जाते हैं. कई बच्चे खुद समझदार हैं.
देखें, अगर उनके पिता बगैर हेलमेट के जा रहे हैं, टोकिए, मत जाने दीजिए. समझाइए. वे आपकी बात को मान लेंगे. इसके बाद भी अगर कोई नहीं मानता, यहीं से प्रशासन-पुलिस और कानून की जिम्मेवारी शुरु होती है. नियम तोड़ने वालों को पकड़िए. अगर कोई सिग्नल तोड़ता है, दौड़ा कर पकड़िए, पुलिस के पास तेज रफ्तार से चलने वाली बाइक रहती है. हर प्रमुख चौक पर सीसीटीवी कैमरा लगाइए, आधुनिक तकनीक का प्रयोग कीजिए. सुधार तो होगा ही. अंत में. जिंदगी आपकी है, इसे यूं ही मत गवांइए.

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