चंपारण के जश्न के बीच कुछ प्रश्न

डॉ डीएम दिवाकर अर्थशास्त्री ऐसे दौर में जब लोकतंत्र की चुनी हुई सरकारें किसानों, मजदूरों और बेरोजगारों का दर्द सुनने को तैयार नहीं हैं, यह सवाल स्वाभाविक लगता है कि कहीं हमने गांधी जी भुला तो नहीं दिया? लेकिन, चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गांधीजी के अंतिम व्यक्ति की आजादी और राष्ट्र निर्माण में उनकी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 13, 2017 1:29 AM
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डॉ डीएम दिवाकर
अर्थशास्त्री
ऐसे दौर में जब लोकतंत्र की चुनी हुई सरकारें किसानों, मजदूरों और बेरोजगारों का दर्द सुनने को तैयार नहीं हैं, यह सवाल स्वाभाविक लगता है कि कहीं हमने गांधी जी भुला तो नहीं दिया? लेकिन, चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गांधीजी के अंतिम व्यक्ति की आजादी और राष्ट्र निर्माण में उनकी भागीदारी के किसी रास्ते की तलाश की गुंजाइश भी दिख रही है.
जब हिंदुस्तान चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने का जश्न मना रहा हो, तो बिहार को अपनी गौरवशाली विरासत पर नाज होना लाजिमी हैै. चंपारण सत्याग्रह ने हिंदुस्तान को न केवल गांधीजी की नेतृत्व क्षमता से परिचित कराया, बल्कि उनकी अगुआई में हिंदुस्तान में अहिंसक लोकशक्ति और सार्थक लोकतंत्र के प्रकटीकरण के एक सफल प्रयोग की विरासत के साथ आजादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण औजार दिया. साथ ही इस सत्याग्रह ने राजेंद्र बाबू और अनुग्रह बाबू सरीखे समर्पित नेताओं की कतार खड़ी की. लखनऊ कांग्रेस के 31वें सम्मेलन (दिसंबर, 2016) में जब चंपारण के किसानों का दर्द समझने का दायित्व गांधीजी को सौंपा गया और राजकुमार शुक्ल के प्रयास से गांधीजी 10 अप्रैल, 1917 को बिहार आये थे, तो गांधीजी ने भी सत्याग्रह की ऐसी उम्मीद नहीं की थी.
सैयद महमूद, जेबी कृपलानी और स्थानीय अधिकारियों से मिलते हुए वे 15 अप्रैल को मोतिहारी पहुंचे. चंपारण में किसानों की दयनीय हालात देख कर उन्होंने दो ही दिन बाद कृपलानी जी को पत्र लिखा कि अब चंपारण ही उनका निवास स्थान है.
कानूनी तौर पर अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ किसानों में आत्मविश्वास भरा, उनका डर दूर किया और नीलहों द्वारा अंगरेजी हुकूमत की मिलीभगत से किसानों पर हो रहे अत्याचार और शोषण का किसानों की जुबानी बदस्तखत हलफनामा तैयार करवाया. उन तथ्यों का विश्लेषण कर गवर्नर से मिले और कानून बदलने के लिए बाध्य कर दिया. यह सब कुछ खुलेआम हुआ.
अंगरेजी प्रशासन के आदेश के बावजूद काम नहीं बंद करने की सविनय अवज्ञा और जेल जाने की तैयारी भी थी. हलफनामा कलमबंद करने का काम चलता रहे, इसके लिए कार्यकर्ताओं की कतार बना ली गयी. लोग निर्भय होकर बयान कलमबंद करवा रहे थे, लाल टोपी और अंगरेजों का डर जैसे समाप्त हो गया. यह गांधीजी के व्यक्तित्व का जादुई असर था. इस बीच कार्यकर्ता और लोकशिक्षण की विधि भी विकसित हुई. बड़े-छोटे, जाति-पांति और छूआछूत का भेद आंदोलन के दौर में मिटा. बड़े लोगों के नौकर वापस लौट गये. सब अपना कपड़ा, थाली और बर्तन धोते, खाना पकाते और साथ-साथ खाते. इस सत्याग्रह में सभी बराबर थे.
यह गांधीजी की कार्यशैली की विशिष्टता थी. तथ्यों के तर्कपूर्ण विश्लेषण और किसानों के अहिंसक लामबंदी के सामने अंगरेजी हुकूमत को झुकना पड़ा. तीनकठिया कानून समाप्त करना पड़ा और नील के कारखाने भी क्रमश: बंद हो गये. चंपारण सत्याग्रह की इस सफलता ने आजादी की लड़ाई को ऊंचा मुकाम दिया और विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ अगले तीस सालों में हिंदुस्तान आजाद हो गया.
चंपारण सत्याग्रह से आजादी की लड़ाई के बीच हिंदुस्तान की जनता ने जो सपना देखा था, उसे साकार करने के लिए संविधान के अधीन बीते सात दशक की विकास यात्रा में देश ने कई मुकाम हासिल किये हैं. लेकिन, आज भी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई, भ्रष्टाचार एवं क्षेत्रीय असमानता के बीच अंतिम कतार में खड़ी जनता की बढ़ती संख्या अपनी बुनियादी जरूरतें पूरा होने की बाट जोह रही है. यह विकास की बिडंबना ही है कि फसल पैदा करनेवाले किसान अपनी जान देने को विवश हैं, ईमारत खड़ी करनेवाले मजदूर बेघर हैं और पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार हैं. मेहनतकशों की बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र में बुनियादी जरूरतें नहीं जुटा पा रही हैं और मुट्ठी भर लोगों के पास धन और विलासिता का विशाल भंडार है.
ग्रामस्वराज्य, स्वदेशी और आत्मनिर्भर हिंदुस्तान का सपना उदारीकरण, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, मेक इन इंडिया और नोटबंदी की भेंट चढ़ गया. बड़े पूंजीपतियों को कर में छूट मिल रही है, छोटे कारोबारियों पर कर का बोझ बढ़ रहा है और लोकतंत्र पूंजी व बाजार के हाथों गिरवी है.
लोकतंत्र की चुनी हुई सरकारें किसानों, मजदूरों और बेरोजगाारों का दर्द सुनने को तैयार नहीं. भूमिहीनों के लिए भूमि सुधार नहीं, वास तक के लिए जमीन नहीं, लेकिन कॉरपोरेट को जमीन देने के लिए नये-नये प्रावधान बनाये जा रहे हैं. चंपारण में भी भूमिहीनों को हक के लिए सत्याग्रह करने पर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है. इस तरह गांधीजी को हमने भुला दिया है.
चंपारण सत्याग्रह में उन्होंने लोकशक्ति प्रकट करने और अहिंसक लोकतंत्र की प्रक्रिया विकसित करने का जो औजार हमें दिया है, वह ग्रामस्वराज्य के विकेंद्रीकृत सहभागी योजना एवं विकास की कुंजी है. गांधीजी अवसरवादी राजनीति की ढाल नहीं हैं. क्या चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गांधीजी के अंतिम व्यक्ति की आजादी और राष्ट्र निर्माण में उनकी भागीदारी का कोई रास्ता हम तलाश पायेंगे?
(लेखक एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, पटना के निदेशक रह चुके हैं.)
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