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गुड फ्राइडे : 1845 में पहली बार ईसाई मिशनरी छोटानागपुर आये

मनोज लकड़ा रांची : झारखंड में चर्च का जनाधार बनाने में इसके सामाजिक सरोकारों ने अहम भूमिका रही है. वर्तमान में राज्य में मसीहियों की संख्या लगभग 14़ 5 लाख (आबादी का 4़ 30 प्रतिशत) है, पर जब 1845 में मिशनरी पहली बार छोटानागपुर आये, तब पहले पांच सालों तक एक भी व्यक्ति ईसाई नहीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 14, 2017 5:47 AM
मनोज लकड़ा
रांची : झारखंड में चर्च का जनाधार बनाने में इसके सामाजिक सरोकारों ने अहम भूमिका रही है. वर्तमान में राज्य में मसीहियों की संख्या लगभग 14़ 5 लाख (आबादी का 4़ 30 प्रतिशत) है, पर जब 1845 में मिशनरी पहली बार छोटानागपुर आये, तब पहले पांच सालों तक एक भी व्यक्ति ईसाई नहीं बना था़ वर्मा जाने को निकले गोस्सनर मिशन, जर्मनी के ये चार लूथेरन मिशनरी कुछ समय के लिए कोलकाता में रुके थे, तब वहां मजदूरी करते छोटानागपुर के आदिवासियों को देख उन्होंने छोटानागपुर में काम करने का निर्णय लिया.
वे दो नवंबर को रांची पहुंचे और धर्मप्रचार का काम शुरू किया़ पांच वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा. धीरे- धीरे ये मिशनरी आदिवासियों की समस्याएं भी सुनने लगे. उन दिनों आदिवासियों की जमीन की बड़े पैमाने पर लूट हो रही थी़ मिशनरी उनके साथ थाना, कचहरी और जमींदार के पास जाने लगे और पीड़ितों का पक्ष रखने लगे. आदिवासियों को मिशनरियों में शोषण से मुक्ति का मार्ग नजर आने लगा़ लोग मसीही बनने लगे़
छोटानागपुर के तत्कालीन कमिश्नर डाल्टन ने 25 मार्च 1885 को तत्कालीन अंगरेज सरकार को अपने पत्र में लिखा कि मसीहियत को अपनानेवालों ने स्वयं में अधिक स्वतंत्र धारणाओं को आत्मसात किया और इस कारण अनेक अवसरों पर सफलतापूर्वक अपने अधिकारों का दावा भी किया है. उधर, ठेकेदार व जमींदार बहुत सारे मामलों में अदालतों में हारने लगे. 1856 तक वे काफी मुकदमे हार चुके थे. उन्हें लग रहा था कि अंगरेज सरकार और जर्मन मिशनरी मिल गये हैं.
सन 1857 की क्रांति, आजादी की पहली लड़ाई के दौरान मेन रोड के क्राइस्ट चर्च, मिशनरी और यहां के नये मसीही निशाना बने़ पर इसके बाद मसीही धर्म अपनाने वालों की संख्या आश्चर्यजनक तरीके से तेजी से बढ़ी़
जीइएल चर्च के मानव संसाधन विकास केंद्र (एचआरडीसी- सीईएसएल) व चर्च कांग्रीगेशन अॉफ मिशन हिस्ट्री द्वारा प्रकाशित बिशप एएस हेमरोम की पुस्तक ख्रीस्तान डेरा: कब, क्यों और कैसे ने 1867 की मिशन रिपोर्ट के हवाले से इसपर प्रकाश डाला है. इसके अनुसार 1857 में मसीहियों की संख्या 900 थी, जो 56 गांव-मंडलियों में फैली थी, वहीं मात्र एक साल में, अर्थात नवंबर 1857 से नवंबर 1858 के बीच मंडलियों की संख्या बढ़कर 205 हो गयी. दिसंबर 1858 की क्रिसमस के लिए लगभग 1500 मसीही रांची में इकट्ठा हुए़ नये 150 परिवार भी मसीही विश्वास अपनाने के लिए तैयार थे. उधर, 1859 के नये साल की प्रार्थना में 60 ऐसे ही और परिवार भी शामिल हुए. इसी रिपोर्ट के अनुसार चार दिसंबर 1858 तक मसीही मंडलियों की संख्या 230 गांवों में फैल गयी. संख्या की दृष्टि से 1860 के अंत में 1700 मसीही थे, जो बाद के सात सालों में औसतन 1225 परिवार प्रतिवर्ष की दर से बढ़ते गये. 1857 से 1868 के दस सालों में चर्च से लगभग 10,000 लोग जुड़ चुके थे.
तोरपा थाना के जमादार विश्वेश्वर दयाल सिंह ने दिया फॉर्मूला
इस बीच रोमन कैथोलिक चर्च के मिशनरी भी छोटानागपुर पहुंचे. आठ नवंबर 1873 को कोलकाता से आये फादर अगस्तुस स्टॉकमैन के प्रयास से खूंटपानी, सिंहभूम के चार बच्चों सहित 28 मुंडा पहले आदिवासी रोमन कैथोलिक ईसाई बने. 1886 तक सरवदा, डोलडा, बुरुडी व बंदगांव क्षेत्र में 2120 रोमन कैथोलिक थे. फादर फ्रांसिस मिंज व फादर एलेक्सियुस एक्का की पुस्तक ‘जेसुइट मिशन एमंग द आदिवासीज आॅफ छोटानागपुर’ के अनुसार इस क्षेत्र की जिम्मेवारी फादर म्यूलेंडर व फादर फियरेंस के पास थी.
तत्कालीन रोमन कैथोलिक बिशप व मिशन प्रमुख कर्रा, खूंटी, तोरपा, बसिया, लोहरदगा, मांडर, पनारी, बरवे, बीरू क्षेत्र में चर्च का विस्तार चाहते थे. इसके लिए फादर कांस्टेंट लीवंस को चुना गया, जो 18 मार्च 1885 को डोरंडा पहुंचे. वहां से वे तोरपा गये, जहां थानेदार विश्वेश्वर दयाल सिंह ने उन्हें रहने का ठिकाना दिया. उन्होंने फादर लीवंस को इस क्षेत्र, यहां के कानून व परंपराओं की जानकारी दी. साथ ही यह महत्वपूर्ण सूत्र भी दिया कि ‘यदि यहां के मूल निवासियों के मतांतरण की इच्छा रखते हैं तो उनके हितों की, विशेष कर से जमीन से जुड़े उनके अधिकार व जमींदार की सेवा से जुड़े मामलों में उनकी रक्षा करनी होगी.’
फादर लीवंस भी यह देख रहे थे कि यहां के आदिवासी जमींदार, सूदखोर, छोटे पद के पुलिसवाले के चंगुल में शोषण शिकार थे. छोटानागपुर से पलायन कर रहे थे. वे वकीलों की सहायता से उनकी मदद करने लगे. उनके आने के दूसरे ही साल 1886 में जमींदारों के खिलाफ चल रहे एक भूमि विवाद में दिघिया के एक रैयत को कचहरी से पहली डिग्री मिली. पूरे छोटानागपुर के लिए यह ऐतिहासिक घटना थी.
इसके बाद कोर्ट में जीत हासिल करने वालों में बरवे के बिर्री के एक आदिवासी ग्रामीण व सिमडेगा के बीरु के एक आदिवासी ग्रामीण का नाम आया. यह खबर दूर- दराज तक फैली़ लोगों को लगने लगा कि इन सुसमाचार प्रचारकों का ईश्वर उन्हें दुष्टात्माओं व शोषण करने वालों से मुक्ति दिला सकता है. फादर लीवंस ने इस क्षेत्र में सिर्फ सात साल ही काम किया, पर इस दौरान 80 हजार लोग रोमन कैथोलिक मसीही बने़
नये जीवन का पर्व है पास्का
फादर विनय गुड़िया
सीडीएफ (निदेशक विश्वास प्रशक्षिण दल, रांची महाधर्म प्रांत)
खजूर रविवार के बाद सोमवार से लेकर शनिवार अर्थात पास्का रविवार के पहले तक के पूरे छह दिनों को पवित्र सप्ताह कहते हैं. इस समय माता कलीसिया बड़ी भक्ति व समारोह के साथ प्रभु यीशु ख्रीस्त के प्रमुख क्षणों को याद करती हैं. इसे पास्का रहस्य भी कहा जाता है, अर्थात यीशु का पावन दुःख भोग, क्रूस पर मुक्तिदायी मृत्यु व महिमामयी पुनरुत्थान. जिन ऐतिहासिक घटनाओं द्वारा यीशु ख्रीस्त ने हमारा उद्धार किया है, उन्हें हम न केवल याद करते हैं और पूजन वर्ष के दौरान उनका पुनराभास करते हैं. उन घटनाओं के अनुष्ठान द्वारा संस्कार की ऐसी शक्ति मिलती है, जिससे मसीही जीवन का निरंतर पुष्ट होता है.
चालीसा काल के दौरान मसीही विश्वासी कुछ आध्यात्मिक साधनों के माध्यम जैसे, बपतस्मिा का नवीकरण, परित्याग का अभ्यास, त्याग-तपस्या, बलिदान, दृढ़ प्रार्थना, मनन चिंतन, भिक्षा-दान, मेल मिलाप संस्कार का ग्रहण, यूखरिस्त आदि से स्वयं को तैयार करते हैं. इन तैयारियों का चरम बिंदु पुण्य सप्ताह के पूजन समारोह हैं, अर्थात पुण्य बृहस्पतिवार, शुक्रवार व शनिवार का जागरण. इन तीन दिनों के पावन पूजन में विश्वासी गण अपने उद्धार कर्ता से घनिष्ठ संबंध रखते, उनकी पवित्री करण की शक्ति का अनुभव करते और उनकी मुक्ति दायी कृपा से परिपूर्ण होते हैं. यह समय ईश्वरीय कृपा व पुण्य का सुनहरा काल है. दुःख भोग के बिना पुनरुत्थान अधूरा है और पुनरुत्थान के बिना दुःख भोग.
पुण्य बृहस्पतिवार
इस दिन यीशु ने अंतिम ब्यारी में मुख्य रूप से तीन काम किये. एक गुरु के रूप में अपने शिष्यों के पैर धोकर प्रेम, सेवा व नम्रता की शिक्षा दी़, रोटी व दाख रस के रूप में अपना शरीर व रक्त बलि भोज अर्थात यूखरिस्त के लिए दिया व शिष्यों को अपनी स्मृति में ऐसा करते रहने की आज्ञा देकर पवित्र पुरोहिताई की स्थापना की.
पुण्य शुक्रवार
यह पवित्र क्रूस पर मसीह के दुःख भोग व मरण का दिन है. यीशु ने क्रूस पर अपने प्राणों की आहुति चढ़ा कर हमारी मुक्ति का कार्य संपन्न किया. पास्का बलि के मेमने के समान स्वयं को बलिदान कर दिया. जिस तरह मिश्र से निर्गमन की रात पास्का-मेमने के रक्त के कारण इस्राएली बचा लिये गये, वैसे ही हम भी मेमने-ख्रीस्त के रक्त द्वारा बचा लिये गये हैं. पुण्य शुक्रवार व पवित्र बृहस्पतिवार का आपस में गहरा संबंध है.
पास्का जागरण
पुण्य शुक्रवार के बाद की रात्रि शनिवार पास्का जागरण कहलाती है़ पास्का जागरण के तीन तत्व ख्रीस्तीय आध्यात्मिकता को अधिक सशक्त बनाते हैं. पहला, जिस तरह ईश्वर ने मिश्र की गुलामी की जंजीर से इस्राएलियों को छुटकारा दिलाया, उसी तरह यीशु ने अपने पुनरुत्थान द्वारा हमें पाप की जंजीर से छुटकारा प्रदान किया है़ दूसरा, ईश्वर ने ख्रीस्तीयों को भी बपतस्मिा द्वारा एक नयी प्रजा बनायी. तीसरा, जिस तरह यहूदी भविष्य के अधिक महान पास्का की प्रतीक्षा करते थे, वैसे ही प्रारंभिक ख्रीस्तीय भी पास्का रात्रि को ख्रीस्त के पुनरागमन की प्रतीक्षा करते थे और उत्सव मनाते थे. ख्रीस्तीय समुदाय पवित्र शनिवार को पूरे दिन प्रभु की कब्र के पास आराधना में समय बिताता है व उनके दुःख भोग व मरण पर मनन चिंतन करते है.
शाम ढलने पर यही समय पास्का जागरण में परिवर्तित हो जाता है़ यीशु का पुनरुत्थान हमारे ख्रीस्तीय विश्वास व जीवन का प्रमुख आधार है. मृत्यु के ऊपर एक नयी जिंदगी शुरू करने का चमत्कार है़ यह नया जीवन पूर्व भौतिक सच्चाई में पुनः लौटने की बात नहीं है. जैसे लाजरूस अथवा अन्य लोगों का पुनर्जीवित होना था.
यीशु के साथ मरने का अर्थ पुराने पाप मय स्वभाव का परित्याग और इसके बाद ख्रीस्त के साथ निरंतर पुनर्जीवित बने रहना है, ताकि हमारा जीवन पवित्र आत्मा में नवीकृत और पुन: उद्धारित हो सके. हम यह अपने बलबूते नहीं कर सकते, लेकिन पुनर्जीवित यीशु के साथ कर सकते है़ हम सच्ची दाखलता, ख्रीस्त के शरीर के अंग बन चुके हैं. यदि हम नयी सृष्टि बन गये हैं, तो सतत मन परिवर्तन की जरूरत है, जिससे हमारा मन व हृदय सदैव प्रभु की ओर अभिमुख होता रहे़ नया जीवन पवित्र यूखरिस्त में जीते रहें, क्योंकि यीशु का पुनरुत्थान हमारे लिए नये जीवन का पर्व है.
प्रेम और क्षमा की प्रतिमूर्ति बनने का लें संकल्प
फादर महेंद्र पीटर ितग्गा
अधिवक्ता
‘गुड फ्राइडे’ का दिन मसीही विश्वासियों के लिए जिंदगी का एक अति महत्वपूर्ण हिस्सा है ईश्वर के एकलौतेे पुत्र ने अपने पिता ईश्वर की योजना को पूरा करने में अपने आपको पूरी तरह से सौंप दिया– हां, क्रूस पर मरण तक़ कमजोर व सत्ता लोलुप, येरूसलेम के राज्यपाल पौंतुस पिलातुस के आदेश पर, यीशु ख्रीस्त महायाजकों, फरीसियों व ख्रीस्त विरोधी जनता के हाथों सौंप दिये गये़ सभी ने मिलकर संसार की ज्योति, सत्य की प्रतिमा एवं ईश्वर के बेटे को क्रूस पर टांग कर मार डाला़
ईश्वर के महान प्यार का साक्ष्य देते हुए, मरते मरते ही, यीशु ख्रीस्त ने जीवन का अतिंम पाठ पढ़ाया– एक दूसरे को क्षमा, जिसकी इस दुनिया को बेहद जरूरत है़ एक दूसरे को क्षमा करना बड़ी बात है और इसके बिना पूरा संसार ईर्षा, द्वेष से जल उठा है़ क्षमा तभी संभव है, जब हममें एक दूसरे के प्रति सच्चा प्यार हो़ इसी प्यार को बतलाने के लिए ही यीशु हमारे बीच आये़ यीशु ख्रीस्त की मृत्यु व ख्रीस्त की क्षमा दोनों एक सिक्के के दो पहलू है़ं पवित्र शुक्रवार को ईसाई ‘क्रूस का रास्ता’ तय करते है और ईश्वर के अगाध प्यार को समझने का प्रयास करते है़ं अपने पापों के लिए प्रायश्चित भी करते है़
क्रूस का रास्ता अत्यंत मार्मिक समय होता है और ऐसे समय में हम क्रूस उठाते यीशु को वचन देते हैं कि हममें से प्रत्येक के जीवन के छोटे बड़े क्रूस को जिसे हम खुद व औरों के लिए ढोते है बड़े प्यार से उठा सके़ं ख्रीस्त के क्रूस को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी क्रूस में हमारी मुक्ति है़ हमारे व्यक्तिगत क्रूस, पारिवारिक क्रूस, सामाजिक क्रूस, राजनैतिक क्रूस सभी उसी पवित्र क्रूस के अंग है़ हमारा उत्तरदायित्व है कि हम इसे प्रसन्नता से स्वीकार करें एवं अपना क्रूस उठाकर ख्रीस्त के साथ आगे बढ़े़ं कलवारी पर ख्रीस्त की मृत्यु हमें बलिदान और त्याग का पाठ पढ़ाती है़ अाज ऐसी बातें होती हैं कि पैसे और शक्ति से सबकुछ मिल सकता है, पर यहां बात उसूलों की है़
उसूल विहीन व्यक्ति कि लिए अपना लक्ष्य पाने के लिये भष्टाचार या चापलूसी माध्यम हो सकते हैं, पर उसके लक्ष्य और माध्यम दोनों उसूलहीन है़ं इन दोनों के बीच कहीं भी सच्चे प्यार, ईमानदारी, क्षमा, मेहनत, बलिदान एवं त्याग की बात नहीं होती़ आज जब विश्वास के मूल्य खत्म किये जा रहे हैं, या भ्रमित किये जा रहे हैं, तो जरूरी है कि मसीही क्रूस मरण को स्मरण करते हुए पवित्र शुक्रवार के इस शुभ ईश्वर के प्रेम और क्षमा की प्रतिमूर्ति बनने का संकल्प ले़ं दुनिया के लोगों के मिसाल बने़ं
अशुभ से दूर रखने की प्रार्थना और कामना
रेव्ह इदन तोपनो
व्याख्याता, गोस्स्नर थियोलॉजिकल कॉलेज, रांची
मौत और अशुभ एक दूसरे के पर्यायवाची हैं. हम अपनों को इस अशुभ से दूर रखने की प्रार्थना-दुआ व कामना करते हैं. हां, कई बार शत्रुओं के लिए मौत का शाप हमारे मुख से नहीं तो मन ही मन दुर्भावना के रूप में जरूर उत्पन्न होता है. हम शत्रु के लिए वैसी परस्थितियों की कामना इसलिए करते हैं, ताकि उन्हें चोट पहुंचे और उनकी तकलीफ से हमें ठंढक मिले. साधारण मानवीय प्रवृत्ति यही है जिसे असुर वृत्ति कहा जा सकता है़ सभी धर्मों में असुर वृत्ति के विपरीत साधु वृत्ति एक अपेक्षित मानव-मूल्य है़ साधु वृत्ति का महिमा मंडन सभी करते हैं.
मौत के दिन को शुभ बनाने की क्षमता अध्यात्म के पास ही हो सकती है. अध्यात्म के विश्वव्यापी अथाह समुद्र में ऐसे ही एक अनमोल मोती का दर्शन ख्रीस्तीय विश्वास की धारा में किया जा सकता है. इस धारा ने मौत के दिन को शुभ व श्री का स्थान दिया है. ईसा की मौत के दिन को ईसाई दुनिया भला- शुक्रवार कहती है़
वह पावन दिन, जिसमें पतित मनुष्य जाति को पावन बनाने का उपाय मौत को पराजित कर किया गया. ईसा का इतिहास पुरुष से लेकर विश्वास के देव बनने के क्रम में वह दिन सबसे मत्वपूर्ण माना जाता है, जिस दिन इस देव-पुरुष को विधर्मी का ठप्पा लगा कर धर्म व राजनीति की सांठ-गांठ के कुचक्र में फंसा कर मार डाला गया.
इतिहास पुरुष के रूप में यदि उनके कार्यों की चर्चा करें, तो एक धार्मिक,परोपकारी, सदाचारी व्यक्ति के रूप में ही कर सकते हैं, जिसने धर्म और सत्य के मर्म का उपदेश दिया़ धार्मिक कर्म-कांड से ऊपर ईश्वरीय मूल्यों का प्रचार किया़ सबसे विशेष बात, हाशिये में पड़े लोगों की वकालत की और धार्मिक सामाजिक- सांस्कृतिक बंधनों से स्त्री-मुक्ति के रास्तों का सूत्रपात किया. मुक्ति विषयक इन्हीं बातों ने तो धर्म के पाखंडी रूप पर प्रहार किया था़ परिणामस्वरूप धर्म के ठेकेदारों को अपने साम्राज्य पर खतरा दिखा. पावन को पतित की संज्ञा देकर सूली पर चढ़ाने में उन्हें कोई ग्लानि नहीं हुई. हो भी कैसे? मनुष्य ने अपना मानव- मूल्य असुर वृत्तियों के हाथों गिरवी जो रख दिया था.
ईसा के सूली पर लटकाये जाने की घटना में ख्रीस्तीय आध्यात्मिक चिंतन हमें ईश्वरत्व की वैसी ताकत का प्रकाशन करता है, जो शक्तिहीन परस्थितियों में प्रकट हो कर सामान्य मनुष्य के ताकतवर होने की सभी परिकल्पनाओं को धराशायी कर देता है. साम्राज्यों ने सोचा कि योजनबद्ध तरीके से दी गयी मौत के रास्ते सब कुछ नियंत्रित किया जा सकता है. परंतु पुनरुत्थान की घटना हुई, जिसने मानव नियंत्रण के निकृष्टतम और उनके हिसाब से अचूक तरीके की क्षुद्रता का आभास कराया.
ईसा के मृत भौतिक शरीर का तीसरे दिन जीवन में वापस आने की घटना को ईसाई जगत पुनरुत्थान के नाम से जानता है. ईसा के अनुयायियों के लिए यह केंद्रीय विश्वास का विषय है कि ईश्वर का सत्य रूप जो ईसा में प्रकट हुआ, वह आज भी वही है! वह जीवित है! ईसा की मौत और उससे जुड़े सभी घृणित प्रतीक चिह्न, क्रूस, पहाड़ की वह शापित जगह जहां अपराधियों को सूली पर टांग कर दर्दनाक मौत दी जाती थी, कब्र जहां लाशें सड़ जाती हैं, अब सम्मान के चिह्न में परिवर्तित हो गये.
इस इतिहास पुरुष ने हाशिये को केंद्र बना कर, हाशिये में पड़े जड़- चेतन सभी को ईश्वरीय प्राथमिकता बताया. मानव समुदाय में हमेशा एक वर्ग अपनी सत्ता व नियंत्रण बनाये रखने के लिए प्रपंच का जाल बुनता है, जिसमें हमेशा निरीह ही फंसते है़ं जिनके जीवन का मूल्य मात्र एक शिकार बनना रह जाता है. ईसा का निरीह होना, दुनियावी ताकतों के हाथों मरना असुर वृत्ति की जीत का साक्षात रूप है, परंतु यहां से आगे, जी उठे ईसा में मौत से आगे के जीवन में ईश्वर का प्रभुत्व और जीत है, साधु वृति का राज है.
विश्व मानव समुदाय के आध्यात्मिक सिंधु की इस धारा का वहन ईसाई परंपरा ने अवश्य किया है परंतु इसकी व्यापकता धर्म-विशेष तक सीमित नहीं है. किसी भी धर्म में आध्यात्मिक मूल्य सर्वग तत्व हैं और इन मूल्यवान सिंधुओं कि धारा भौगोलिक सीमाओं से परे बहती रहनी चाहिए.
पुनर्जीवन की आध्यात्मिक शुभकामनाएं उन सभी को, जो स्याह ताकतों और असुर वृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं. संघर्ष का क्रूस का भारी होना और उसकी पीड़ा का असहनीय होना ही उसके मूल्य का परिचायक है. सभी सुधि जनों की अंतरात्मा को हर उन संघर्षों में क्रूस उठाने की क्षमता मिलती रहे़ पुनर्जीवन का विजय पताका हृदयों को उत्साहित करता रहे, क्योंकि यह विदित है और विश्वासी जनों को निश्चितता भी है कि जीत सत्य की है.
कट्टरवादी सोच को प्रेममय जीवन में बदलने का प्रतीक है क्रूस
फादर फ्रांसिस िमंज
एसजे (रीजनल थियोलॉजिकल सेंटर, तरुणोदय कांके में ईशशास्त्र के प्राध्यापक)
अक्सर लोग पूछते हैं कि ईसा मसीह की क्रूर हत्या के काले दिन को शहादत दिवस या बैड फ्राइडे के बजाय गुड फ्राइडे क्यों कहते हैं? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ईसाईयों के लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन है. वे इस दिन उपवास और तपस्या कर आंसू बहाते हुए शोकमय प्रार्थना करते हैं. मान्यता है कि गुड फ्राइडे को गॉड्स फ्राइडे अर्थात् ईश्वर का शुक्रवार कहा जाता था जो बाद में गुड फ्राइडे हो गया.
इस दिन ईसा मसीह की मौत के संदर्भ, क्रूस की महत्ता तथा वर्तमान संदर्भ में उस मृत्यु के संदेश को आत्मसात किया जाता है. लोगों को क्रूस मृत्यु की सजा देने की परंपरा करीब 519 ई पू से रही है. प्रशा के राजा डारियुस प्रथम ने बेबीलोन में अपने 3000 राजनैतिक विरोधियों को क्रूस पर मरवा डाला था. यूनानियों ने भी फिलिस्तीन में यूनान की अधीनता अस्वीकार करनेवाले यहूदियों को क्रूस पर ठोंक कर मारा. सम्राट अलेक्जेंडर (सिकंदर) महान ने इसी क्रूर तरीके से अपने विरोधियों को मारा. बाद में रोमन लोगों ने भी अपने राजनीतिक विरोधियों, उपद्रवियों, दासों, गैर-रोमनों तथा देशद्रोहियों को क्रूस मृत्यु की क्रूरतम सजा दी.
बाइबल के अनुसार क्रूस का उपयोग मूर्तिपूजकों और ईशनिंदकों को मौत की सजा देने के लिए किया जाता था. क्रूस उपहास व अपमान का प्रतीक था. उस पर मरनेवाले को शातिर और शापित समझा जाता था. ईसा मसीह को इसी अभियोग से दंडित किया गया. मसीही विश्वासी ईसा की क्रूस पर हुई शापित मौत को मुक्तिदायी मृत्यु मानते हैं. ईसाईयों के लिए क्रूस पाप पर विजय और मुक्ति का प्रतीक है.
वे विश्वास करते हैं कि यीशु ने क्रूस पर अपना सर्वोत्तम बलिदान दिया और वे मनुष्यों के पापों के प्रायश्चित के लिए मरे. अपनी मृत्यु के द्वारा ईसा ने यह प्रमाण दिया कि वे अपने रक्त द्वारा विश्वास करने वालों को पाप मुक्त कर नवजीवन देते हैं. इसका ऐतिहासिक प्रमाण भी है. ईसाई धर्म अपनाने वाले प्रथम रोमन सम्राट कांस्टेनटाइन ने अपनी मां हेलेना (246-330 ईसवी) को ईसा मसीह से जुड़ी वास्तविक चीजों का संकलन करने के लिए भेजा. साम्राज्ञी हेलेना 326 ई में येरुसालेम पहुंची. यहूदी-रोमन युद्ध (132-135) में इस्राएल को हराने के बाद रोमन सम्राट हाद्रियन ने कलवारी पर्वत के निकट एक मंदिरबनवाया था. हेलेना के आदेश पर उस मंदिर को तोड़कर खुदाई की गयी. खुदाई में तीन क्रूस मिले.
इतिहासकार रूफिनुस (340-410 ई) के अनुसार हेलेना ने एक बीमार और मरणासन्न महिला को दो क्रूसों का स्पर्श कराया, लेकिन कुुछ नहीं हुआ. वे अपराधियों के क्रूस थे. जब उस महिला ने तीसरे क्रूस का स्पर्श किया तो वह चंगी हो गयी. उसे ही यीशु का वास्तविक क्रूस माना जाता है. वे उस क्रूस का एक भाग येरूसालेम में छोड़ कर बाकी को यूरोप ले गयीं. यूरोप में ईसाईयों की संख्या बहुत बढ़ी.

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