संक्रमण में तुर्की : पश्चिमी दुनिया का नया विलेन अर्दोआन

तुर्की में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लाने और राष्ट्रपति को व्यापक अधिकार दिये जाने के प्रस्तावों पर जनमत संग्रह में मामूली अंतर से मुहर लग गयी है. इन नतीजों को राष्ट्रपति अर्दोआन की बड़ी जीत माना जा रहा है जो देश को आंतरिक और बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए इन प्रस्तावों को जरूरी बता रहे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 19, 2017 6:06 AM
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तुर्की में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लाने और राष्ट्रपति को व्यापक अधिकार दिये जाने के प्रस्तावों पर जनमत संग्रह में मामूली अंतर से मुहर लग गयी है. इन नतीजों को राष्ट्रपति अर्दोआन की बड़ी जीत माना जा रहा है जो देश को आंतरिक और बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए इन प्रस्तावों को जरूरी बता रहे थे. विपक्षी पार्टियों तथा नागरिक समाज के साथ पश्चिमी देशों ने जनमत संग्रह की प्रक्रिया पर सवाल उठाये हैं. इस राजनीतिक परिवर्तन के विविध पहलुओं पर आधारित है आज का इन-डेप्थ…
ओमैर अनस
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
तुर्की में संविधान परिवर्तन पर चल रही बहस में राष्ट्रपति रेसेप तय्यिप अर्दोआन पश्चिमी मीडिया और राजनेताओं के निशाने पर हैं. अब जबकि जनमत संग्रह में संसदीय व्यवस्था से राष्ट्रपति व्यवस्था में परिवर्तित करने का प्रस्ताव जनता ने पारित कर दिया है, तुर्की में आ रहे एक बड़े बदलाव को राष्ट्रपति अर्दोआन तक सीमित कर के देखने की गलती की जा रही है. उन्हें सद्दाम हुसैन की तरह पेश क्या जा रहा है. तुर्की के इतिहास में अर्दोआन अगर कमाल अतातुर्क से बड़े नहीं हैं, तो उनसे किसी भी तरह कम भी नहीं हैं.
अतातुर्क एक कट्टर पश्चिमी सोच रखने वाले ऐसे नेता थे जिन्होंने तुर्की पर पश्चिमी सभ्यता को डंडे की जोर पर लागू किया था. अरबी भाषा में अजान पर पाबंदी से लेकर स्कार्फ ओढ़ने, टोपी पहनने और मजहबी रस्मो-रवाज को सख्ती से कुचल दिया गया था.
जब पहली बार अरबी में अजान देने पर पाबंदी खत्म की गयी, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अदनान मन्ड्रेस का तख्ता फौज ने पलट दिया था और फौजी अदालत ने उनके खिलाफ देश में धर्मनिरपेक्षता को खत्म करने की कोशिश करने के अपराध में 1961 में फांसी पर चढ़ा दिया था. तुर्की में धर्मनिरपेक्षता को सबसे ज्यादा नुकसान अतिवादी फौजी अफसरों और उनकी समर्थक अतातुर्क की जम्हूरियत पार्टी ने पहुंचाया था.
तुर्की में राजनीति का अगला संघर्ष धर्मनिरपेक्षता का इस अतिवादी रूप और मजहबी आजादी के हिमायतियों के बीच शुरू हुआ. फौजी धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध उभरनेवाली राजनीति को ‘पोलिटिकल इस्लाम’ की श्रेणी में रखना एक ज्यादती है. भारत में बहुत काम लोग यह जानते हैं कि आज तुर्की में जिन राजनीतिक जमातों को इस्लामवादी करार दिया जा रहा है, वे दरअसल सूफी सिलसिलों की कोशिश से खड़े हुए एक उदारवादी इस्लाम से जुड़े हैं जिसका नेतृत्व प्रोफेसर नजमुद्दीन अरबकान ने किया था. अर्दोआन उनके सबसे करीबी युवा नेता थे और उन्हें ‘मेरे अध्यापक’ कहकर बुलाते थे. यह समझना मुश्किल नहीं है कि तुर्की में अतिवादी धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी देशों का समर्थन हासिल रहा.
अरबकन और उनकी सादात पार्टी मानते थे कि यूरोपीय संघ सिर्फ एक ईसाई क्लब बन कर रह गया है. इसके चलते नजमुद्दीन अरबकन की पार्टी तीन बार प्रतिबंधित की गयी और 1997 में उन्हें फौजी दबाव में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसके साथ ही उनके ऊपर पांच साल के लिए राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का आदेश भी थोप दिया गया.
अर्दोआन को लगा कि यूरोपीय संघ और पश्चिमी देशों का विरोध और धर्मनिरपेक्षता के विरोधवाली राजनीति टकराव की है और इस कारण कोई भी मजबूत सरकार नहीं आ पा रही है. इसी बहस के चलते एर्डोगन ने तीन अन्य नेताओं के साथ इस्लामी पार्टी को छोड़ कर नयी पार्टी अदालत व किल्किनमा पार्टिसि (एकेपी) बनायी और तुर्की को यूरोपीय संघ का सदस्य बनाने का एजेंडा सबसे ऊपर रखा.
वर्ष 2002 में पहले ही चुनाव में बहुमत हासिल करने के बाद भी अर्दोआन प्रधानमंत्री नहीं बन सके क्योंकि 1994 में उनके उन पर एक मजहबी कविता पढ़ने के अपराध में चार महीने की जेल और पांच साल की राजनीतिक पाबंदी थी. पाबंदी हटने के बाद ही उनके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ. वर्ष 2007 में एक बार फिर फौजी कौंसिल ने उनको अपदस्थ करने की धमकी दी.
पिछले साल 15 जुलाई के तख्ता-पलट की असफल कोशिश एक ऐसे समय में हुई जब सीरिया और इराक में चल रहे संकट पर तुर्की और उसके पश्चिमी समर्थकों को बीच विरोध गहरा हो चुका था. तुर्की में 30 लाख सीरियाई शरणार्थियों को यूरोपीय संघ के जुबानी वादों के सिवा कुछ नहीं मिला. तुर्की ने नाटो देशों से उत्तरीय सीरिया में सुरक्षित क्षेत्र बनाने की मांग की ताकि सीरियाई नागरिकों को बशर अल-असद की हवाई बमबारी से बचाया सके.
सीरिया के सुन्नी बाहुल्य इलाकों में नो फ्लाई जोन की मांग भी सात सालों में कभी नहीं मानी गयी जिसके चलते बशर अल-असद की सेना, ईरानी और हिज़्बुल्लाह लड़ाकों तथा रूसी लड़ाकू विमानों ने सीरियाई सुन्नी अरब आबादी को तबाह करने में कामयाब हो सके. अमरीका की तरफ से कुर्द लड़ाकों को सीधे हथियारों की आपूर्ति वामपंथी कुर्द लड़ाकों को एक नया देश बनाने के लिए हौसला दे रही है. अर्दोआन अपने सबसे मुश्किल राजनीतिक संकट में चारों तरफ से घिरे हैं. ईरान जैसे दोस्त देशों ने पीठ के पीछे छुरा घोंपा है. नाटो और अमरीका पीछे हट चुके हैं. ये समझना मुश्किल नहीं है कि वामपंथियों, ईरानी मीडिया, असद समर्थक और पश्चिमी जगत में अर्दोआन के विरोध के पीछे बड़ा कारण यह है कि अर्दोआन को अकेले निशाना बनाना बहुत आसान है.
ऐसे में रूस और इजराइल से समझौता तथा पश्चिम प्रेम छोड़ कर एशियाई देशों से बेहतर संबंध बनाना अब अर्दोआन की प्राथमिकता है. उनके सामने तीन बड़ी चुनौतियां हैं- राजनीति में फौजी अमल दखल को हमेशा के लिए खत्म करना, धर्मनिरपेक्षता की अतिवादी परिभाषा को बदलना जिससे मजहबी लोगों, खास तौर पर नकाब पहनने वाली महिलाओं को शिक्षा और रोजगार के बराबर के अवसर मिलें, तथा संसद और राष्ट्रपति के बीच की व्यवस्था जिससे नौकरशाही के दखल को कम कर बेहतर शासन स्थापित किया जाये. इस जनमत संग्रह ने तुर्की को एक मजबूत व्यवथा दी है जिसे किसी फौजी या बाहरी दखल से हटाना मुश्किल होगा और राजनीतिक पार्टियों का महत्व बढ़ जायेगा.
ये सही है कि इस बदलाव से फिलहाल सबसे ज्यादा फायदा खुद अर्दोआन को होगा, खास तौर पर तब जब वे अगला चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं. इस बदलाव ने 1982 में फौजी शासकों द्वारा संविधान को बदल दिया है. अर्दोआन को विलेन बनाकर पेश करने वालों में सबसे आगे वे हैं जिन्हें सीरिया के बशर अल-अद से हमदर्दी है या जो अमरीकी द्वारा नया कुर्दिश देश बनाना चाहते हैं. तुर्की की जनता इस बदलाव पर दो हिस्सों में बंटी हुई है. अब राष्ट्रपति के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे दोनों धड़ों को जोड़ें और साबित करें कि यह संवैधानिक बदलाव तुर्की को पहले से बेहतर, समावेशी और लोकतांत्रिक बनायेगा. लेकिन पश्चिमी देशो में अर्दोआन को विलेन बनाने का अभियान अभी जारी रहेगा.
नये संविधान में क्या होगा ?
– प्रस्ताव के अनुसार अगले राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव नवंबर, 2019 में होंगे.
– राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा और एक व्यक्ति अधिकतम दो कार्यकाल तक इस पद पर रह सकता है.
– राष्ट्रपति के सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों को सीधे नियुक्त करने का अधिकार होगा.
– राष्ट्रपति एक या उससे अधिक उपराष्ट्रपति नियुक्त कर सकेगा.
– नयी प्रणाली में प्रधानमंत्री का पद समाप्त कर दिया जायेगा.
– राष्ट्रपति न्यायिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकेंगे.
– आपातकाल घोषित करने का अधिकार भी राष्ट्रपति के पास होगा.
नाममात्र की जीत है अर्दोआन के लिए
सेर्हन अल
प्राध्यापक, इज्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ इकोनॉमिक्स, तुर्की
राष्ट्रपति अर्दोआन 2014 में जीत के बाद से ही हकीकत में शासन के प्रमुख बने हुए हैं. जनमत संग्रह के नतीजों के बाद यह हकीकत अब वैधानिक सच भी हो जायेगा. बढ़ी हुई ताकत के तहत अब वे शासनादेश जारी कर सकते हैं, बजट को नियंत्रित कर सकते हैं तथा उपराष्ट्रपतियों, मंत्रियों और उच्चाधिकारियों को नियुक्त कर सकते हैं. अगर वे अगले दो चुनाव जीत जाते हैं, तो वे 2029 तक राष्ट्रपति बने रह सकते हैं.
इसके बावजूद कि अर्दोआन और उनकी एकेपी पार्टी तथा उनकी सबसे बड़ी सहयोगी नेशनलिस्ट एक्शन पार्टी (एमएचपी) ने जीत का दावा किया है, जनमत संग्रह में संवैधानिक बदलावों के पक्ष में मतदान करनेवाली 51.3 फीसदी की संख्या दोनों पार्टियों के संयुक्त वोट 62 फीसदी से कम है जो उन्होंने नवंबर, 2015 के चुनाव में प्राप्त किये थे. यह इस बात का संकेत है कि मामूली अंतर की जीत निर्णायक नहीं है.
यह भी महत्वपूर्ण है कि बड़े औद्योगिक महानगरों- इंस्तांबुल, अंकारा, इज्मीर और अंताल्या ने बदलाव के विरोध में मत दिया है. देश के दक्षिण-पूर्व में अधिकतर कुर्द मतदाताओं ने भी प्रस्तावों को खारिज किया है. इसका एक कारण कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी और तुर्की की सेना के बीच 2015 की गर्मियों से जारी संघर्ष है जो शांति-प्रक्रिया के टूटने के बाद शुरू हुआ था.
इसके उलट रुढ़िवादी और राष्ट्रवादी अनातोलियाई वोटरों ने बदलाव के पक्ष में वोट दिया है. इसमें से कई अर्दोआन की ताकतवर व्यक्तिगत छवि के समर्थक हैं तथा पश्चिमी देशों को शक की नजर से देखते हैं. ये लोग ओट्टोमन साम्राज्य के अतीत से भी अभिभूत हैं.
दोनों धड़ों ने संविधान को अलग-अलग नजरिये से देखा है. बदलाव के समर्थकों की नजर में पूर्ववर्ती गंठबंधन सरकारों की असफलता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे सबसे अहम थे.
विरोधी अधिकारों के बंटवारे और शासन के विविध अंगों के बीच संतुलन तथा लोकतंत्र पर खतरे को लेकर चिंतित थे. यह टकराव और परिणाम में मामूली अंतर साबित करते हैं कि तुर्की के समाज का बड़ा हिस्सा राज्यसत्ता और लोकतंत्र के भविष्य को लेकर गंभीर रूप से चिंतित है. सामाजिक-आर्थिक स्थिरता, शांति और तुर्की की राजनीति का सामान्य होना जैसी चीजें तब तक हासिल नहीं की जा सकती हैं, जब तक राष्ट्रपति अर्दोआन इन चिंताओं पर समुचित ध्यान नहीं देते हैं.
इस जनमत संग्रह के साफ-सुथरे होने को लेकर भी सवाल उठाये गये हैं. पिछली जुलाई के असफल तख्ता-पलट के बाद लागू आपातकाल के माहौल में यह मतदान हुआ है. उस समय से कई असंतुष्ट बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, नौकरशाह, राजनेता आदि हिरासत में हैं और उन्हें चुप करा दिया गया है.
अब नतीजों के बाद अर्दोआन पहला काम यह करेंगे कि वे अपनी पार्टी में आधिकारिक रूप से शामिल होंगे क्योंकि राष्ट्रपति के निरपेक्ष रहने की बाध्यता अब नहीं रहेगी. वैसे भी एकेपी पार्टी बिना अर्दोआन के कोई खास मतलब भी नहीं रखती है. राष्ट्रपति शासन व्यवस्था के समर्थन में बहुत उत्साह का नहीं होना यह इंगित करता है कि नयी व्यवस्था में संक्रमण की प्रक्रिया आसान नहीं होगी. अस्थिर अर्थव्यवस्था, कुर्द समस्या, कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति और तनावपूर्ण विदेशी संबंध जैसी मुश्किलें हल के इंतजार में हैं.
अब, पहले से कहीं अधिक, अर्दोआन के सामने राजनीतिक और सामाजिक रूप से विभाजित देश में शांति और स्थिरता बहाल करने का कठिन काम अंजाम देना है. (साभारः द गार्डियन)
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