चंपारण सत्याग्रह के सौ साल : एक नारीमय राजनीति की बुनियाद

रुचिरा गुप्ता चंपारण सत्याग्रह में औरतें पहली बार हिंदुस्तान की जमीनी राजनीति से जुड़ीं और यह औरतों की भागीदारी का बुनियाद बन गया. सूत कातना और खादी बुनना गरीब से गरीब महिला भी अपने घर में कर सकती थी. लाखों वॉलंटियरों, विशेषकर महिलाओं को, जो अपना घर नहीं छोड़ सकतीं थीं और पढ़ी-लिखी भी नहीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 21, 2017 1:14 AM
an image
रुचिरा गुप्ता
चंपारण सत्याग्रह में औरतें पहली बार हिंदुस्तान की जमीनी राजनीति से जुड़ीं और यह औरतों की भागीदारी का बुनियाद बन गया. सूत कातना और खादी बुनना गरीब से गरीब महिला भी अपने घर में कर सकती थी. लाखों वॉलंटियरों, विशेषकर महिलाओं को, जो अपना घर नहीं छोड़ सकतीं थीं और पढ़ी-लिखी भी नहीं थी, अब आंदोलन भाग ले सकती थीं. इन कार्यों ने सबको बदला-शक्तिशाली और कमजोर को, मर्द को और औरत को. पढ़िए एक टिप्पणी.
हिंदुस्तान के आजादी आंदोलन ने अंगरेज हुकूमत के बर्बर पुरुषवादी राजनीति को चुनौती देने में कामयाबी इसलिए पायी, क्योंकि गांधीजी ने इस संघर्ष को जानबूझ कर और बुनियादी तरीके से स्त्रीमय बनाया. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह में गांधीजी ने औरतों की मजबूती देखी थी, – जब उन्होंने अंगरेजी हुकूमत के कानून को तोड़, नेटाल से ट्रांसवाल की सीमा पार की, और साथ-साथ पीड़ित कोयला मजदूरों के संघर्ष में हाथ बंटाया.
जब तक गांधीजी ने लियो टॉलस्टॉय के अनिवारक प्रतिरोध के बारे में पढ़ा, तब तक उन्होंने अपनी मां, पुतली बाई से और अपनी बीबी कस्तूरबा से अनिवारक प्रतिरोध के तरीके -व्रत और अहिंसात्मक अवज्ञा करना, और उन तरीकों कि सफलता, का अनुभव कर लिया था.
उनकी मां उनके पिता पर दबाव डालने के लिए व्रत रखती थीं और कस्तूरबा को जो चीज गलत लगती थी, उसको करने के लिए वह इनकार कर देती थी. गांधीजी ने टॉलस्टॉय फार्म में अमीर-गरीब, जात-पात, नर-नारी और हिंदू-मुसलिम, और ईसाई-यहूदियों के बीच के भेद भाव को खत्म करने का प्रयोग किया.
वह रोज खुद सूत काटते और बुनते, व्रत रखते, सफाई करते और खाना बनाते थे. इस रोल रिवर्सल ने दुनिया को एक नयी संभावना दी कि आदमी औरत का काम कर सकता है और औरत आदमी का. जब गांधीजी ने भारत को समझने का दौरा शुरू किया, तब कई मुद्दों की जानकारी उनको सदियों से चल रहे नारी आंदोलन से मिली- बाल विवाह, सती, नारी अशिक्षा, पर्दा, विधवा पीड़ा, देवदासी प्रथा इत्यादि. वर्ष 1916 में नारीवादी समाजवादी एनी बेसेंट ने आल इंडिया होम रूल लीग बनाया और होम रूल का एलान कर दिया.
लीग पूरे साल काम करती थी और उसके हर शहर में ब्रांच खुल गये थे. गांधीजी वर्ष 1914 से कोशिश कर रहे थे कि हिंदुस्तान में भी वे अपने सत्याग्रह के तरीके का प्रयोग अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ करें. पर कांग्रेस उनकी बात नहीं मान रही थी.
होमरूल के आंदोलन की लोकप्रियता तथा एनी बेसेंट जैसे लोकप्रिय नेताओं के मदद से गांधीजी ने लखनऊ अधिवेशन में चंपारण के पीड़ित नील किसानों के मदद के लिए सत्याग्रह के प्रयोग का प्रस्ताव पास करवा लिया. सत्याग्रह आंदोलन की बुनियाद एनी बेसेंट के होम रूल मूवमेंट ने की. गांधीजी के सत्याग्रह के दो अंश थे – सिविल नाफरमानी और रचनात्मक कार्य. दोनों को उन्होंने काफी हद तक औरतों से समझा और सीखा था. व्रत, अहिंसा, हाथ से काम करना – सूत कातना और बुनना, कमजोरी की मजबूती और अपराधी का परिवर्तन-यह सब उन्होंने औरतों को करते हुए जीवन भर देखा था. गांधी जी चाहते थे कि कांग्रेस औरतों के मुद्दों को सिर्फ उठाये ही नहीं, बल्कि अपने कार्यकलापों में भी औरतों के तौर तरीकों को अपनायें.
जब गांधीजी को 16 अप्रैल 1917 के दिन अंगरेज सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट की चिट्ठी मिली कि वे नील किसानों की व्यथा को रिकॉर्ड न करें और मोतिहारी (चंपारण) छोड़ दें, तब वे अपने सहयोगियों के साथ परदा-प्रथा को खत्म करने की बात कर रहे थे. उनका ऐतिहासिक सत्याग्रह उस दिन शुरू हुआ. उस दिन, उन्होंने दो चिट्ठियां लिखी – एक रचनात्मक कार्य के लिए और एक सिविल नाफरमानी के लिए. रचनात्मक कार्य के लिए उन्होंने अपने एक दोस्त को कुछ वालंटियर्स भेजने के लिए कहा -जो चंपारण में स्कूल और आश्रम चलायें – जहां औरतों और लड़कियों की शिक्षा, परदा,अस्पृश्यता, विधवा प्रथा खत्म करें, बुनना और सूत कातना सिखायें, वैज्ञानिक तरीके से खेती करें और सफाई का काम हो.
उन्होंने आग्रह किया कि वालंटियर में पढ़ी-लिखी महिलाएं जरूर शामिल हों. दूसरी चिट्ठी थी सिविल नाफरमानी के लिए. उन्होंने सब-डिवीजन मजिस्ट्रेट को साफ लिख दिया कि वे चंपारण नील किसानों की व्यथा रिकॉर्ड करे बिना नहीं जायेंगे. अगले दिन कोर्ट के बाहर हजारों लोग खड़े थे.
जब गांधीजी ने कहा कि वे अपने सिविल नाफरमानी के लिए सजा भुगतने के लिए तैयार हैं, पर वह गलत कानून को तोड़ना अपराध नहीं मानते. 13 नवंबर, 1917 को उन्होंने चंपारण में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला, कुछ दिनों में दूसरा और कुछ हफ्तों में तीसरा. इन स्कूलों को चलाने के लिए छ: महिला वालंटियर्स -अवंतीबाई गोखले, कस्तूरबा गांधी, दुर्गाबाई देसाई, मणिबेन नरहरिजी, आनंदीबाई, और वीणापाणि साहू- और 15 पुरुष थे.
कुछ ही दिनों बाद एनी बेसेंट कांग्रेस की राष्ट्रपति चुनी गयी. उन्होंने गांधीजी का कलकत्ता अधिवेशण में उत्साहपूर्ण अभिनंंदन किया और गांधीजी का नेतृत्व हिंदुस्तान के कांग्रेस में स्थापित होने लगा. चंपारण सत्याग्रह में औरतें पहली बार हिंदुस्तान की जमीनी राजनीति से जुड़ीं और यह औरतों की भागीदारी का बुनियाद बन गया. सूत कातना और खादी बुनना गरीब से गरीब महिला भी अपने घर में कर सकती थी. लाखों वॉलंटियरों, विशेषकर महिलाओं को, जो अपना घर नहीं छोड़ सकतीं थीं और पढ़ी-लिखी भी नहीं थी, अब आंदोलन भाग ले सकती थीं.
इन कार्यों ने सबको बदला-शक्तिशाली और कमजोर को, मर्द को और औरत को. आश्रम और स्कूल के काम को करते करते धीरे-धीरे वे और भी सभी राजनैतिक काम करने लगीं- शराबबंदी, मजदूरों को संगठित करना, अंगरेजी सामान त्यागना, नमक बनाना-बेचना, सूत कातना, खादी बुनना और पहनना, पब्लिक मीटिंग करना, जेल भरना और पुलिस अफसरों से पिटना.
कई अपनी सदियों पुरानी पूर्वधारणा को छोड़ कर घर के आंगन से निकलीं, जाति प्रथा को तोड़ी और जेल गयीं. कुछ ने बिना झिझक के अपनी कांच की चूड़ियां तक तोड़ दीं, (जबकि शादीशुदा औरतें इसको अपशकुन मानती हैं ) क्योंकि उन्होंने सुना कि ये चूड़ियां चेकोस्लोवाकियाई कांच की बनी हुई हैं. औरतों की भागीदारी के कारण आजादी आंदोलन घर-घर तक पहुंच गया.
दुनिया के इतिहास में इतनी महिलाएं कभी राजनीति में आयी ही नहीं थी. चंपारण सत्याग्रह से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी तरह आगे रहीं.गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पर, जिस प्रश्न का उत्तर हम खोज रहे हैं, वह है कि, क्या आज की विषैली पुरुषवादी राजनीति का सामना हम राजनीति को, गांधी की तरह, नारीमय बनाकर ही, कर पायेंगे?
Exit mobile version