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चंपारण सत्याग्रह के सौ साल : कहीं रांची में नजरबंद न कर लिये जाएं महात्मा
अजय कुमार चंपारण में गांधी के पांव पड़ते ही रैयतों में नयी जान आ गयी. निलहे चाहते थे कि गांधी को किसी तरह यहां से निकाल-बाहर किया जाये. वे अशांति का बहाना बना रहे थे. सरकार भी इस उथल-पुथल पर नजर रख रही थी. चंपारण में गांधी किसानों का हाल जानने के लिए अलग-अलग गांवों […]
अजय कुमार
चंपारण में गांधी के पांव पड़ते ही रैयतों में नयी जान आ गयी. निलहे चाहते थे कि गांधी को किसी तरह यहां से निकाल-बाहर किया जाये. वे अशांति का बहाना बना रहे थे. सरकार भी इस उथल-पुथल पर नजर रख रही थी. चंपारण में गांधी किसानों का हाल जानने के लिए अलग-अलग गांवों में जा रहे थे कि 29 मई 1917 को रांची में तैनात छोटे लाट सर एडवर्ड गेट का संवाद पहुंचा. संवाद में बताया गया था कि सर गेट महात्मा से चार जून को रांची में मिलना चाहते हैं.
अशांति भरे माहौल में इस संवाद के कई मतलब निकाले गये. आशंका थी कि महात्मा को रांची में ही नजरबंद कर लिया जायेगा. इस भय को देखते हुए रैयतों की लड़ाई आगे ले जाने की रणनीति बनायी गयी. चंपारण में गांधी नामक किताब में डॉ राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं- बेतिया में सब बातों पर विचार करने के बाद पटना आने के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय को तार भेजा गया. कस्तूरबा गांधी को तार गया कि वे महात्मा जी से रांची आकर मिलें. उस समय वह कलकत्ते में थीं.
उसी समय महात्मा के छोटे पुत्र देवदास गांधी को भी साबरमती सत्याग्रह आश्रम से रांची आने को कहा गया. डॉ राजेंद्र प्रसाद को पटना में दूसरे साथियों से मिलने और उन्हें वस्तुस्थिति की जानकारी देने को भेजा गया.यह अनुमान लगाना कठिन था कि सर गेट ने महात्मा को रांची क्यों बुलाया है? रांची जाने के लिए गांधी चंपारण से रात में चले. साथ में नामी वकील बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी थे. दो जून की दोपहर वे पटना आये.
इससे पहले एक जून को ही पंडित मालवीय पंजाब मेल से पटना पहुंच चुके थे. सभी नेताओं के पटना पहुंचने पर उनकी मीटिंग हुई. उसमें तय किया गया कि महात्मा के साथ रांची में कोई कार्रवाई होती है, तो मजहरूल हक अथवा पंडित मदन मोहन मालवीय चंपारण के किसानों की लड़ाई लड़ेंगे.
चंपारण की हालत पर रांची में मीटिंग : नियम समय पर महात्मा रांची पहुंच गये. चार जून को सर एडवर्ड गेट के साथ महात्मा की मुलाकात हुई. उधर, महात्मा के सहयोगी यह जानने को उत्सुक थे कि रांची में क्या हुआ? तार ही संवाद का जरिया था. चंपारण में महात्मा के सहयोगी तार की राह देखने लगे. पांच जून को रांची से भेजा गया एक तार चंपारण पहुंचा .
डॉ राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं- पांच तारीख की सुबह आठ बजे एक तारवाला आता दिखायी दिया. हम सब उसकी ओर दौड़ पड़े. जब तक तार खोल कर पढ़ा नहीं गया, तब तक ह्दय में बड़ा उद्वेग था. लेकिन तार पढ़ने के बाद भी संतोष नहीं हुआ, क्योंकि उसमें साफ-साफ कुछ भी नहीं लिखा था. तार में केवल इतना ही लिखा था कि आज की मुलाकात संतोषजनक रही, फिर कल मिलना है.अब अगले दिन के तार की प्रतीक्षा की जाने लगी. छह जून का दिन उसी तरह बीत गया. सात जून को महात्मा जी का तार मिला कि हमलोग आठ जून को रांची से वापस हो रहे हैं.
रांची में बनी चंपारण कमेटी: तीन दिनों तक रांची में सर गेट तथा कौसिंल के सदस्यों से महात्मा जी बातें करते रहे. अंत में यह निश्चय हुआ कि चंपारण का हाल जानने के लिए एक जांच कमेटी नियुक्त की जायेगी. उसमें महात्मा को भी बतौर सदस्य रखने पर सहमति बनी.
जांच कमेटी बनाने पर सहमति का अर्थ इस लड़ाई को नया आवेग मिलना था. चूंकि निलहे नहीं चाहते थे कि इस मामले की जांच हो. बहरहाल, सात जून को महात्मा सबेरे पटना पहुंचे. अगले दिन सबसे भेंट-मुलाकात कर पटना से चले और शाम में बेतिया पहुंचे. बाद में भारत सरकार ने चंपारण के रैयतों की स्थिति, जमींदारों के साथ उनके रिश्ते तथा अशांति के वजहों की छानबीन के लिए कमेटी बनाने को मंजूरी दे दी.
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