चिंतन का विषय : बचपन पर हावी तनाव और बोझ
अनुज कुमार सिन्हा इन तीन घटनाआें काे पढ़िए. एक : काेटा में काेचिंग में पढ़ाई कर रहा छात्र अपने पिता काे लिखता है-माफ करना पापा, हम आपके सपने काे पूरा नहीं कर पा रहे हैं. अपने भाई काे सलाह देता है कि वह खूब पढ़ाई कर मां-पापा के सपने काे साकार करे. इसके बाद वह […]
अनुज कुमार सिन्हा
इन तीन घटनाआें काे पढ़िए.
एक : काेटा में काेचिंग में पढ़ाई कर रहा छात्र अपने पिता काे लिखता है-माफ करना पापा, हम आपके सपने काे पूरा नहीं कर पा रहे हैं. अपने भाई काे सलाह देता है कि वह खूब पढ़ाई कर मां-पापा के सपने काे साकार करे. इसके बाद वह कूद कर जान दे देता है.
दाे : दिल्ली में दाे भाई कमरे बंद कर माेबाइल पर गेम खेलते-खेलते इतने डिप्रेस्ड हाे गये कि उन्हें कुछ पता ही नहीं चला. न खाना खाया, न पानी पिया. पैंट में ही पेशाब हाेता रहा, लेकिन उन्हें इसका आभास तक नहीं हुआ.
तीन : रांची में दस साल के एक छात्र ने राज्य के मुख्यमंत्री के नाम संदेश लिखा- मां कहती है खेलाे. हम कहां खेलें, खेल का मैदान कहां बचा है? आप जहां (जमशेदपुर में) रहते थे, खेलते थे, वहां मैदान था. हम राेड पर खेलते हैं, ताे गाड़ी आैर घराें का शीशा टूटता है, मार पड़ती है. हम कैसे खिलाड़ी बनेंगे. खेल के मैदानाें पर कब्जा कर लिया है. बताइए, हम सब क्या करें?
ये तीनाें घटनाएं समाज काे बेचैन करनेवाली हैं. घटनाएं सच हैं. बच्चे तनाव में हैं. उनका बचपन खत्म हाे गया है. ये बताती हैं कि हालात कितने बिगड़ चुके हैं. हर मां-बाप अपने बच्चाें काे इंजीनियर (वह भी आइआइटी से ही) इंजीनियर बनाना चाहता है, डॉक्टर बनाना चाहता है.
माता-पिता बच्चाें पर दबाव बनाते हैं. बच्चे क्या बनना चाहते हैं, काेई नहीं पूछता. अपनी इच्छा उन पर लाद देते हैं. यह नहीं देखते कि बच्चे में कूवत है या नहीं, इच्छा है या नहीं. जबरन डाल देते हैं काेचिंग में. नतीजा एक-दाे बार प्रयास के बाद वह निराश हाे कर यह समझ लेता है कि सब कुछ खत्म हाे गया है आैर जान दे देता है. राेज ऐसी घटनाएं घट रही हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश में हर घंटे एक छात्र जान दे रहा है. उनमें धैर्य नहीं है. अधिकांश माता-पिता बच्चाें काे समय नहीं दे पाते, दाेनाें नाैकरी करते हैं, आया (दाई) के भराेसे बच्चाें काे छाेड़ जाती हैं आैर यह उम्मीद करते हैं कि बच्चा आइआइटी करे. आंकड़े बताते हैं कि बड़ी संख्या में बच्चे डिप्रेशन के शिकार हाे रहे हैं, उन्हें इलाज के लिए मनाेचिकित्सक के पास ले जाया जा रहा है. सिर्फ मेडिकल-इंजीनियरिंग की बात नहीं है. छाेटी कक्षाआें में या 10वीं, 12वीं की परीक्षा में असफल हाेने के बाद बच्चे जान दे रहे हैं. इन बच्चाें काे बचाना हम सभी का दायित्व है.
ऐसी बात नहीं है कि एक परीक्षा में फेल हाेने के बाद सब कुछ खत्म हाे जाता है या सिर्फ आइआइटी करने से ही भविष्य बन सकता है. देश के पूर्व राष्ट्रपति आैर प्रसिद्ध वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम ने ताे आइआइटी से पास नहीं किया था, रसायन में नाेबल प्राइज विजेता वेंकटरमण राधाकृष्णन भी आइआइटी की परीक्षा पास नहीं की थी, जेइइ में फेल हाेने के बाद सत्या नडेला ने हिम्मत नहीं हारी थी आैर माइक्राेसॉफ्ट के सीइआे बने थे.
कल्पना चावला पर देश काे गर्व है, लेकिन कल्पना आइआइटी की परीक्षा पास नहीं कर सकी थी, लेकिन उन्हाेंने इतिहास रचा था. साेचिए, अगर ये सभी आइआइटी नहीं करने से निराश हाे कर घर में बैठ जाते, डिप्रेशन में चले जाते ताे क्या इतिहास रच पाते? नहीं रच पाते. बिल गेट्स हावर्ड के ड्राप आउट हैं. पहले बिजनेस में असफल रहे. बाद में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति बने. आइंस्टीन चार साल क बाेल नहीं पाते थे, सात साल तक लिख नहीं पाते थे, स्कूल से निकाल दिया गया था. थॉमस एडिशन काे शिक्षक ने स्टुपिड बताते हुए कहा था-यह लड़का कुछ नहीं कर सकता. उसी एडिशन ने बल्ब का आविष्कार किया. दाे बार इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रहे चर्चिल भी छठे ग्रेड में फेल कर गये थे. ये बाद में सफल हुए आैर इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया. निराश हाेकर जान देना, डिप्रेशन में जाना किसी समस्या का समाधान नहीं हैं.
दरअसल बच्चें करें ताे क्या करें, किससे बात करें, काेई उनकी सुनता नहीं. घर में माता-पिता नहीं सुनते. दाेनाें कमाने में लगे रहते हैं. बच्चे की हर जिद काे पूरा करते हैं. बाइक मांगता है, बाइक देते हैं. माेबाइल मांगता है, माेबाइल देते हैं. काेचिंग भेज कर अपनी जिम्मेवारी से मुक्ति पा लेते हैं. सच ताे यह है कि संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहा है.
दादा-दादी का प्यार मिल नहीं पाता. अच्छे आैर बुरे में फर्क काेई बता नहीं पाता. स्कूल के शिक्षक काम से काम रखते हैं. कुछ कानून ने उनके हाथ काे बांध रखा है. बच्चाें के लिए खेल का मैदान नहीं है. बाहर खेलने नहीं सकते. ऐसे में माेबाइल आैर टीवी उनका सहारा है. इसमें घंटाें डूबे रहते हैं आैर यही उनके जीवन काे खराब कर रहा है. याद कीजिए आज से 20-25 साल पहले ये हालात नहीं थे. स्कूली बच्चाें पर तनाव नहीं था. बच्चे स्कूल से आ कर बैग पटक कर खेलने के लिए निकल जाते. खेलते भी, लड़ते-झगड़ते भी थे, तनाव वहीं निकल जाता था. बच्चे शारीरिक आैर मानसिक ताैर पर मजबूत हाेते थे. हर समस्या से जूझते थे. हार नहीं मानते थे. यही कारण था कि उन दिनाें आत्महत्या की घटनाएं बहुत कम
घटती थीं.
अब समय आ गया है, माता-पिता, शिक्षक सभी बच्चाें की स्थिति काे समझे. उन पर उतना ही भार लादें, जितना वे सह सकते हैं. सुबह पांच बजे उठ कर अगर काेई बच्चा पहले स्कूल, फिर हाेमवर्क, उसके बाद ट्यूशन में लगा रहेगा, ताे वह खेलेगा कब? पढ़ाई आवश्यक है लेकिन इसके साथ खेल आैर मनाेरंजन भी उसके विकास के लिए आवश्यक है.
इन बच्चाें के बचपन काे बचाना हाेगा. उनके मन में क्या चल रहा है, उनकी बाताें काे सुनना हाेगा, उनके तर्क आैर उनकी परेशानियाें काे समझना हाेगा. उनकी क्षमता की पहचान करनी हाेगी. जबरन थाेपने से किसी का भला नहीं हाेनेवाला. प्रभात खबर अपने अभियान से यही सब कुछ समाज काे बताने का प्रयास कर रहा है. यह एक गंभीर अभियान है, जिसका उद्देश्य बच्चाें काे बचाना, उनके अंदर पनप रही नकारात्मक भावनाआें काे दूर करने में मदद करना है. अभिभावक काे यह सचेत करना है कि आप एक अनावश्यक दबाव बच्चाें के जीवन काे खतरे में डाल सकता है. बच्चाें काे समय दीजिए,उनसे बात कीजिए, पॉजिटिव आैर प्रेरक कहानियां सुनाइए, ताकि वे जीवन के इस संघर्ष का मजबूती से सामना कर सकें.
बच्चों का विकास
खेल मैदान के अभाव में घरों में सिमटे बच्चे तनाव के हो रहे शिकार
खेल मैदान के अभाव में घरों में सिमटे बच्चे तनाव के हो रहे शिकार
खेलोगे कूदोगे होओगे खराब, पढ़ाेगे लिखोगे बनोगे नवाब़ यह कहावत आज के दौर में सटीक नहीं है. नवाब बनने के लिए जितना पढ़ना जरूरी है, उतना ही खेलना भी. विशेषज्ञ भी कहते हैं कि बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए खेलना आवश्यक है, लेकिन ये खेल घरों में नहीं ,बल्कि मैदान में खेले जायें. पर बढ़ते कंक्रीट के जाल और अपार्टमेंट कल्चर ने शहर से खेल के मैदानों को पहले छोटा किया और अब इसे समाप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है. खत्म होते मैदानों की वजह से बच्चे अब स्मार्टफोन गेम्स, वीडियो गेम्स में सिमटते हुए कंक्रीट के कमरों में कैद हो गये हैं. ऐसे में बच्चों का विकास रुक गया है. वे तेजी से तनाव के शिकार होने लगे हैं.
शरीर ही नहीं मन भी प्रभावित
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉ लीना नारायण कहती हैं कि आउटडोर गेम न खेल पाने की वजह से बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर तो हो ही रहे हैं. साथ ही उनका मन भी कमजोर होने लगा है. मानसिक कमजोरी की बात करें, तो उनमें सामाजिक ताना-बाना समझने की क्षमता समाप्त होने लगी है. इसके अतिरिक्त उनमें अपनी बातों को शेयर करने, भावना और परिस्थितियों को बरदाश्त करने की क्षमता भी कम हो गयी है. वहीं बच्चों में ओबेसिटी के साथ-साथ डायबिटिज व अन्य लाइफ स्टाइल समस्याएं देखने को मिल रही है.
फैंटेसी को समझ रहे रियालिटी
चाइल्ड साइकोलॉजी के क्षेत्र में काम रहे एक्सपर्ट बताते हैं कि पांच साल के टीनएज ग्रुप के बच्चों में वे तमाम तरह की समस्याएं देखने को मिल रही हैं, जिनकी उम्मीद आज से तीन से पांच साल पहले तक नहीं की जा सकती थी. जहां माेबाइल व एलइडी स्क्रीन पर घंटों नजर जमाये रहने की वजह से आंखें कमजोर होने लगी हैं, वहीं बच्चे फैंटेसी की दुनिया में खुद को रखने लगे हैं. वीडियो गेम्स का सबसे ज्यादा असर आठ से 12 साल के बच्चों में हो रहा है. सुपर हीरोज व फाइटर कैरेक्टर देख-देख कर उनमें गुस्सा बढ़ने लगा है. अब तो पैरेंट्स भी बच्चों के एंगर मैनेजमेंट के लिए क्लिनिक पहुंचने लगे हैं. उन्हें साइकोलॉजिकल काउंसलिंग की जरूरत पड़ने लगी है.
केस स्टडी
वीडियो गेम ने स्कूल बदलवाया
राजधानी के पॉश इलाकों में एक अशोक नगर रोड नंबर चार में अशोक श्रीवास्तव व अरुणा श्रीवास्तव रहते हैं. अशोक जहां मार्केटिंग फिल्ड में कार्यरत हैं. वहीं अरुणा शहर के प्रतिष्ठित स्कूल ग्रुप के एक स्कूल में शिक्षिका हैं. इनकी 11 साल की बेटी एक काॅन्वेंट स्कूल में पढ़ाई कर रही थी. पिछले एक साल से वे अपनी बेटी को साइकोलॉजिस्ट के पास लेकर जा रहे हैं. बेटी का इलाज कर रहे डॉ बताते हैं कि उक्त लड़की एंगर मैनेजमेंट के लिए मेरे पास आती है.
अशोक श्रीवास्तव व अरुणा श्रीवास्तव कहते हैं कि इलाज से पहले इसके स्कूल से लगभग हर तीसरे दिन बेटी की लड़ाई करने की शिकायत आती थी. चिकित्सक से संपर्क करने के बाद पता चला कि बेटी सुपर हीरोज की फैंटेसी दुनिया में रहती थी. उसे लगता था कि उसके पास ऐसी शक्ति है, जिसकी वजह से वह कुछ भी कर सकती है. स्कूल से रोज-रोज आ रही शिकायत की वजह से उसका दूसरे स्कूल में नाम लिखवाना पड़ा.
बच्चों की दिनचर्या
जीवन बेहतर बनाना है, तो बच्चों का बचपन लौटाना होगा
आर्यन छठी कक्षा में पढ़ता है़ उम्र महज 10 से 11 के बीच होगी़ खेलने-कूदने की उम्र, मुस्कान भरे जीवन के पल़ घर के आंगन से स्कूल तक चहलकदमी. छोटी-मोटी शरारत के साथ कुछ सीख लेने का समय. लेकिन नन्हा आर्यन अभी से पढ़ाई-लिखाई और परफॉर्म करने की परेशानियों से रू-ब-रू है़
अभी सुबह पांच बजे जग जाना़ 5़ 45 बजे तक स्कूल जाने के लिए बस स्टाॅप पर पहुंचना़ गरमी के मौसम में स्कूल 6़ 15 बजे से शुरू है़ बस से अहले सुबह स्कूल पहुंचने के लिए छह किमी की यात्रा़ स्कूल में पढ़ाई का प्रेशर. एक दिन में पांच से सात क्लास़ बस्ते के बोझ तले दबा बचपन. तपती दोपहर में करीब एक बजे स्कूल से वापसी़ घर वापस पहुंच कर थोड़ा आराम किया नहीं कि ट्यूशन का समय हो गया़
दो बजे से घर वालों ने प्राइवेट ट्यूशन लगा दिया है़ दो से चार बजे का समय ट्यूशन पढ़ने में गुजर गया. सुबह पांच बजे उठने के बाद से इस बच्चे को सांस लेने की फुर्सत नहीं. थकावट ऐसी कि चाह कर भी मैदान में खेलने के लिए जाने की हिम्मत नहीं होती़ घर से एक किमी दूर मैदान ले जाने के लिए घर वालों की भी फुर्सत नहीं. स्कूल से लेकर प्राइवेट ट्यूशन के होमवर्क का टेंशन शाम छह बजे से शुरू़ मन मार कर आर्यन फिर बैठ गया पढ़ने़ किसी तरह रात नौ बजे किताबों के संग काटी़ होमवर्क कभी पूरा किया, कभी भारी मन से आधे-अधूरे छोड़ दिया़ चंद घंटे टीवी या फिर मोबाइल फोन पर गेम के साथ थोड़ी खुशी बटोर ली़ रात का खाना खाने का मन नही़
मां ने जिद्द की, तो किसी तरह एक-दो रोटी निगल ली. बिस्तर पर कब गया, कौन ले गया, बेखबर. कब नींद आयी, मालूम नहीं. अगले दिन फिर वहीं जिंदगी़ ऐसे मानसिक दबाव के बीच हमारे बच्चे पल रहे हैं. परीक्षाओं में बेहतर अंक लाने, 90 प्रतिशत पार करने के चक्कर में बचपन तबाह है़ जीवन की बड़ी पारी बाकी है, लेकिन बचपन थक गया है़
जिंदगी की बड़ी मुश्किलों को पार करना है, उससे पहले ही बचपन भारी पड़ रहा है. आनेवाले कल ने आज के जीवन के रंग फीके कर दिये हैं. पढ़-लिख कर आगे निकलने की होड़ में बचपन का रास्ता ही परेशानियों से भर गया है़ आज ऐसी दिनचर्या सभी बच्चों की है़ जीवन बेहतर बनाना है, तो बच्चों का बचपन लौटाना होगा़
बाल मनोविज्ञान
शारीरिक और मानसिक बदलाव की उम्र में दबाव से
बढ़ रहा है बच्चों में तनाव
केस
शहर के एक निजी स्कूल में पढ़ाने वाली एक महिला शिक्षिका के बच्चे की स्कूल में ही पढ़नेवाली एक लड़की से दोस्ती है. शुरुआती दिनों में लड़का और लड़की दोनों के परिवारों को यह संबंध अच्छा लगता था. धीरे-धीरे यह संबंध दोस्ती से प्यार में बदल गया.
प्यार से शारीरिक रिश्ते तक की बात आ गयी. जब शारीरिक रिश्ते की बात आ गयी, तो दोनों परिवारों के बीच संबंध खराब हो गया. लड़का-लड़की को दूर रखने की कोशिश करने लगे. इसमें लड़के ने एक बार सुसाइड की कोशिश की. लड़की ने घर में खाना-पीना छोड़ दिया. इसका असर लड़की के परिवार वालों पर भी दिखने लगा. वे चिड़चिड़ा रहने लगे. किसी बात का सीधी तरह जवाब नहीं देते थे. अभी एक ही मनोचिकित्सक से लड़का और लड़की दोनों का इलाज चल रहा है. दोनों की काउंसलिंग हो रही है. रिश्ते की अहमियत बतायी जा रही है.
भारत सरकार द्वारा कराये गये मेंटल हेल्थ सर्वे में बताया गया है कि 13 से 17 साल के करीब 7.3 फीसदी युवाओं में मनोरोग के लक्षण पाये गये हैं. झारखंड में करीब 35 लाख इसी उम्र सीमा के हैं. सर्वे कहता है कि मानसिक रोग के लक्षण वालों में से करीब 3.4 फीसदी आत्महत्या का प्रयास करते हैं. मनोरोग के ज्यादातर लक्षण शहरी या ग्रामीण आबादी में नहीं है. करीब 13.5 फीसदी लक्षण अरबन मेट्रो में रहनेवाले युवाओं में पायी जाती है.
डॉ सिद्धार्थ बताते हैं कि युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है. समय सच्चाई समझने की है. बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत करने की जिम्मेदारी मां-बाप की है. यह बच्चों के मानसिक और शारीरिक बदलाव की उम्र होती है. पढ़ाई का दबाव होता है. 10वीं के बाद 12वीं में एडमिशन या 12वीं के बाद तकनीकी शिक्षा या अन्य शिक्षा का दबाव होता है. पुराने दोस्त छूटते हैं, नये दोस्त बनते हैं. स्थान बदलता है.
शरीर में कई तरह के परिवर्तन आते हैं. सभी बदलाव का असर बच्चों पर दिखता है. ऐसे समय में परिवार के सहयोग की जरूरत होती है. परिवार को बच्चों की क्षमता और रुचि को समझना होगा. परिवार को बच्चों के रिजल्ट के साथ-साथ पढ़ाई को भी समझना होगा. केवल एक तरफा दबाव देने से बच्चों की मनोस्थिति बिगड़ती है. तनाव बढ़ता है. लगातार तनाव कई तरह की गंभीर मानसिक बीमारी लेकर आती है. इससे बचने के लिए बच्चों को भी मानसिक रूप से मजबूत रहना होगा.
आठवीं कक्षा में पढ़नेवाले करीब 12-13 साल के एक किशोर का इलाज मनोचिकित्सक से चल रहा है. उसकी काउंसलिंग हो रही है. कुछ मेडिसिन भी दिये जा रहे हैं. उसका कहना है कि उसे कुछ याद नहीं रहता है. जो पढ़ता है, भूल जाता है. इस कारण घबराहट होती है.
धीरे-धीरे वह तनाव में रहने लगा. खेल में भी उसका मन नहीं लगने लगा. घर से निकलने का मन नहीं करता था. धीरे-धीरे भूख भी जाने लगी. शुरुआत में घर वाले उसे डांटते थे, लेकिन बाद में समझने लगे कि वह गंभीर तनाव में है. अभी करीब दो माह से वह शहर के मनोचिकित्सक डॉ सिद्धार्थ सिन्हा से इलाज करा रहा है. इलाज के दौरान ही पता चला कि परिवार लोअर सोशियो इकोनॉमी फैमिली (चार-पांच लाख सालाना) का है. उस पर परिवारवालों का दवाब वर्ग आठ से ही इंजीनियर बनाने का है. घर वाले पढ़ाई में होनेवाली परेशानी की नहीं, रिजल्ट की बात करते थे. इस दबाव में लड़का अपने आप को हेल्पलेस समझने लगा.
बच्चों से उम्मीद
अभिभावकों की महत्वकांक्षा से छिनता बचपन
उपभोक्तावाद के इस युग में बच्चों को चाहे जितनी खुशियां मिल जाये, उनका बचपन अब उनके पास नहीं रहा. तीन-चार साल का होते ही बच्चा अपने अभिभावकों की महत्वकांक्षा की गिरफ्त में होता है. करीब छह साल का मोहित अभी जिस स्कूल में पढ़ रहा है, उसकी कक्षाएं सुबह सात बजे शुरू होती है. कांके रोड में रहनेवाले मोहित की स्कूल बस सुबह छह बजे उसके घर के पास पहुंचती है. स्कूल जाने के लिए इस मासूम को हर रोज सुबह साढ़े पांच बजे उसकी मां नेहा जगा देती है.
वह पीठ पर करीब तीन किलो का बस्ता लिये तथा आंखें मलते स्कूल चला जाता है. इधर, स्कूल से लौटने पर शाम को भी मोहित की किस्मत में खेलना-कूदना नहीं लिखा. उसके घर के पास न तो कोई प्लेग्राउंड है अौर न ही इसके मम्मी-पापा उसे बाहर भेजना चाहते हैं. मोहित तो बस अपनी मम्मी के मोबाइल पर गेम्स खेलता है. स्कूल में रिजल्ट के लिए जब अभिभावकों को बुलाया जाता है, तो नेहा व कौशल के लिए वह जैसे न गुजरने वाला पल होता है.
दरअसल मोहित क्लास में फर्स्ट, सेकेंड या थर्ड नहीं आता. यह मोहित के मां-बाप के लिए बेहद शर्म की बात है. यह उदाहरण काफी है यह बताने के लिए अभिभावकों ने स्कूली शिक्षा को कैसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है. अभी तो मोहित पहली में ही पढ़ता है. यह तनाव पहले 10वीं फिर 12वीं बोर्ड तथा उसके बाद इंजीनियरिंग-मेडिकल के इंट्रेंस इग्जाम (प्रवेश परीक्षा) तक अपने चरम पर होगा. इससे पहले स्कूल से लौटकर वह सीधे कोचिंग के लिए निकलेगा. कोचिंग क्लास से थक कर लौटने के बाद उसे देर रात तक पढ़ना है.
आखिर आइआइटी में एडमिशन कैसे होगा. नेहा व कौशल अभिभावकों की उस प्रजाति से हैं, जो परीक्षा केंद्र में बच्चे के जाने के बाद वहीं गेट पर खड़े रहते हैं तथा परीक्षा देकर बच्चे के बाहर आते ही उसे अपनी गिरफ्त में लेकर फकीरी आंखों से पूछते हैं…एग्जाम कैसा गया…निकल जाअोगे न…पर यदि मोहित इस परीक्षा में सफल न हो सका? तो न जाने मोहित, नेहा या कौशल का क्या होगा. उनकी तो जिंदगी लूट जायेगी. उनके मन में बुरे विचार भी आ सकते हैं.
बच्चों पर दबाव
तनाव बन रहा है छात्रों की मौत की वजह
झारखंड में हर वर्ष 130 की मौत
पढ़ाई में कमजोर होने, परीक्षा में फेल होने और कम उम्र में प्रेम-प्रसंग में विफल होने की वजह से झारखंड में हर साल 130 से अधिक बच्चे मौत को गले लगा लेते हैं. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 में राज्य भर में कुल 835 लोगों ने आत्महत्या की थी. आत्महत्या करनेवालों में 138 बच्चे शामिल थे. इनमें 82 छात्र और 56 छात्राएं शामिल थे.
साफ है कि आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में 16.50 प्रतिशत छात्र-छात्राएं थे, जिनकी उम्र 14-20 साल के बीच थी. आंकड़ों के मुताबिक 138 में आधे से अधिक 93 छात्र-छात्राओं ने परीक्षा में फेल होने के कारण आत्महत्या की थी. इनमें 63 छात्र और 30 छात्राएं शामिल थीं. विशेषज्ञों के मुताबिक छात्राओं की तुलना में आत्महत्या करनेवाले छात्र की संख्या ज्यादा होने की वजह अभिभावकों का बेटों से ज्यादा उम्मीदें पालना है. आत्महत्या करनेवाले नाबालिगों में 29 छात्र और 16 छात्रा (कुल 45) कम उम्र में प्यार के चक्कर में पड़ गये और उसमें विफल रहने के कारण मौत को गले लगा लिया.
हाल की घटनाएं
01 जनवरी : बरियातू में इंटर की छात्रा ने आत्महत्या की.
19 जनवरी : कांके के बोड़ेया छात्रावास में 10वीं के छात्र (16 वर्ष) ने आत्महत्या कर ली.
04 फरवरी : सुखदेवगनगर के देवी मंडप रोड में छात्र (21 वर्ष) मनोज ने आत्महत्या कर ली.
06 फरवरी : लाल लाजपत राय स्कूल के 16 वर्षीय एक छात्र ने स्कूल में ही शरीर पर तेल छिड़क कर आग लगाकर आत्महत्या की कोशिश की.
16 फरवरी : बीआइटी के छात्र (21) ने आत्महत्या की.
22 फरवरी : कोकर में 20 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या की.
02 मार्च : लालपुर इलाके में गोल इंस्टीट्यूट की छात्रा ने आत्महत्या कर ली.
18 मार्च : कांटा टोली के नेताजी नगर में छात्र ने की आत्महत्या.
02 अप्रैल : धुर्वा में सातवीं कक्षा के 14 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या कर ली.