हमें अपने बच्चों का हौसला बढ़ाना है

परीक्षा के वक्त छात्रों को अवसाद और तनाव ज्यादा होता है रुक्मिणी बनर्जी निदेशक, असर सेंटर बच्चों को सपने देखने के लिए प्रेरित करना है. उनकी क्षमता को मजबूत करने के लिए साथ ही साथ हमें जोरदार प्रयास जारी रखना होगा. उनके रास्ते से रुकावटें हटाते हुए चलना होगा और उन्हें नयी और सार्थक दिशाएं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 3, 2017 8:47 AM
परीक्षा के वक्त छात्रों को अवसाद और तनाव ज्यादा होता है
रुक्मिणी बनर्जी निदेशक, असर सेंटर
बच्चों को सपने देखने के लिए प्रेरित करना है. उनकी क्षमता को मजबूत करने के लिए साथ ही साथ हमें जोरदार प्रयास जारी रखना होगा. उनके रास्ते से रुकावटें हटाते हुए चलना होगा और उन्हें नयी और सार्थक दिशाएं दिखानी होंगी. पढ़िए अंतिम कड़ी.
हाल में मैंने किसी को यह कहते हुए सुना कि “शिक्षा एक दोधारी तलवार की तरह है.” पहले यह बात कुछ अजीब लगी, पर कुछ देर तक गहराई से सोचने के बाद लगा कि यह वाकई सच है, खासतौर पर हिंदुस्तान की युवा पीढ़ी के संदर्भ में. अक्सर हम सब सुनते हैं कि परीक्षा के वक्त छात्रों को अवसाद और तनाव इतना होता है कि कई बच्चे आत्महत्या भी करने की कोशिश करते हैं. हम अखबार में पढ़ते हैं कि युवक हिंसात्मक या नकारात्मक कार्यों में शामिल हो रहे हैं. ये सब देख कर हमें सोचने की जरूरत है कि इस स्थिति में हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का क्या योगदान है?
स्कूली शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का एक बड़ा प्रभाव यह है कि न केवल 6-14 वर्ष की आयु वर्ग वाले लगभग सभी बच्चे स्कूल में नामांकित हैं, बल्कि अधिक से अधिक बच्चे अपना ज्यादा वर्ष स्कूल में बिता रहे हैं.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार दस साल पहले 1.2 करोड़ लड़के और लड़कियां आठवीं कक्षा तक पहुंचते थे. अब यह आंकड़ा 2.4 करोड़ तक पहुंच गया है. जब ये बच्चे ऊंची कक्षा तक पहुंचते हैं, तो साथ ही उनकी आकांक्षाएं भी बढ़ती हैं. मां-बाप को लगता है कि बेटे या बेटी का भविष्य में बेहतर जीवन, बेहतर काम और कमाई होनी चाहिए. उनके अनुसार शिक्षा ऐसे अवसरों का प्रवेश द्वार है.
छात्रों का भी यही मानना है कि मैं यहां तक आ गया हूं तो मेरा आगे का रास्ता भी सुनहरा ही होगा! क्या यह सच है? क्या आगे उन्हें बेहतर जिंदगी मिल जायेगी? शहरी और संपन्न घरों के बच्चों की परेशानियों के बारे में काफी चर्चा होती रहती है. अब हम जरा गांव की तरफ नजर डालते हैं. दस साल से ‘असर’ (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) हमें शिक्षा व्यस्था की स्थिति के बारे में बता रहा है. 95 प्रतिशत बच्चों का नाम स्कूल में दर्ज है, पर स्कूल में होने के बावजूद इनमें से बहुत से बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें अभी भी साधारण पाठ पढ़ने में, अपने मन की बात लिखने में और साधारण गणित करने में परेशानी होती है.
‘असर’ के दो उदाहरणों से यह बात और स्पष्ट हो जायेगी- तीसरी कक्षा के बारे में सोचिए. साधारणतः तीसरी की शिक्षिका, तीसरी की पाठ्यपुस्तक से पढ़ाती है. अगर ‘असर’ के मौजूदा आंकड़े देखें, तो औसतन ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के सिर्फ 25 प्रतिशत बच्चे, दूसरी कक्षा के पढ़ने के स्तर को पार कर पाये हैं.
मतलब चार में से सिर्फ एक बच्चा तीसरी के लिए ‘तैयार’ है. बाकी 75 प्रतिशत बच्चों को तीसरी कक्षा की पाठ्यपुस्तक से पढ़ाने से बहुत ज्यादा फायदा नहीं है. उन्हें बुनियादी/मूलभूत दक्षताओं को हासिल करने में मदद की जरूरत है.
‘असर’ से एक और उदाहरण- 2016 के आंकड़ों के अनुसार आठवीं कक्षा के 25 प्रतिशत छात्र अभी भी कक्षा 2 के स्तर के सरल पाठ नहीं पढ़ पा रहे हैं. गणित में करीब आधे बच्चे साधारण भाग के सवाल हल नहीं कर पा रहे हैं. आठ साल तक लगातार स्कूल में पढ़ने के बावजूद उनकी वर्तमान दक्षता प्राथमिक स्तर की भी नहीं है. इस स्थिति में लोग शिक्षा व्यस्था और देश के समाज की आलोचना क्यों न करें, पर अंत में बच्चे को ही दोषी समझा जाता है. क्यों, उसने बाकी बच्चों की तरह पढ़ाई नहीं की? इतनी दूर आने के बाद ऐसे बच्चों को जरूर यह महसूस होता है कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है.
आगे के जीवन की संभावनाओं को निर्धारित करने में किसका हाथ होता है? मेरे हिसाब से योगदान है आज की वास्तविकताओं का, युवा पीढ़ी के सामने उपलब्ध अवसरों का और उनके अपने व औरों की आकांक्षाओं का है. इन सब के बीच जब दूरी होती है, तो तनाव और परेशानियां पैदा होती हैं. बच्चों का भविष्य हमारी जिम्मेवारी है. यही हमारा सबसे महत्वपूर्ण काम है.
हमें अपने बच्चों का हौसला बढ़ाना है, उन्हें सपने देखने के लिए प्रेरित करना है, पर उनकी क्षमता को मजबूत करने के लिए साथ ही साथ हमें जोरदार प्रयास जारी रखना होगा. उनके रास्ते से रुकावटें हटाते हुए चलना होगा और उन्हें नयी और सार्थक दिशाएं दिखानी होंगी.

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