आधार के जटिल पेच : अनिवार्यता, निजता और सुरक्षा से जुड़े
आधार इतिहास की संभवतः सबसे महत्वाकांक्षी डिजिटल पहचान परियोजना है. सरकार द्वारा जल्दबाजी में पारित विधेयक में इसे उन सेवाओं और सब्सिडियों के लिए अनिवार्य बनाया गया है, जिन पर देश के संचित कोष से खर्च किया जाता है. लेकिन, सरकार अब इस विशिष्ट पहचान संख्या को कराधान को बेहतर करने के साथ यात्राओं और […]
आधार इतिहास की संभवतः सबसे महत्वाकांक्षी डिजिटल पहचान परियोजना है. सरकार द्वारा जल्दबाजी में पारित विधेयक में इसे उन सेवाओं और सब्सिडियों के लिए अनिवार्य बनाया गया है, जिन पर देश के संचित कोष से खर्च किया जाता है. लेकिन, सरकार अब इस विशिष्ट पहचान संख्या को कराधान को बेहतर करने के साथ यात्राओं और भुगतान में भी अनिवार्य बनाने पर आमादा है.
आधार को जरूरी बनाने, डाटा सुरक्षा और निजता के उल्लंघन जैसे प्रश्नों पर विभिन्न मामले अदालत में विचाराधीन हैं. इन बहसों के समुचित समाधान पर आधार का भविष्य टिका हुआ है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधार से जुड़े विभिन्न आयामों पर आधारितइन-दिनों की प्रस्तुति…
राजीव चंद्रशेखर
सांसद एवं उद्यमी
हाल ही में आधार के विषय में फिर से एक बहस छिड़ी है, जिसमें संसद में हुई वह चर्चा भी शामिल है, जो मेरे द्वारा शुरू की गयी थी. इसमें हिस्सा लेते हुए माननीय मंत्री ने जो कुछ कहा, उससे सहमति की बहुत सी बातें हैं. आधार की अवधारणा का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ था और यूपीए सरकार ने इस पर हजारों करोड़ रुपयों की सार्वजनिक राशि किसी जांच अथवा यहां तक कि किसी विधायी समर्थन के बगैर खर्च कर दी.
इसका श्रेय वर्तमान सरकार को है कि इसने आधार अथवा उसमें निवेशित इस बड़ी राशि को डूबने देने की बजाय उसे बचा लिया तथा उससे काम लिया. मैं सरकारी सब्सिडियों और लाभों की डिलीवरी के लिए एक व्यापक ढांचा खड़ा करने की सरकार की नीयत से पूरी तरह सहमत हूं तथा इसका समर्थन करता हूं. पर आधार के विषय में कुछ प्रश्न फिर भी शेष रह जाते हैं, जिनके समाधान आवश्यक हैं.
आधार डाटाबेस की प्रामाणिकता
मंत्री महोदय ने कहा कि आधार के अंतर्गत नामांकनों की संख्या 113 करोड़ अथवा देश की वयस्क जनसंख्या के 99 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुकी है. पर इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि आधार एक घटिया ढंग से सत्यापित किया गया डाटाबेस है.
अब जबकि सरकार में कुछ लोग यह सलाह दे रहे हैं कि इसके उपयोग को हवाई अड्डों में प्रवेश पाने, बैंक अकाउंट खोलने अथवा एक मतदाता बनने के लिए व्यक्तिगत पहचान के रूप में भी विस्तृत किया जाये, तो इस अहम तथ्य पर गौर करना जरूरी है कि आधार अधिनियम की धारा 3.3 भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को आधार के अंतर्गत की गयी प्रविष्टियां सत्यापित करने हेतु जिम्मेदार ठहराती है.
मगर यह अधिनियम 2016 में पारित किया गया, जबकि इसके पूर्व ही आधार के अंतर्गत 100 करोड़ (88 प्रतिशत) से भी अधिक प्रविष्टियां एक गैरमौजूद सत्यापन प्रक्रिया के जरिये संपन्न की जा चुकी थीं. अब, जब नकली आधार हासिल करने की अनेक रिपोर्टें आ चुकी हैं, अधिनियम की उपर्युक्त धारा के अनुपालन हेतु कुछ भी नहीं किया गया है.
हाल ही में दो पाकिस्तानी जासूसों की तरह यदि नकली आधार के इस्तेमाल से कोई आतंकी घटना होती है, तो उसके लिए आखिर जवाबदेह कौन होगा? यदि नकली आधार का इस्तेमाल कर नकली बैंक खाते के जरिये धनशोधन किया जाता है, तो उसका उत्तरदायित्व किस पर होगा? इस डाटाबेस की प्रामाणिकता की जवाबदेही के लिए ये प्रश्न अत्यंत अहम हैं.
यदि एक पहचान के रूप में आधार के इस्तेमाल के औचित्य के लिए सत्यापन की वैधानिक जिम्मेवारी का अनुपालन किया जाना है, तो फिर आधार में नकली प्रविष्टियों की समस्या का समाधान सीधे तौर पर एक ऑडिट तथा डाटाबेस के क्रमिक पुनर्सत्यापन के जरिये करना जरूरी है.
आधार की अनिवार्य प्रकृति
मंत्री महोदय का यह कहना सही है कि अधिनियम की धारा सात यह सुनिश्चित करती है कि आधार न होने की वजह से किसी भी व्यक्ति को किसी सब्सिडी अथवा सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता, पर कई सरकारी मंत्रालयों ने इस धारा का उल्लंघन करते हुए ऐसी अधिसूचनाएं जारी किया है, जो लाभ हासिल करने हेतु आधार को अनिवार्य बनाती हैं. इसके लिए वे प्रायः प्राधिकरण द्वारा जारी विनियमों, खासकर उसके विनियम 12 का सहारा लेते हैं, जो आधार अधिनियम की धारा सात के उल्लंघन को प्रोत्साहित करता है.
कई सालों तक यूआइडी प्राधिकरण कुछ कठिन प्रश्नों से बचता रहा है. मैं समझता हूं कि अब वह घड़ी आ गयी है, जब इसके विनियमों एवं कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए. मेरी समझ से इस हेतु संभवतः एक स्थायी संसदीय समिति का गठन एक सही समाधान होगा. अंततः आधार को ही वह एकमात्र दहलीज होना चाहिए, जिससे होकर असली जरूरतमंद भारतीयों तक उनके लिए निर्धारित सब्सिडियों एवं सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके. पर आधार को अनिवार्य तभी किया जाना चाहिए, जब यह सुनिश्चित कर लिया जाये कि हकदार लाभुकों को छूटने से बचाने हेतु सभी जरूरी शर्तें पूरी कर ली गयी हैं.
निजता तथा सरकारी निगरानी का भय
निजता तथा डाटा सुरक्षा के मुद्दे पर मंत्री महोदय तथ्यों से बिलकुल कटे हुए थे. यह तो सामान्य जानकारी की चीज है कि डाटा की सुरक्षा का उल्लंघन हुआ ही है. इस विषय पर प्राधिकरण ने सोची-समझी चुप्पी साध रखी है, क्योंकि उसके लिए कुछ कहना अनिवार्य नहीं है. उसके विनियमों में इसके प्रावधान होने चाहिए, जो इसे अनिवार्य करें कि संस्था को अतीत एवं भविष्य के डाटा सुरक्षा उल्लंघन के सभी मामले रिपोर्ट करने होंगे.
मैं इससे तो सहमत हूं कि राज्य द्वारा निगरानी का भय गलत है, पर यह चिंता इस तथ्य से निकलती है कि यूजर डाटा की एक विराट मात्रा यूआइडीएआइ तथा सरकारी महकमों के पास इकठ्ठा है, जबकि इसके दुरुपयोग को लेकर उनकी कोई भी जवाबदेही तय नहीं है.
ये चिंताएं वास्तविक हैं और इनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. इसके साक्ष्य मौजूद हैं कि नामांकन एजेंसी अथवा दूसरे स्रोतों के जरिये आधार रिकॉर्ड आसानी से उपलब्ध हैं. ऐसे भय केवल तभी समाप्त किये जा सकते हैं जब यूआइडीएआइ अथवा सरकार स्पष्ट और सार्वजनिक सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करे. दुर्भाग्य से आधार अधिनियम तथा विनियम यूआइडीएआइ पर इस संबंध में कोई भी जवाबदेही नहीं डालते और अधिनियम की धारा तीन तथा अध्याय छह- जो नागरिकों के डाटा के सत्यापन और सुरक्षा की जरूरत को रेखांकित करते हैं- के उल्लंघन के मामले में यूआइडीएआइ या उसके कर्मियों के दायित्व पर वे चुप हैं.
मंत्री महोदय बराबर कह रहे हैं कि आइटी तथा आधार अधिनियम के अंतर्गत पर्याप्त सुरक्षा के प्रावधान हैं, पर वे गलत हैं. नागरिकों को उपलब्ध सुरक्षा उनके पक्ष में झुकी है जिनके पास डाटा है और वह न्याय हासिल करने की दिशा में नागरिक पर असाधारण बोझ डालती है.
निजता का मामला एक व्यापक मुद्दा है, जो आधार के आगे जाता है. यह हमारे जीवन तथा हमारी अर्थव्यवस्था के तेज डिजिटलीकरण के इस युग में सरकार अथवा किसी अन्य एजेंसी जैसे हमारे डिजिटल पदचिह्नों के पहरुओं की भूमिका तथा दायित्व पर जायज सवाल खड़े करता है. यह एक अहम मामला है और यही वजह है कि इस पर इतने सारे लोग उत्तेजित हैं. इसे नजरअंदाज करने की बजाय मंत्री महोदय के लिए बेहतर यह होगा कि वे एक वास्तविक संवाद की शुरुआत करें. आधार के बहुत सारे दोष दूर किये जाने के बाद भी, उसके साथ कुछ मुद्दे शेष रह गये हैं. हम उन्हें भी संबोधित करें.(अनुवाद: विजय नंदन)
कितना सुरक्षित है आधार कार्ड?
निजता और गोपनीयता से जुड़े तमाम सवालों के बीच आधार कार्ड की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है. सर्वोच्च न्यायालय में एक अधिवक्ता की यह दलील कि ‘मेरी उंगलियों और आंखों की पुतलियों पर मेरे सिवाय किसी और का हक नहीं हो सकता और सरकार इसे मेरे शरीर से अलग नहीं कर सकती’ के बाद सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी को बचाव करना पड़ा. रोहतगी के अनुसार, ‘आपको अपने शरीर पर पूरा अधिकार है, लेकिन सरकार आपके अंगों को बेचने से रोक सकती है. यानी सरकार आपके बायोमीट्रिक डाटा संग्रह पर अपना नियंत्रण रख सकती है.
आधार कार्ड पर चिंताएंं
सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर आधार से जुड़े कानून को चुनौती दी गयी है. नये नियमों के अनुसार इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करने के लिए आधार को अनिवार्य कर दिया गया है. व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करने और धोखाधड़ी रोकने के लिए सरकार आधार को इनकम टैक्स रिटर्न्स से जोड़ना चाहती है. आम नागरिकों को 12 अंकों की दी जानेवाली इस पहचान संख्या से अब तक देश की 90 फीसदी आबादी को जोड़ा चुका है. इस प्रकार सरकार एक अरब से ज्यादा लोगों के उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के निशान इकट्ठा कर चुकी है.
आधार से जोड़ने की व्यापक मुहिम
हाल के दिनों में केंद्र सरकार ने 50 से ज्यादा योजनाओं और सार्वजनिक सुविधाओं के लिए आधार को अनिवार्य कर दिया है. एक नये आदेश के तहत आयकर भरने के लिए पैन कार्ड को आधार से जोड़ने की अनिवार्यता कर दी गयी है. आधार से नहीं जोड़ने पर पैन को निरस्त कर दिया जायेगा. साथ ही पैन बनवाने के लिए भी आधार जरूरी कर दिया है. सर्वोच्च न्यायालय में सरकार अपनी दलील में कहती है कि आधार की मदद से फर्जी पैन नंबरों को पकड़ने में आसानी होगी.
13 करोड़ लोगों के आधार नंबर
हो चुके हैं लीक
सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, साइबर सुरक्षा के व्यापक प्रबंध नहीं होने की वजह से विभिन्न सरकारी पोर्टल्स से अब तक 13 करोड़ लोगों के आधार नंबर और 10 करोड़ लोगों के बैंक खाता विवरण लीक हो चुके हैं.
द आधार (टारगेटेड डिलीवरी ऑफ फाइनेंशियल एंड अदर सब्सिडीज, बेनिफिट एंड सर्विसेज), एक्ट, 2016
लोकसभा में 3 मार्च, 2016 को केंद्रीय वित्तमंत्री द्वारा आधार विधेयक पेश किया गया. संसद द्वारा मंजूर इस विधेयक का उद्देश्य भारत में रहनेवालों के लिए आधार संख्या की मदद से सब्सिडी और सेवाओं को मुहैया कराना है.
सूचनाओं को प्रदान करना : आधार नंबर प्राप्त करने के लिए (1) बायोमीट्रिक (फोटोग्राफ, उंगलियों चिह्न और पुतलियों के निशान) (2) जनांकिक सूचनाओं (नाम, जन्मतिथि और पता) को देना होता है. नियमों के अनुसार यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (यूआइडी) अन्य बायोमीट्रिक और जनांकिक सूचनाओं को इकट्ठा कर सकती है. सूचनाओं के सत्यापन के बाद आधार नंबर जारी कर दिया जाता है.
आधार का इस्तेमाल : सब्सिडी या सरकारी सेवाओं को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति की पहचान के लिए सरकार आधार नंबर मांग सकती है. यदि आधार नंबर नहीं है, तो सरकार उक्त व्यक्ति के लिए आधार मुहैया करायेगी.
इस स्थिति में पहचान के लिए अन्य विकल्प को चुना जा सकता है. कोई भी सार्वजनिक या निजी क्षेत्र की संस्था किसी भी उद्देश्य के लिए आधार को पहचान के रूप में इस्तेमाल कर सकती है. आधार नंबर इस्तेमाल नागरिकता या आवास के सत्यापन के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
गोपनीयता का संरक्षण : बायोमीट्रिक सूचनाओं जैसे- उंगलियों और पुतलियों की छाप या अन्य जैविक सूचनाओं का इस्तेमाल आधार पंजीकरण और सत्यापन के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जायेगा. तय नियमों के इतर सूचनाओं को कभी भी किसी के साथ या सार्वजनिक रूप से साझा नहीं किया जायेगा.
कैसे सूचनाओं का किया जा सकता है खुलासा : (1)- राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला आने पर केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव आधार नंबर, बायोमीट्रिक सूचनाओं, जनांकिक सूचनाओं और फोटोग्राफ के खुलासे के लिए दिशा-निर्देश जारी कर सकते हैं.
(2)- न्यायालय के आदेश पर किसी व्यक्ति विशेष के आधार नंबर, फोटोग्राफ और जनांकिक सूचनाओं का खुलासा किया जा सकता है.
अपराध और दंड के प्रावधान : केंद्रीयकृत डाटा बेस से किसी भी प्रकार की सूचनाओं का अनाधिकारिक रूप से खुलासा करने के दोषी को तीन वर्ष के कारावास और 10 लाख रुपये का जुर्माना हो सकता है. यदि याचिकाकर्ता और पंजीकर्ता एजेंसी नियमों का अनुपालन करने में असफल रहती है, तो एक वर्ष कारावास या एक लाख का जुर्माना या दोनों हो सकता है.
अपराध का संज्ञान : यूआइडी अथॉरिटी या इसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की शिकायत के बगैर कोई भी न्यायालय किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है.
मौलिक अधिकारों से टकराती आधार परियोजना
डॉ गोपाल कृष्ण
लोकनीति विश्लेषक
बायोमेट्रिक आधार संख्या परियोजना के लागू होने के लगभग दो साल बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश केएस पुट्टास्वामी ने इसके खिलाफ शुरुआती याचिका सर्वोच्च न्यायालय में 2012 में दायर की थी. आज की तारीख में आधार के खिलाफ लगभग पंद्रह मामले विचाराधीन है.
वित्तीय मामलों की संसदीय समिति ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में बताया है कि एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है, जिसका देश के 130 करोड़ लोगों को भुगतान करना पड़ेगा. फरवरी, 2009 से फरवरी, 2017 तक आधार प्राधिकरण ने कुल 8,536.83 करोड़ रुपये खर्च किये हैं. सरकार ने आज तक परियोजना के कुल अनुमानित खर्चे का खुलासा नहीं किया है. मगर यूपीए की तरह ही एनडीए सरकार भी इस योजना को पूरा करने के लिए इस कदर आतुर है कि वह अदालत, संसद और संविधान की अवमानना करने से भी नहीं चूक रही है.
निजता का मौलिक अधिकार और आधार के खिलाफ मुकदमा
अटॉर्नी जनरल के कहने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चेलामेस्वर की अध्यक्षतावाली तीन जजों की एक पीठ ने 11 अगस्त, 2015 को बायोमेट्रिक अनूठा पहचान/आधार संख्या मामले की सुनवाई को बीच में ही रोक कर संविधान पीठ को सुपुर्द कर दिया था. क्योंकि अटॉर्नी जनरल ने यह तर्क रखा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं, इस बारे में केवल सक्षम संविधान पीठ ही सुनवाई कर सकती है.
हालांकि, अटॉर्नी जनरल को आधार मामले में इसी पीठ के पास कुछ आदेश लेने के लिए जाना पड़ा था, मगर इस पीठ ने उनको सुनने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि इसकी सुनवाई केवल संविधान पीठ ही कर सकती है. ऐसे में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने अटॉर्नी जनरल को कुछ मिनट सुनने के लिए अपनी अध्यक्षता में पांच जजों के संविधान पीठ का गठन कर 15 अक्तूबर, 2015 को आदेश देते हुए अगले प्रधान न्यायाधीश से ‘त्वरित’ सुनवाई के लिए एक नया संविधान पीठ गठन का अनुरोध किया था.
अगले प्रधान न्यायाधीश का कार्यकाल शुरू हुआ और समाप्त भी हो गया. मौजूदा प्रधान न्यायाधीश के कार्यकाल के भी चार महीने बीत चुके हैं, लेकिन संविधान पीठ का गठन अभी तय नहीं है. इनका कार्यकाल जुलाई में समाप्त हो जायेगा. ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि संविधान पीठ का गठन अब अगले प्रधान न्यायाधीश ही करेंगे. आधार की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाले लगभग सारे मामले उच्च न्यायालयों से स्थानांतरित होकर सर्वोच्च न्यायालय में आ गये है, मगर सुनवाई नहीं हो पा रही है.
गौरतलब है कि 15 अक्तूबर, 2015 के आदेश के बाद सरकार ने आधार विधेयक, 2010 को राज्यसभा से 3 मार्च, 2016 को वापस ले लिया और आधार विधेयक, 2016 को धन विधेयक के रूप में लोकसभा में लाकर और पारित करा कर राज्यसभा को अप्रासंगिक कर दिया. आधार कानून, 2016 को 12 सितंबर, 2016 को लागू करने के लिए अधिसूचना जारी कर दी गयी. इसके दो दिन बाद सितंबर 14, 2016 को एक खंडपीठ ने पांच जजों के संविधान पीठ के 15 अक्तूबर, 2015 के आदेश को सातवीं बार यह कहते हुए दोहराया कि यूआइडी/आधार संख्या किसी भी कार्य के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है.
मेजर जनरल, सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता और केरल के पूर्व मंत्री का मुकदमा
इसके बाद वित्त कानून, 2017 को धन विधेयक के रूप में लाकर और राज्यसभा को एक बार फिर अप्रासंगिक बना कर पैन कार्ड को आधार से जोड़ने और आधार को अनिवार्य किया गया है. मगर, इसी बीच मूल आधार मामले की सुनवाई से हट कर आधार संख्या को पैन से जोड़ने और अनिवार्य करने के खिलाफ पूर्व मेजर जनरल सुधीर वोंबात्केरे, सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेज्वाड़ा विल्सन व केरल के पूर्व मंत्री बिनोय विस्वम ने मुकदमा दायर कर दिया. खंडपीठ के सामने सरकार और याचिकाकर्ताओं की तरफ से अपना पक्ष रख दिया गया है.
बहस की शुरुआत में अटॉर्नी जनरल ने यह कह कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की कि आधार को चुनौती निजता के अधिकार के हनन से जुड़ा है और वह मामला संविधान पीठ के पास लंबित है. याचिकाकर्ताओं के तरफ से यह कहने के बाद कि वे निजता के अधिकार के ऊपर बहस नहीं करेंगे, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता), 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) और 21 (जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के उल्लंघन के संबंध में बात रखेंगे, सुनवाई आगे बढ़ी.
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि आधार के कारण सरकार और नागरिक के बीच के रिश्ते में मूलभूत बदलाव हो जायेगा. इससे हमारी निजी स्वायत्तता नष्ट हो जायेगी. सरकार मनमाने ढंग से आधार को कभी स्वैच्छिक, तो कभी अनिवार्य कहती रहती है और कभी तो यह भी कह देती है कि दोनों का अर्थ एक ही है. अब तो वह शब्दों में मनचाहे अर्थ भी भरने लगी है. याचिकाकर्ताओं की यह भी दलील है कि संविधान गुलामी का दस्तावेज नहीं है और सरकार के पास नागरिकों के शरीर पर कोई विशेषाधिकार नहीं है.
सरकार की तरफ से संसद द्वारा पारित कानूनों का हवाला देकर कहा गया कि उनके पास ये सारे अधिकार हैं, इसीलिए वह ऐसा कर रही है.
उन्होंने लोकनीति फाउंडेशन मामले में दिये गये दो सदस्यीय पीठ द्वारा छह फरवरी, 2017 को दिये गये आदेश का जिक्र किया गया, जो कि इस मामले में अप्रासंगिक है, क्योंकि इस आदेश में अटॉर्नी जनरल ने खुद शपथ पत्र दाखिल किया था कि आधार अनिवार्य नहीं है. इस तथ्य का इस आदेश में भी जिक्र है. वैसे भी पांच जजों के संविधान पीठ के आदेश को दो जजों का पीठ बदल नहीं सकता है. वह उससे केवल सहमति जता सकता है. यही गलती कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राज्यसभा में 10 अप्रैल को किया और संचार मंत्रालय ने 23 मार्च, 2017 के एक विज्ञप्ति में भी किया है. ऐसा करके सरकार ने यही प्रदर्शित किया है कि उनका संवैधानिक और कानूनी पक्ष बहुत कमजोर है.
इत्तेफाक की बात है कि लगभग चार साल पहले न्यायमूर्ति सिकरी ने पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में आधार को अनिवार्य बनाने के एक मामले की सुनवाई कर चुके हैं. उस मामले में केंद्र शासित चंडीगढ़ प्रशासन ने निर्णय से पहले ही आधार को अनिवार्य बनानेवाले अपने आदेश को वापस ले लिया था. उन्होंने यह कह कर मामले को खारिज कर दिया था कि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. अदालत ने चार मई की आखिरी सुनवाई के पश्चात निर्णय को सुरक्षित रख लिया है.
आधार मतलब संवेदनशील
सूचना का व्यापार
सूचना अधिकार कानून के तहत यह जानकारी मिल चुकी है कि सरकार ने अमेरिका की अक्सेंचर, फ्रांस की साफ्रान और ब्रिटेन की अर्न्स्ट एंड यंग जैसी कंपनियों के साथ समझौता कर लिया है, जिसके मुताबिक वर्तमान और भविष्य के देशवासियों की संवेदनशील सूचना इनके पास सात साल तक रह सकती है. इलेक्ट्रॉनिक युग में सात साल या सात मिनट तक किसी को सूचना उपलब्ध करने का मतलब हमेशा के लिए उपलब्ध कराना होता है. कुछ सियासी दल रोना रो रहे है कि आधार संबंधित ठेका और हिस्सेदारी का बंटवारा हो चुका है, अब क्या करें.
ऐसा लगता है जैसे ठेका और कानून व संविधान के बीच जब टकराव होगा, तो ठेका सब पर भारी पड़ेगा. अधिकतर राज्य सरकारों की चुप्पी से फिलहाल तो ऐसा ही दिख रहा है. वे इस बात से अनभिज्ञ होने का स्वांग रच रहे हैं कि ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, फिलीपींस, अमेरिका जैसे कई देशों ने अपने देश और देशवासियों के अधिकारों की सुरक्षा और सम्मान का हवाला देकर ऐसी विशिष्ट पहचान परियोजना को खारिज कर चुके हैं. दरअसल, बहुत बड़ी अनहोनी को खुलेआम अंजाम दिया जा रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि लोग खामोश क्यों हैं?