हिंदी संगीत-सिनेमा पर ठाकुर का प्रभाव
साहित्य और संगीत के प्रति सृजनशीलता और विलक्षणता आज भी रवींद्रनाथ ठाकुर को लोकप्रियता के शिखर पर बरकरार रखे हुए है़ उनकी साहित्य साधना का प्रभाव मात्र बांग्ला तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि हिंदी के मूर्धन्य संगीतकारों और साहित्यकारों की रचनाओं पर स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होता है़ साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित […]
साहित्य और संगीत के प्रति सृजनशीलता और विलक्षणता आज भी रवींद्रनाथ ठाकुर को लोकप्रियता के शिखर पर बरकरार रखे हुए है़ उनकी साहित्य साधना का प्रभाव मात्र बांग्ला तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि हिंदी के मूर्धन्य संगीतकारों और साहित्यकारों की रचनाओं पर स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होता है़ साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ठाकुर की जयंती के अवसर पर उनकी सृजनात्मकता को समर्पित विशेष प्रस्तुति…
अभिजीत राय, स्वतंत्र िटप्पणीकार
हिंदी फिल्में बंगला साहित्य और संगीत से सदैव प्रभावित रही हैं. बंगला भाषा के तमाम बड़े लेखकों की रचनाओं पर हिंदी में कई फिल्में बनी हैं और वह बॉक्स आॅफिस पर बेहद कामयाब भी रही हैं. इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस मामले में भारत चंद्र चटर्जी की कहानी कुछ ज्यादा ही कामयाब रही है. प्रथम भारतीय के तौर पर साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी पर हिंदी में जरूर कम ही फिल्में बनीं, लेकिन उनके द्वारा सृजित गानों की धुनों का हिंदी फिल्मों में भरपूर उपयोग हुआ है. यह बताने की जरूरत नहीं कि वे सारे गाने उस जमाने में काफी लोकप्रिय भी हुए. इसमें सबसे आश्चर्य की बात यह है कि रवींद्र संगीत का उपयोग जितना बंगाल से आने वाले संगीत निर्देशकों ने किया, उतना ही गैर-बंगाली संगीत निर्देशकों ने भी किया. संगीतकार नौशाद ने फिल्म ‘दीदार’ के लोकप्रिय गीत ‘मेरे बचपन के दिन भुला न देना’ की धुन मूलत: ठाकुर के ‘मोने रॉबे कि ना रॉबे आमाके’ के आधार पर तैयार किया था.
संगीत के जानकार बताते हैं कि बंगाल का रवींद्र संगीत एक ऐसा पैकेज है, जिसमें सारे नौ रसों का समावेश है. हिंदी सिनेमा में रवींद्र संगीत का प्रथम प्रयोग करने का श्रेय संगीतकार पंकज कुमार मल्लिक को जाता है. वर्ष 1941 में रिलीज ‘डाक्टर’ में उन्होंने पहली बार रवींद्र संगीत का उपयोग किया. पंकज मल्लिक हिंदी सिने संगीत जगत के पहले संगीतकार हुए, जिन्होंने कुंदनलाल सहगल से बंगला में रवींद्र संगीत का एलबम रिकार्ड कराया. यह एलबम भारतीय संगीत के इतिहास में किसी गैर-बंगाली कलाकार द्वारा गाया गया पहला रवींद्र संगीत गायन है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि केएल सहगल ने रवींद्र संगीत के साथ पूरा न्याय किया और उनके रिकार्ड को सुन कर यह कहीं नहीं लगा कि यह गायन किसी गैर-बंगाली कलाकार का है. पंकज कुमार मल्लिक द्वारा संगीत निर्देशित एक दूसरी फिल्म ‘जलजला’ के एक गीत ‘पवन चले जोर’ भी रवींद्र संगीत ‘खरोवायु वायु मेघे’ पर आधारित है. इसी फिल्म का एक दूसरा गीत ‘मुझे वह देखकर’ रवींद्र संगीत ‘बाहिर पथे बिबागी हीया’ पर आधारित है.
नैन दीवाने इक नहीं माने
बंगाली समुदाय में अति लोकप्रिय संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन ने बतौर गायक भले ही एक भी रवींद्र संगीत नहीं गाया हो, लेकिन एक संगीतकार के तौर पर उन्होंने जीवन पर्यंत रवींद्र संगीत का प्रयोग अपने फिल्मी गानों में करते रहे हैं. वर्ष 1947 में बनी ‘दो भाई’ फिल्म में पहली बार रवींद्र संगीत का इस्तेमाल किया गया. फिल्म के सबसे लोकप्रिय गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’ की धुन मूलत: रवींद्र संगीत ही है. गीता दत्त की आवाज में रिकार्ड की गयी यह गीत ‘ओ जे माने ना माने ना’ से प्रेरित है. यह अलग बात है कि इस गीत ने गायिका गीता दत्त की जीवनगाथा का वर्णन किया है.
इसके बाद सचिन दा ने देव आनंद की नवकेतन प्रोडक्शंस की पहली फिल्म ‘अफसर’ (1950) के एक लोकप्रिय गीत ‘नैन दीवाने इक नहीं माने’ को रवींद्र संगीत ‘भोइ दिन दू जोने दुलेछिनु वोने’ की धुन से प्रेरित होकर बनाया था. इस गीत को अभिनेत्री सुरैया ने गाया था. बताया जाता है कि सुरैया ने गाने के साथ न्याय करने के उद्देश्य से रिकार्डिंग से पहले लंबे समय तक रिहर्सल किया. सुरैया हिंदी सिनेमा की उन चंद प्रतिभावान अभिनेत्रियों में शामिल थीं, जिन्होंने अपनी फिल्मों के गाने खुद अपनी आवाज में ही गाये.
राही मतवाले
इस बीच एक अन्य बंगाली संगीत निर्देशक अनिल विश्वास ने फिल्म ‘वारिस’ (1954) के लिए तलत महमूद और सुरैया की आवाज में जो ‘राही मतवाले’ गीत रिकार्ड किये, वह भी रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित ‘ओरे गृहवासी’ से प्रेरित था. अनिल विश्वास ने एक दूसरी फिल्म ‘अंगुलीमाल’ के एक गीत ‘मेरे चंचल नैना’ मूल रूप से रवींद्रनाथ के मधु गंधे भरा गीत के आधार पर तैयार किया था. उन्होंने फिल्म ‘हमदर्द’ के एक गीत ‘मेरे मन की धड़कन’ को रवींद्रनाथ के लोकप्रिय गीत ‘मम चित्ते निती गित्ते’ की धुन पर तैयार किया.
जलते हैं जिनके लिए
इसी वर्ष नवकेतन की दूसरी फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ के एक लोकप्रिय गीत ‘जाये तो जाये कहां’ के लिए दादा बर्मन ने रवींद्र संगीत ओ क्षणिकेर अतिथि की धुन का प्रयोग किया. इस गीत को तलत महमूद और लता मंगेशकर की आवाज में अलग–अलग रिकार्ड किया गया, लेकिन जितनी लोकप्रियता तलत महमूद वाले संस्करण को मिली, उतनी लता वाले गीत को नहीं मिली. जानकारों को मालूम होगा कि इस फिल्म के संगीत के लिए एसडी बर्मन को उनके करियर का पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला था. फिल्मकार विमल राय की बहुचर्चित फिल्म ‘सुजाता’ में संगीतकार सचिन देव बर्मन द्वारा तलत महमूद की आवाज में रिकार्ड की गयी लोकप्रिय गीत ‘जलते हैं जिनके लिए’ भी रवींद्र संगीत ‘एकोदा तुमी प्रिये’ पर आधारित है.
तेरे मेरे मिलन की ये रैना
देव आनंद के प्रोडक्शन कंपनी की एक अन्य फिल्म ‘हाउस नं 44’ के एक गीत ‘तेरी दुनिया में जीने से’ की धुन भी मूल रूप से ‘दखिन हवा जागो जागो’ से प्रेरित है. सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में बनी ‘शर्मीली’ का लोकप्रिय गीत ‘मेघा छाये आधी रात बैरन बन गयी नींदिया’ का एक अंतरा रवींद्र संगीत ‘लहो लहो तुले लहो’ पर आधारित है. ऋषिकेश मुखर्जी की बहुचर्चित फिल्म ‘अभिमान’ के सबसे लोकप्रिय गीत ‘तेरे मेरे मिलन की ये रैना’ भी मूल रूप से ठाकुर की ‘योदि तारे नाइ चिनी गो सेकी’ का सीधा हिंदी रूपांतरण है. इस फिल्म के संगीत के लिए भी सचिन दा को वर्ष 1975 का फिल्म फेयर अवार्ड मिला था. उन्होंने एक अन्य फिल्म ‘मधभरे नैन’ में भी रवींद्र संगीत पर आधारित एक गाना बनाया, जिसका शीर्षक है ‘लेके जीया पिया कहां जाओगे.’ इस गीत का मूल है ठाकुर की एक अन्यान्य कृति ‘आमार प्राणेर माझे सुधा आछे.’
छोटी सी एक कली खिली थी
सचिन देव बर्मन के होनहार वीरवान पुत्र राहुल देव बर्मन ने भी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘जुर्माना’ के एक गीत ‘छोटी सी एक कली खिली थी’ को रवींद्रनाथ ठाकुर के लोकप्रिय गीत ‘बसंते फूल गांथलो’ के आधार पर तैयार किया था. पंचम की एक अन्य फिल्म ‘शौकीन’ के लोकप्रिय गीत ‘जब भी कोई कंगना बोले’ के दूसरे अंतरे के क्रॉस लाइन में ठाकुर की ‘ग्राम छाड़ा ओई रांगा माटीर पथ’ की धुन का इस्तेमाल किया.
पंचम ने फिल्म ‘आप की कसम’ के गीत जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं, जो मुकाम को ठाकुर की रचना ‘जागोरणे जाए बिभाबोरी’ के आधार पर तैयार किया था. माना जाता है कि उनकी अंतिम फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ के गाने जैसे ‘प्यार हुआ चुपके से’ यह सफर बहुत ही कठिन है, मगर कहीं-न-कहीं रवींद्र संगीत से प्रभावित नजर आता है. संगीतकार सलिल चौधरी ने रवींद्र संगीत का इस्तेमाल ‘बिराज बहू’ में किया. इस फिल्म के एक गीत ‘मेरी मन भुला भुला’ में ‘हृदयेर ए कूल ओ कूल’ की धुन का प्रयोग किया. बिमल राय की एक दूसरी फिल्म ‘प्रेम पत्र’ में सलिल चौधरी ने सावन की रातों में ऐसी गीत की धुन ठाकुर की ‘जेते जेते एकला पथे’ से प्रेरित था.
छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा
संगीतकार हेमंत कुमार ने अपनी प्रोडक्शन कंपनी गीतांजली की फिल्म ‘राहगीर’ के एक गीत ‘आओ दो दो पंख लगायें’ को ठाकुर की ‘तोमार खोला हवा के’ आधार पर तैयार किया था.
संगीतकार बप्पी लाहिरी के ‘टूटे खिलौने’ फिल्म के एक नन्हा सा पंछी रे तू बहुत बड़ा पिंजड़ा तेरा गीत रवींद्र संगीत ‘भेंगे मोर घरेर चाबी निये जाबी के आमारे’ पर आधारित है. इसी धुन पर संगीतकार कानू राय ने ‘उसकी कहानी’ फिल्म में ‘तेरा है जहां सारा अपना’ की तर्ज पर तैयार किया गया था. यह फिल्मकार बासु भट्टाचार्य की फिल्म है. उनकी एक अन्य फिल्म ‘अनुभव’ के लिए भी संगीत निर्देशक कानू राय ने रवींद्र संगीत आधारित धुन बनायी है.
रवींद्र संगीत के प्रयोग के मामले में संगीत निर्देशक राजेश रोशन भी दूसरे से कम नहीं हैं. अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘याराना’ का लोकप्रिय गीत ‘छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा’ का मूल धुन ठाकुर की ‘तोमार होलो शुरू आमार होलो शारा’ है. याराना के एक दशक बाद उन्होंने ‘युगपुरुष’ फिल्म में ‘बंधन खुला पंछी उड़ा’ गीत को ठाकुर की लोकप्रिय धुन ‘पागला हवा बादल दिने पागल आमार मोन गेये उठे’ का प्रयोग किया. रवींद्र संगीत का हिंदी फिल्मों में अब तक का अंतिम उपयोग संगीतकार शांतनु मौइत्र ने फिल्म परिणीता में किया.
पीयु बोले पीया बोले
फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा द्वारा निर्मित इस फिल्म के लोकप्रिय गीतों में से एक ‘पीयू बोले पिया बोले’ भी रवींद्र संगीत ‘फूले फूले ढूले ढूले’ पर आधारित है. वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि ठाकुर ने केवल हिंदी फिल्मों के संगीतकारों को ही प्रभावित नहीं किया, बल्कि गीतकारों को भी उन्होंने उतना ही प्रेरित किया. कवि प्रदीप द्वारा लिखित फिल्म ‘संबंध’ के लोकप्रिय गीत ‘चल अकेला चल अकेला’ मूल रूप से ठाकुर की ‘एकला चलो’ से प्रभावित है.
इस गीत की धुन ओपी नैयर ने बनायी है. गीतकार आनंद बक्शी ने फिल्म ‘इंसान’ के लिए एक गीत लिखा, जिसके बोल हैं ‘कोई न जब तेरा साथी हो ताे चल मेरे मन तू अकेला. इस गीत काे संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने तैयार किया है.
फिल्मों के प्रति व्यापक योगदान रहा है ठाकुर का
रवींद्रनाथ ठाकुर राष्ट्रीय स्तर के शायद ऐसे पहले प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, जिन्होंने सिनेमा के प्रति अपनी दिलचस्पी दर्शायी थी. नयी प्रतिभाओं को वे प्रोत्साहित करते थे और उन्हें उभारने में उनका काफी याेगदान रहा है. सिनेमा को एक स्वायत्त धारा के रूप में विकसित करने की जरूरत को उन्होंने काफी हद तक साहित्य और लेखों के बिना रेखांकित किया. उन्होंने कुछ विदेशी कॉलेबोरेशन पर भी काम किया, जो कई कारणों से पूरे नहीं हो सके.
वर्ष 1932 में ठाकुर ने नातिर पूजा नामक एक फिल्म का निर्देशन भी किया, जो पुजारिनी शीर्षक से लिखि गयी उनकी ही कविता पर आधारित थी. उसी वर्ष कलकत्ता में एक सिनेमा हॉल के उद्घाटन समाराेह में उन्होंने इस मौके के लिए खास तार से रचित कविता रूपबानी का पाठ किया. मार्च, 1937 में कलकत्ता में आयोजित अछूत कन्या के प्रीमियर शो के दौरान भी वे मौजूद रहे थे. फिल्मों के प्रति रवींद्रनाथ ठाकुर की रुचि इस तथ्य से भी साबित होती है कि वर्ष 1930 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म कॉन्फ्रेंस में वे शामिल हुआ और भाषण दिया.
वर्ष 1926 में उन्होंने लंदन स्थित ब्रिटिश इंपायर फिल्म इंस्टिट्यूट के ग्रांड काउंसिल में शामिल होने को स्वीकार किया था और उसके एक अधिकारी के साथ हुए साक्षात्कार में उन्होंने इस तथ्य को रेखांकित किया था कि एक औसत भारतीय के भीतर कला की गहरी चेतना होती है और किसी भी सांस्कृतिक फिल्म के प्रति वे अपनी बेहतरीन प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं.
ठाकुर ने इस तथ्य पर खेद जताया है कि जिन फिल्मों के बारे में यह माना जाता रहा कि वे भारतीय प्राच्य चीजों का प्रतिनिधित्व करती हैं, वास्तविक में उनमें पूरब के जीवन दर्शन और तौर-तरीकों को गलत तरीके सेप्रस्तुत किया गया है.
जीवन दर्शन व ज्ञान के संदर्भ में रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार
उच्च शिक्षा वह है, जो न केवल हमें सूचना मुहैया कराती हो, बल्कि सभी प्रकार के हालातों में हमें
सहिष्णु बनाये रखे.
सबसे पहले, बच्चों को अपने जीवन से ज्ञान अर्जन करना चाहिए, क्योंकि बच्चे अपने जीवन से प्रेम करते हैं, और यह उनका पहला प्रेम होता है. उनके सभी रंग और उनकी सभी हरकतें, उनकी उत्कट जागरुकता के प्रति आकर्षित होती हैं, और तब वे ज्ञान हासिल करने के लिए अपने जीवन का त्याग करें.
मैंने स्पष्ट रूप से यह महसूस किया है कि किसी खास सामग्री की जरूरत नहीं थी, न ही धन या आराम या पावर, लेकिन आत्मा की स्वतंत्रता, ईश्वर में जीवन की स्वतंत्रता, जहां उन लोगों के साथ कोई शत्रुता नहीं है, जिन्हें लडना चाहिए, उन लोगों के साथ कोई प्रतियोगिता नहीं है, जिनके लिए धन बनाना चाहिए, जहां हम सभी मसलों से परे हैं और सभी अपमानों से इतर हैं, में पूर्ण चेतना के प्रति हमारी जाग्रति जरूरी है.