रवींद्र जयंती पर खास : मातृभाषा के प्रबल पक्षधर
पवित्र सरकार
पूर्व वाइस चांसलर, रवींद्र भारती विवि
कितना अच्छा होता यदि हाथ में एक माउथपीस लेकर रास्ते की भीड़ मे खड़े लोगों से पूछता, ‘आप क्या रवींद्रनाथ को अभी भी पढ़ते हैं? कितना पढ़ते हैं? कब पढ़ते हैं? पढ़कर क्या लाभ होता है? आपका जीवन क्या उससे बदलता है?’ कमोबेश ऐसा ही एक सवाल 90 के दशक के अंत में शंख घोष ने रवींद्रभारती विश्वविद्यालय के ‘कविर अभिप्राय’ नामक एक वक्तव्य की शुरुआत में किया था-‘ आपने आज क्या रवींद्रनाथ को पढ़ा है? इस सप्ताह में? या इस महीने?’ इसके बाद सवाल अन्य गंभीर विषयों पर चले गये थे. शायद ये सभी सवाल हमारे जीवन की गहराई से जुड़े हैं जिसमें प्रश्न उठते हैं, ‘जीवन में मनोरंजन का कितना स्थान है, गंभीर चिंतन का कितना महत्व है, सत्य के भीतर छिपे आनंद के क्षणों को मूल्यवान कर देना कितना जरूरी है’.
माइक्रोफोन लेकर निकलने का उत्साह मेरे भीतर नहीं है इसलिए मैं इधर-उधर लोगों से पूछता हूं. डरते-डरते पूछता हूं. मानो किसी के व्यक्तिगत जीवन में ताकाझांकी करने की कोशिश, उनकी गुप्त बातों को सामने लाने की चेष्टा. किसी समूह में ये काम करने से शोर हो जाता है-‘ आ रहा है वो’. लोग बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं. कई खुद ही अपनी बात कहने को आगे भी आ जाते हैं. इन बातों के साथ एक और प्रश्न सामने आता है कि क्या रवींद्रनाथ व्यक्तिगत उपार्जन के लिए हैं? क्या हम केवल अपने लिए उन्हें चाहते हैं, घर में लाकर रखते हैं, अकेले में इस्तेमाल करते हैं? दूसरे लोगों के पास पहुंचाने की कोशिश नहीं करते? अपनी संतान, विद्यार्थियों के हाथों, अन्य प्रियजनों के पास उन्हें नहीं देते?
वह क्या हमारे समाज की संपदा नहीं हैं? वह क्या हमारी वैश्विक संपदा नहीं हैं? बांग्ला या अंगरेजी से अनुवाद करके कितने लोगों ने उन्हें दूसरों तक, देश या विश्व भर में पहुंचाया है? विभिन्न जयंती-वर्षगांठ पर ‘आमार रवींद्रनाथ’ नाम से कई किताबें निकली हैं. जितनी मिली पढ़ा हूं. कोई अध्यापक है, कोई कवि या साहित्यकार तो कोई साहित्यप्रेमी कोई सच्चे अर्थों में रवींद्र व्यवसायी है.
काफी कम मामलों में देखा हूं कि साहित्य के बाहर के लोगों ने अपने जीवन में रवींद्रनाथ की बात कही है. शंख घोष के दिवंगत पिता मनींद्रचंद्र घोष ने अपने पंचानबे वर्षों के जीवन में कभी भी ईश्वर में विश्वास नहीं किया. लेकिन उन्होंने कहा था कि उनके लिए ईश्वर के करीब कोई है तो वह हैं रवींद्रनाथ. मेरी पत्नी मैत्रेयी के सेंट जेवियर्स का एक छात्र, जो किशोरावस्था में ही पितृहीन हो गया था, बाद में प्रसिद्ध पदार्थविज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ, वह परीक्षा देने जाने से पहले अपने पिता और रवींद्रनाथ की तसवीर को प्रणाम करता था. उसके लिए भी ईश्वर का स्थान रवींद्रनाथ ने लिया था. ईश्वर में विश्वास करने के वालों के लिए यह बात शायद ज्यादा लगे. महापुरुष, ईश्वर के पैगंबर या वाणीवाहक होते हैं, वह ईश्वर के पास पहुंचने की सीढ़ी मात्र हैं, लेकिन वह खुद ही ईश्वर का रूप ले लेंगे, ये कैसी बात हुई? यह सही है कि कोई-कोई धर्मगुरु ईश्वर के साथ अपनी एकजुटता की स्थापना करने की कोशिश से विरत नहीं हुए लेकिन रवींद्रनाथ तो ऐसे नहीं थे.
बल्कि हमारी धारणा तो यह है कि पहले विश्वयुद्ध के खत्म होने बाद वह अपने परिचित ईश्वर से दूर ही हो गये थे. लेकिन गुरुदेव से ईश्वर या ईश्वर के लगभग करीब हो जाने का दूसरा कोई और उदाहरण क्या देखने को मिलता है? रवींद्रनाथ का विरोध भी हुआ. ‘कल्लोल’ के लेखकों का रवींद्र-विद्रोह से रवींद्रनाथ का प्रत्यावर्तन लगभग हास्यास्पद पलटी खाने की बात अब लगती है. सुनील गंगोपाध्याय ने लात मारकर रवींद्र रचनाओं के खंड को फेंक देने की बात कविता में कही थी. लेकिन सुनील जैसे गंभीर आवेग के साथ रवींद्र संगीत गाने वाले लोग काफी कम लोग थे.
वर्तमान पीढ़ी रवींद्रनाथ क्या है या क्यों है, नहीं कह सकती. इसलिए हम एमए के विद्यार्थियों से पूछते हैं. वह भी बांग्ला साहित्य के विद्यार्थी हैं, रवींद्रनाथ की बड़ी खुराक उनके लिए आवंटित है.
लेकिन वह क्या सिलेबस में रहने के कारण पढ़ते हैं, परीक्षा में नंबर पाने के लिए रवींद्रनाथ पढ़ते हैं? मेरी एक छात्रा जहांआरा कुछ और कहती है कि रवींद्रनाथ मानो सभी से अलग हैं. ‘कैसे अलग हैं?’ इस सवाल के उत्तर में उसने कहा कि मैं जो इंसान हूं, क्यों हूं? इस बात को जब सोचती हूं तो लगता है कि रवींद्रनाथ ने कितनी तरह से इस बात का उत्तर दिया है. और किसी ने कविता, गीत, गद्य या कहानी या फिर उपन्यास या लेख से इस तरह से नहीं समझाया है. पहले विश्वयुद्ध के आखिर क्षणों में मृत युवा अंग्रेज कवि विलफ्रेड ओवेन ने अपनी डायरी में अंगरेजी में गीतांजलि की लाइनों को लिखा है.
अमेरिका की डॉक्टर एलिजाबेथ कुरला ने मृत्यु पथ पर जाने वाले रोगियों पर शोध करके बार-बार रवींद्रनाथ को याद किया है. केवल रवींद्रनाथ को अपनी किताब, ‘ऑन डेथ एंड डाइंग’ में याद किया है. जापान के कवि माशिनो साबूरो (1889-1916) केवल 27 वर्ष जीवित रहे. उन्हें टीबी रोग हुआ था. तब उसकी कोई चिकित्सा नहीं थी. रोग का प्रकोप जितना बढ़ा था उतना ही वह रवींद्रनाथ को आत्मसात किया. एक बाद एक उन्होंने ‘गीतांजलि’, ‘ द क्रिसेंट मून’, ‘ द गार्डनर’ का अनुवाद किया.
जापानी शोधकर्ता कियोको ने लिखा है, ‘जितनी उसकी बीमारी नाजुक होती गई वह उतना ही रवींद्रनाथ की कविताओं के अनुवाद में डूब गया था’. 1916 में रवींद्रनाथ पहली बार जापान गये थे, माशिनो उसके पहले ही पृथ्वी छोड़कर चले गये थे. पश्चिमी देशों ने अरसे तक रवींद्रनाथ की उपेक्षा करने के बाद नये तौर पर अंगरेजी में अनुवाद कार्य शुरु किया है. वीलियम रैडिचे और जो विंटर जैसे कवि सामने आये हैं. जर्मन भाषा में मार्टिन केंपशेन नये तौर पर रवींद्रनाथ को जर्मन पाठकों के पास पहुंचा रहे हैं. फ्रेंच में भी नये तौर पर आग्रह दिख रहा है. रवींद्रनाथ जब जापान गये थे तब एक कोरियाई युवक ने उनसे मिलकर जापानी प्रशासन में कोरिया के अपमान की बात बताई और कोरिया आने का निमंत्रण दिया. रवींद्रनाथ कोरिया तो नहीं गये लेकिन उस युवक को एक अंगरेजी कविता लिख दी थी.
जिसका अर्थ था कि ‘कोरिया ने कभी समूचे एशिया को रोशनी दिखाई थी, अब उसे अंधेरे ने लील लिया है, लेकिन फिर उसकी रोशनी जलेगी और वह फिर से एशिया को रोशनी दिखायेगा. जब यह कविता कोरियाई भाषा में अनुवाद होकर सभी समाचार पत्रों में छपी, तब कोरियाई भाषा में ‘गीतांजलि’ का अनुवाद करने वाली मदाम किम ने कहा था, रवींद्रनाथ की उस कविता से उस क्षण से ही कोरियाई रेनेसां शुरू हुआ.
रवींद्रनाथ भी गलतियां करते हैं. कभी असफल नहीं होते, ऐसा भी नहीं है. कोई रवींद्रनाथ को लाभ के तौर पर पेशे के लिए रखता है लेकिन जीवन के भीतर उसे स्थान नहीं देता. कोई बता रहा था एक लड़के के बारे में. वह अच्छी नौकरी करता है, पत्नी और छोटी बेटी तथा विधवा मां को लेकर एक ही फ्लैट में रहता है. मां के नाम पर फ्लैट है. लड़का सुरीले अंदाज में रवींद्र संगीत गाता है. लेकिन कई बार मां को पीटता, अपमानित भी करता है. क्योंकि उसकी मां फ्लैट को उसके नाम नहीं कर रही. रवींद्रनाथ उसके भीतर स्थान नहीं कर पाये हैं.
असफल रवींद्रनाथ, सार्थक रवींद्रनाथ. इस वैश्विक, लोभी, हिंसक दिन-रात में हम किस रवींद्रनाथ को अपने पास रखेंगे?
(लेखक वेस्ट बंगाल हायर एजुकेशन काउंसिल के पूर्व चेयरमैन रह चुके हैं. वह पश्चिम बंगाल की विभिन्न शिक्षा कमेटियों के सदस्य भी रह चुके हैं. उनके बांग्ला लेख, ‘रवींद्रनाथ: कार काछे कौतोटा’ के संपादित रूप का हिंदी अनुवाद आनंद कुमार सिंह ने किया है.)