!!बल्देव भाई शर्मा!!
रविवार को मातृ दिवस (मदर्स डे) है. बाजार के इस दौर में यह दिन भी गुलदस्ते, ग्रीटिंग्स कार्ड और भी न जाने कैसे-कैसे आकर्षक उपहार देने का अवसर ज्यादा बन गया है. बाजार का स्वभाव है कि वह हर मौके को अपने व्यवसाय व आर्थिक लाभ के लिए भुनाने की रणनीति में जुट जाता है और उस आकर्षण में उपभोक्ता बन व्यक्ति मूल भाव को शायद उतनी तवज्जो नहीं देता. मदर्स डे पर भी अपनी माताओं को एक से एक आकर्षक, महंगा उपहार देने की होड़ लग जाती है और अगले दिन से शायद ही किसी को याद रहता होगा कि मदर्स डे पर हमने मां का दुलारा दिखने के लिए जो दरियादिली दिखाई उस मां का हाल क्या है, जब तक कि अगले वर्ष फिर मदर्स डे न आ जाये.
दुनिया में मदर्स डे मनाने की कहानी बड़ी रोमांचक और प्रेरक है, लेकिन भारत में तो मां का महत्व आदिकाल से हमारे शास्त्रों में बताया गया है और कहा गया है कि मां अपनी संतान को सुखी, योग्य और समर्थ बनाने के जीवन भर जो त्याग करती है, जो कष्ट सहती है, उससे संतान कभी उऋण नहीं हो सकती. यानी मां का यह जो कर्ज है संतान पर उसे कभी चुकाया नहीं जा सकता. मां के उपकार को लेकर बहुत सा साहित्य रचा गया, कई फिल्में बनीं. मराठी में ‘श्यल चोआई’ बड़ी मर्मस्पर्शी फिल्म है और कई हिंदी फिल्मों में मां के महत्व को दर्शाते हुए गाने लिखे गये जो बड़े लोकप्रिय हुए. एक फिल्म आयी थी ‘दादी मां’ उसमें गाया गाना ‘उसको नहीं देखा हमने मगर/पर इसकी जरूरत क्या होगी, ऐ मां तेरी सूरत से अलग/भगवान की सूरत क्या होगी.’ भारतीय शास्त्रों में ‘मातृ देवो भव:’ कहकर जिस मां की वंदना की गयी है और जिसकी महत्ता को दर्शाया गया है, उसी भाव को साहित्य और फिल्मों के माध्यम से लोकप्रिय बनाने का काम हुआ.
भारत में वेद काल से मां की संकल्पना को विस्तार और महत्व दिया गया. माता और संतान का संबंध दिखाने और तोहफों के लेन-देन से परिभाषित नहीं होता, बल्कि यह एक अनुभूति है जो हमें बंधुत्व का, संबंधों के विस्तार व प्रगाढ़ता का और मनुष्यता का संस्कार देती है. अथर्ववेद के 12वें मंडल में ‘पृथ्वी सूत्र’ का बड़ा रोचक वर्णन है जिसमें कहा गया है ‘माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ यह धरती मेरी मां है और मैं इसकी संतान हूं. यह संबंध जाति, भाषा, क्षेत्र और पंथ के भेदभाव से ऊपर उठ कर हम सबको एकात्म भाव से जोड़ता है कि हम विविध रूप होते हुए भी एक ही भारत माता की संतान हैं, फिर परस्पर स्वार्थ भेद कैसा? यदि ‘मदर्स डे’ मना ही रहे हैं तो इस मां और संतान के संबंध को हम प्रतिवर्ष नहीं, प्रतिदिन और दृढ़ करें. मां का दर्द, बुढ़ापे में उसका अकेलापन, उसकी पसंद क्यों हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बन पाती? जन्म देने वाली मां यानी जननी और अपने अन्न, जल, वायु से हमारा पोषण करने वाली जन्मभूमि के प्रति क्या हम अपनी जिम्मेवारियों को ठीक तरह निभा रहे हैं? इन प्रश्नों के उत्तर इस दिन खुद के मन में खोजने चाहिए. जिस मां के कदमों में हम अपनी जन्नत देखते हैं, उन कदमों के अशक्त होने पर क्या हम मां का सहारा बन पा रहे हैं.
‘बंदिनी’ हिंदी फिल्म में पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता को उसकी संतानें सांत्वना देते हुए गाती हैं- ‘मन से माना लाल तेरे बहुतेरे’, क्या अपने स्वार्थ में फंसी ये करोड़ों संतानें मातृभूमि के गौरव को बढ़ाने की चिंता कर पाती हैं? मातृभूमि तो छोड़िये, एक मां का पालन-पोषण और उसकी देखभाल भी मुश्किल होती जा रही है. इसलिए कहावत है कि एक मां अपनी पांच संतानों को हर दुख सह कर भी पाल लेती है, लेकिन पांच संतानें मिलकर एक मां को नहीं पाल सकती. मां के प्रति प्यार, अपनत्व और जिम्मेवारी के इसी अहसास को जगाने और उसकी ओर प्रवृत्त करने वाला है ‘मदर्स डे’
मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने की परंपरा है. इसके मनाये जाने का प्रसंग बड़ा रोचक और प्रेरणास्पद है. एक शोध छात्रा कैथरीन एंटोलिनी ने मातृत्व के इतिहास पर शोध करते हुए एक मां ऐना जारविस के बारे में जाना कि अपनी मां के त्यागपूर्ण जीवन का अहसास बनाये रखने के लिए ऐना ने ‘मदर्स डे’ मनाये जाने की अवधारणा को जन्म दिया. उसने मार्क ट्विन, मेयर गवर्नर आदि कई प्रमुख लोगों को पत्र लिखे कि माताएं अपनी संतान के लिए जो कष्ट झेलती हैं, उन्हें सुयोग्य नागरिक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ‘मदर्स डे’ मनाया जाना चाहिए.
ऐना की खुद की कोई संतान नहीं थी, लेकिन संतान के प्रति मां की भूमिका जानने के लिए उसने अनेक माताओं से भेंट की. उनकी संघर्ष गाथाएं सुनीं, उनके विचार जाने. अपनी मां का संघर्ष तो उसने खुद देखा ही था, उसका त्याग और प्यार ऐना की अंतरात्मा तक बसा था. इसलिए मां की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए ऐना जुटी रही और अनेक विपरीत परिस्थितियां व विरोध झेलकर भी उसने 1908 में आखिरकार ‘मदर्स डे’ मनाये जाने को मान्यता दिला ही दी, जिसे 1905 में उसने ग्राफ्टन के चर्च में मनाकर शुरुआत कर दी थी. तब से यह दिन मनाया जा रहा है, लेकिन बाजार के चकाचौंध और दिखावे की ललक ने मूल भावना को कहीं पीछे छोड़ दिया है. जबकि ऐना का कहना था कि इस दिन का आयोजन केवल भावुक प्रसंग भर नहीं है, बल्कि उस घर के महत्व को स्थापित करना है जहां मां रहती है और उस मां के स्नेहिल मार्गदर्शन में व्यक्तित्व गढ़ा जाता है व राष्ट्रीयता की भावना का विकास होता है. माता जीजाबाई ने जिस तरह छत्रपति शिवाजी और रानी सुनीति ने भक्त ध्रुव का मनोसंस्कार किया और अपनी इन संतानों को धर्म पालन, भक्ति भावना और राष्ट्र के उन्नयन का यशस्वी प्रतीक बना दिया, इससे सहज ही ऐना जारविस के भावों को समझा जा सकता है. मदालसा, बिदुला, शकुंतला जैसी अनेक यशस्वी माताओं का उल्लेख भारतीय साहित्य में हुआ है. कैथरिन ने ‘मदर्स डे’ और ऐना की इस कहानी को अपने शोध के रूप में नाम दिया. ‘मेमोरियलाइजिंग मदरहुड: ऐना जारविस एंड द स्ट्रगल फॉर कंट्रोल ऑफ मदर्स डे’. ऐना की मां का देहांत मई के दूसरे रविवार को हुआ था, इसलिए उसने इसी दिन को आयोजन के लिए चुना.
आज जब बीमा के नौ लाख रुपये हड़पने के लिए दो बेटों द्वारा मां को धोखे से गाड़ी से कुचल कर मार डालने वाली घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती हैं, तब ‘मदर्स डे’ की भावना आहत होती है. मां जो बच्चे को पहला शब्द बोलना सिखाती है, उसकी उंगली पकड़ कर धरती पर पहला कदम रखना व चलना सिखाती है, मुंह में पहला कौर रख कर खाना सिखाती है, जन्म के बाद उसका दूध बच्चे के पूरे जीवन के स्वास्थ्य का आधार बनता है वह अपने बुढ़ापे में असहाय व उपेक्षित न रहे, इसकी चिंता करने से ही ‘मदर्स डे’ मनाना सार्थक होगा. केवल उपहार देने से क्या होगा.