तिहरे तलाक पर सुनवाई : मौलानाओं और इसलाम की छवि खराब करने की हो रही है कोशिश
अब न्यायालय के पाले में तिहरे तलाक का मामला सर्वोच्च न्यायालय के पांच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की खंडपीठ तिहरे तलाक की वैधानिकता पर सुनवाई कर रही है. कुछ दिनों में ही अदालत विभिन्न पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद अपना फैसला दे देगी. इस मुद्दे पर देश में लंबे समय से बहस हो रही […]
अब न्यायालय के पाले में तिहरे तलाक का मामला
सर्वोच्च न्यायालय के पांच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की खंडपीठ तिहरे तलाक की वैधानिकता पर सुनवाई कर रही है. कुछ दिनों में ही अदालत विभिन्न पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद अपना फैसला दे देगी. इस मुद्दे पर देश में लंबे समय से बहस हो रही है तथा इस मसले पर राजनीतिक स्वार्थ साधने की भी खूब कोशिशें हुई हैं. तिहरे तलाक से जुड़े अलग-अलग आयामों पर आधारित इन-दिनों की यह प्रस्तुति…
मौलाना हमीद नोमानी
इस्लामी विद्वान
कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अपने आप को इसलाम का जानकार माननेवाले लोगों ने तीन तलाक के बारे में सरकार को गलत सूचनाएं देकर और इस पूरे मामले की गलत व्याख्या करके समाज में लोगों को भरमाया है. राजनीति का सहारा लेकर इस मामले का राजनीतिकरण किया जा रहा है और इसलाम और मौलानाओं की छवि को खराब किया जा रहा है. अब यह मामले की सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है.
तीन तलाक गैर-इस्लामी है, लेकिन जिस तरह से इसके साथ व्यवहार किया जा रहा है, उससे लगता है कि यह तीन तलाक को नहीं, बल्कि तलाक देने को ही खत्म करने की कोशिश हो रही है. इस बहस में यही खेल चल रहा है कि एक मर्द अपनी बीवी को तलाक दे ही नहीं पाये. इन लोगों को लगता है कि जब मामला कोर्ट में तय होगा, तो इससे आलिम-ओलमा के असर से लोग बाहर निकल जायेंगे. यह निहायत ही गलत बात है.
दरअसल, इसलाम में निकाह-तलाक को लेकर हिंदू मैरिज एक्ट की तरह कोई कानून नहीं बना हुआ है. और मुसलिम मैरिज एक्ट की सबसे पहले मैंने ही मांग की थी कि यह कानून बनना चाहिए, उसके बाद सारे लोगों ने मुसलिम मैरिज एक्ट की बात करनी शुरू की. मैं इस बात को मानता हूं कि मुसलिम मैरिज एक्ट बनना चाहिए, लेकिन इसमें निकाह-तलाक से संबंधित शरियत के प्रावधान और मुसलिम औरत के अधिकारों व हुकूक को भी शामिल किया जाना चाहिए.
कानून बने कि अगर बिना किसी शरई कारण के कोई शख्स अपनी बीवी को तलाक देता है, तो उसको सख्त सजा मिलनी चाहिए. मामले की नजाकत को देखते हुए उस शख्स को जेल में भी डाला जा सकता है, वित्तीय दंड भी लगाया जा सकता है और सामाजिक बहिष्कार भी किया जा सकता है, लेकिन यह उसी के साथ किया जाये, जो गलत तरीके से बिना किसी कारण के अपनी बीवी को तीन तलाक देता है. जब तक ऐसा कानून नहीं बनेगा, तब तक बात नहीं बनेगी और लोग इस मामले पर राजनीति करते रहेंगे. लेकिन, हो यह रहा है कि लोग सिर्फ एकतरफा नजरिये से ही इस मामले को देख रहे हैं और इसलाम की छवि को बिगाड़ रहे हैं.
मामले को सिर्फ तीन तलाक के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि औरतों के हकूक के नजरिये से भी देखा जाना चाहिए. एक अनुमान के मुताबिक, करीब 60-65 फीसदी तलाक महिलाओं को दी जाती है और 35-40 फीसदी महिलाएं तलाक लेती हैं. अगर संवैधानिक रूप से शरई तलाक की प्रक्रिया मान्य नहीं होगी और कानून नहीं बनेगा, तो फिर 35-40 फीसदी महिलाएं तलाक कैसे ले पायेंगी? ये वे महिलाएं हैं, जिनके शौहर उन्हें अच्छे से नहीं रखते और शादीशुदा जिंदगी मुश्किल हो जाती है, इसलिए वे तलाक लेना चाहती हैं.
तलाक देने की तरह तलाक लेना भी औरत का हक है. लेकिन, इसका गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. कई मामले तो ऐसे भी आये हैं कि तीन तलाक की तीन महीने की प्रक्रिया को पूरी किये बिना कुछ औरतें चाहती हैं कि तीन तलाक फौरन मिल जाये. यह भी ठीक नहीं है और इसलिए इस नजरिये से भी कानून का बनना जरूरी हो जाता है, ताकि कोई मनमानी न कर पाये. गलत तरीके से तलाक देने पर बहस होनी चाहिए, तलाक के सही होने पर नहीं.
यह फर्क लोग नहीं समझ पा रहे हैं, इसलिए गोया कि जो आदमी फौरन ती तलाक दे रहा है, वह गुनाह कर रहा है और वह अपराधी है. लेकिन, उस आदमी को दंडित करने के बजाय, जो आदमी (आलिम ओलमा) तलाक की सही प्रक्रिया बता रहा है, उसी को निशाने पर ले लिया गया है. मुफ्ती को, ओलमा को, पर्सनल लॉ बोर्ड को भला-बुरा कहा जा रहा है. लेकिन, जो गलत तरीके से तलाक दे रहा है, उससे कुछ नहीं पूछा जा रहा है कि आखिर उसने क्यों तलाक दिया और किस कारण से दिया.
इस तरह से एकतरफा मामले को उछाल कर इसलाम, ओलमा और कोर्ट की छवि को खराब करने की कोशिश की जा रही है और कुछ लोग इसी का राजनीतिक फायदा उठाने में लगे हुए हैं. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई शुरू कर दी है. देश सर्वाधिक जटिल सामाजिक मुद्दों में शामिल तीन तलाक की गंभीरता के मद्देनजर न्यायालय की संविधान पीठ इस मामले की रोज सुनवाई कर रही है. मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय खंडपीठ तीन तलाक पर सुनवाई कर रही है.
कैसे शुरू हुआ मामला
तीन तलाक मामले को ‘शायरा बानो बनाम भारत सरकार’ के नाम से जाना जाता है. दरअसल, पिछले वर्ष उत्तराखंड की शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर समाज में प्रचलित तीन तलाक और निकाह हलाला की वैधानिकता पर सवाल खड़ा किया था. अर्जी में तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 में निर्दिष्ट मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया है. शायरा ने एकतरफा तलाक, मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं के साथ भेदभाव पर विचार करने की मांग की है. भेदभाव की शिकार मुसलिम महिलाओं से जुड़े मामले को गंभीर मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल और लीगल सर्विस अथॉरिटी को जवाब देने का निर्देश दिया था.
क्या है तीन तलाक
शरिया कानून के मुताबिक ‘तीन तलाक’ पति-पत्नी के बीच संबंध-विच्छेद की प्रक्रिया है. नियमों के अनुसार, इस पूरी प्रक्रिया में तीन माह का समय लगता है. इस अवधि में सुलह की संभावनाओं पर विचार करने का भी प्रावधान है.
तीन तलाक और तकरार
इसलामिक नियमों के अनुसार, तलाक बोलने के लिए समय सीमा तय की गयी है. हर बार तलाक बोलने के बीच में अंतराल होता है. इस पूरी प्रक्रिया में महिला के अधिकारों का पूरा ख्याल रखा जाता है. एक बार में ही तीन तलाक कह देने से न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, इस मसले पर मुसलिम महिलाएं और कई संगठन मुखर हैं.
तीन तलाक के समर्थन में दलील
तीन तलाक के मुद्दे पर उठाये गये सवालों पर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि उक्त विषय न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता, अत: याचिकाएं खारिज की जानी चाहिए. भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25, 26 और 29 के तहत पर्सनल लॉ को संरक्षण मिला हुआ है. सामाजिक सुधार के नाम पर पर्सनल लॉ में बदलाव नहीं करने के लिए बोर्ड ने हलफनामा दायर किया हुआ है.
केंद्र सरकार का रुख
केंद्र सरकार का मानना है कि लैंगिक समानता और महिलाओं के सम्मान से किसी भी दशा में समझौता नहीं किया जा सकता है. सरकार के अनुसार तीन तलाक को समानता के अधिकार और भेदभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. मूल अधिकारों के तहत संविधान के अनुच्छेद 14 में लैंगिक समानता का प्रावधान है, तो वहीं अनुच्छेद- 15 में इस बात का निर्देश है कि महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक तरीके से अधिकार मिलने चाहिए.
शादी खत्म करने का सबसे घटिया तरीका है तीन तलाक : सुप्रीम कोर्ट
मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने तीन तलाक को संबंध-विच्छेद का सबसे घटिया तरीका माना है. न्यायालय के लिए अमीकस कयूरी (न्यायमित्र) के रूप में बहस में शामिल सलमान खुर्शीद ने कहा कि इस मुद्दे की न्यायिक समीक्षा की जरूरत नहीं है.
उनके अनुसार मुसलिमों की शादी के निकाहनामे में एक शर्त डाल कर महिलाएं तीन तलाक को मना कर सकती हैं. तीन तलाक पीड़ितों का पक्ष रखते हुए सीनियर वकील राम जेठमलानी ने माना कि यह असंवैधानिक बर्ताव है और इस घिनौनी प्रथा का बचाव नहीं किया जा सकता.
क्यों तीन तलाक खत्म होना जरूरी?
– दुनियाभर में मुसलिम महिलाओं और कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद कई देशों में यह प्रथा जारी है.
– तीन तलाक की प्रक्रिया पतियों को एकाधिकार देती है, जिससे वे अपनी इच्छा के अनुसार बिना किसी प्रमाण के संबंध-विच्छेद कर लेते हैं.
– स्काइप, टेक्स्ट मैसेज, इ-मेल, व्हॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म पर बढ़ते मौखिक तलाक के मामले समुदाय के लिए चिंता का विषय हैं
– केंद्र सरकार का मानना है कि ऐसी प्रथाएं संवैधानिक सिद्धांतों, लैंगिक समानता, धर्म निरपेक्षता और अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करती हैं.
– सरकार का यह भी मानना है कि ज्यादातर मुसलिम देशों में इस प्रथा पर प्रतिबंध है और धार्मिक आधार पर भी मान्यता नहीं है, तो इस पर रोक लगनी चाहिए.
पहले भी पर्सनल लॉ से जुड़े मामलों पर अदालतों में हुई हैं बहसें
तिहरे तलाक के मामले में शायरा बानो की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है. इससे पहले भी पर्सनल लॉ से संबंधित विभिन्न मसलों पर फैसले दिये गये हैं. इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों पर कोई ठोस राय नहीं दी है. टकराव उसी स्थिति में पैदा होता है जब पर्सनल लॉ के प्रावधान संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते प्रतीत होते हैं. संविधान के अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि कोई भी कानून अगर मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है, तो उसे खारिज कर दिया जाना चाहिए.
पर्सनल लॉ पर सर्वोच्च न्यायालय की राय
भारत में पर्सनल लॉ लिपिबद्ध यानी कोडिफाइड भी हैं और रीति-रिवाजों से भी चलते हैं. बीते सालों में इन कानूनों और मौलिक अधिक अधिकारों के मसले पर अलग-अलग राय प्रकट की है. वर्ष 1980 के कृष्णा सिंह बनाम मथुरा अहीर मामले, 1984 के महर्षि अवधेश मामले और 1997 के अहमदाबाद वीमेन एक्शन ग्रुप मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक कह दिया था कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत के आधार पर पर्सनल लॉ के प्रावधानों को चुनौती नहीं दी जा सकती है.
अनेक जानकारों का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय की यह व्याख्या 1951 में नरसु अप्पा माली मामले में बंबई उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले पर आधारित है. उस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत पर्सनल लॉ ‘कानून’ नहीं हैं. लेकिन, 1996 के मुदलियार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की दशा में पर्सनल लॉ खारिज हो जाते हैं. ये सभी मामले मौजूदा सुनवाई के दौरानउद्धृत किये जायेंगे.
हाल के कुछ महत्वपूर्ण मामलों पर एक नजर
शाहबानो मामला- पर्सनल लॉ से जुड़े मामलों में सबसे अधिक चर्चित इस केस में शाहबानो ने अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी. वर्ष 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व पति को अन्य भारतीयों पर लागू कानून के अनुसार गुजारा भत्ता देने का निर्देश किया. अदालत ने शाहबानो के पूर्व पति के इस तर्क को खारिज कर दिया था कि इद्दत (तलाक के बाद इंतजार की अवधि) के दौरान भत्ता और मेहर की रकम दी गयी है तथा मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत किसी अन्य गुजारा भत्ता की वह हकदार नहीं है.
मेरी रॉय मामला- शाहबानो मामले के एक साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने ईसाई पर्सनल लॉ से संबंधित एक मामले में महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि सीरियन ईसाई महिलाएं अपने पिता की संपत्ति में बराबर हिस्सेदारी का अधिकार रखती हैं. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पहले, सीरियाई ईसाई समुदाय संपत्ति की विरासत का मामला त्रावणकोर उत्तराधिकार कानून, 1916 तथा कोचीन उत्तराधिकार कानून, 1921 के तहत निपटाते थे. इनमें बहनों को भाईयों की तुलना में संपत्ति में एक-चौथाई हिस्सा या पांच हजार रुपये (दोनों में से जो कम हो) मिलता था. अन्य ईसाई 1925 के उत्तराधिकार कानून का पालन करते थे.
दानियाल लतीफी मामला- लतीफी शाहबानो के वकील थे और उन्होंने केस जीता था. लेकिन यह बात मुसलिम समाज के रुढ़िवादी तबके को नागवार गुजरी थी. उन्हें तुष्ट करने के लिए राजीव गांधी सरकार ने संसद से मुसलिम महिला (तलाक संरक्षण) कानून, 1986 पारित करा दिया.
इसमें सिर्फ इद्दत के दौरान ही भत्ता देने की बात थी, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विपरीत थी. लतीफी ने इस कानून को संविधान-विरोधी बताते हुए न्यायालय में याचिका दी थी. न्यायालय ने इस कानून को ऐसा नहीं पाया, और कहा कि पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जाना चाहिए.
बंबई उच्च न्यायालय में तिहरे तलाक का मामला- वर्ष 2002 में उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि यदि कोई महिला तिहरे तलाक को चुनौती देती है, तो इस तरीके के पक्ष को अदालत में साबित करना होगा. फैसले में कहा गया कि लिख कर या बोल कर तलाक लेना पर्याप्त सबूत नहीं है तथा मुसलिम पति को तलाक देने का एकतरफा अधिकार नहीं है और उसे समुचित कारण पर आधारित होना होगा.
मुसलिम महिला द्वारा गोद लेना- वर्ष 2014 में एक मुसलिम महिला द्वारा बच्चा गोद लेने के मामले में फैसला दिया कि किसी भी अन्य नागरिक की तरह इन्हें भी गोद लेने का अधिकार है. गोद लिये गये बच्चे के अधिकार को पर्सनल लॉ द्वारा मना नहीं किया जा सकता है.
मुसलिम पर्सनल लॉ में महिला को गोद लेने का अधिकार नहीं है.
बिनब्याही मां के अधिकार- हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षक कानून, 1956 के तहत पिता को हिंदू बच्चे का स्वाभाविक संरक्षक माना गया था. शादी के रिश्ते में पैदा हुए बच्चे के स्वाभाविक अभिभावक के रूप में मां को अधिकार दिया जा सकता था. वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि बिनब्याही मां अपने बच्चे की अकेली संरक्षक हो सकती है. इसमें जैविक पिता की मंजूरी की जरूरत नहीं है.
अदालत में इतिहास लिखा जा रहा है!
शीबा असलम फहमी
लेखिका एवं पत्रकार
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की न्यायिक बेंच ने सुनवाई के दूसरे दिन (12 मई, 2017) अदालत में मौजूद इसलामी विद्वान आरिफ मोहम्मद खान को सुनने की ख्वाहिश जाहिर की और उन्हें पूरा आधा घंटा बोलने का मौका दिया. इसलामी विद्वान और भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने अदालत से मुखातिब होते हुए कहा कि वे सिर्फ एक बिंदु पर अदालत को बताना चाहेंगे और वो यह कि ‘क्या तीन तलाक की परंपरा या व्यवहार इसलाम मानने की बुनियादी शर्त है?’.
और इसके बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में 12 मई, 2017 को सर्वोच्च न्यायलय में एक तारीखी तकरीर हुई, जिसमें बार-बार सीधे कुरान-पाक को उद्धृत करते हुए अदालत में यह साबित किया गया कि एकतरफा तीन तलाक न कुरान सम्मत है, न पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब के अाचार-व्यवहार सम्मत है और न ही अन्य मुसलिम समाजों में चलन में है. बल्कि, यह इसलाम-कुरआन-सुन्नत के ठीक विपरीत एक घिनौनी परंपरा है. पूरे आधे घंटे तक कुरान के उद्धरण से साबित करते हुए आरिफ साहब ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया, अंततः आल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हठधर्मी उजागर हुई और धर्म के नाम पर चल रहे महिलाओं पर अत्याचार का पर्दाफाश हो गया. जब आरिफ मोहम्मद खान, जो एक वकील भी हैं, ने जब इस एक मुद्दे पर अपनी बात रखनी शुरू की, तो अदालत में खामोशी छा गयी. पूरा कोर्ट रूम उनके कुरान के पाठ और उसकी शब्दशः व्याख्या को सुनता रहा.
अदालत में ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मौलाना, उनके इसलाम विशेषज्ञ वकील, अन्य इसलामी विद्वान भी मौजूद थे, लेकिन कुरान से उद्धृत दिशा-निर्देशों की अवहेलना करने की जुर्रत किसी की नहीं हुई, जबकि ये सभी तथाकथित इसलाम के जानकार हिंदी-उर्दू के अखबारों और टीवी चैनलों में अपनी समझ से इसलाम की स्त्री-विरोधी व्याख्या कर इसलाम को बदनाम करते रहे हैं.
बताते चलें कि आरिफ मोहम्मद खान राजीव गांधी सरकार के अकेले ऐसे मुसलमान मंत्री थे, जिन्होंने मुसलिम महिलाओं के साथ नाइंसाफी के सवाल पर मंत्रिपद को त्याग दिया था. साल 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी और मुल्ला-तुष्टिकरण की सियासत के तहत राजीव गांधी जैसे कद्दावर प्रधानमंत्री ने इंसाफ के बजाय अपने सियासी भविष्य को सुनिश्चित करते हुए मुसलिम महिलाओं को क्रूर शौहरों की ठोकर में फेंक दिया था.
सत्ता के गलियारों से यह खुसफुसाहट भी मिलती रही थी, कि राजीव गांधी ने बाबरी मसजिद का ताला खोल कर मुसलमानों की जो नाराजगी मोल ले ली थी, उसकी भरपाई शाह बानो केस के फैसले को नीचा दिखाने के लिए, ‘मुसलिम वीमेन प्रोटेक्शन एक्ट ‘ बना कर की थी. यानी एक सांप्रदायिक हिंदू-तुष्टिकरण के पाप को मुल्ला-तुष्टिकरण के दूसरे पाप से धोया गया, और उसका नतीजा तीन दशक की जहरीली सांप्रदायिक राजनीति है, जिसने मुल्क को न भरनेवाली खाइयों में बांट दिया. राजीव गांधी के फैसलों पर किस मंत्री की जुर्रत थी कि कोई चूं भी करता. उनकी कैबिनेट में जाफर शरीफ, जियाउर्रहमान अंसारी, मोहसिना किदवई, गुलाम नबी आजाद और मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे मुसलिम मंत्री भी थे, लेकिन सबने इस मुद्दे पर अपने होंठ सिल लिये. यहां तक कि आज इस विषय पर खुद को ‘अमिकस क्यूरी’ के तौर पर पेश करनेवाले और खुद को प्रगतिशील दिखानेवाले सलमान खुर्शीद, जिन्होंने ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का पक्ष लेते हुए एक किताब भी लिखी थी, वे भी तब स्त्री-विरोधी कैंप में पेश थे.
उस वक्त आरिफ मोहम्मद खान अकेले ही मुसलमान बहनों के हक के साथ खड़े थे. खान ने उस वक्त के प्रधानमंत्री और मुल्ला दोनों से बैर मोल लिया और निजी फायदों से ऊपर उठ कर मंत्री पद को त्याग दिया. तब से आज तक आरिफ मोहम्मद खान ने इस मुद्दे पर कभी समझौता नहीं किया, बल्कि खुद को इसलाम-कुरान के अध्ययन में लिप्त करके वो सलाहियतें पैदा की कि आज कोई मुल्ला उनके कुरानी तर्कों, व्याख्याओं और जानकारी को चुनौती नहीं दे पाया.
पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ का वह सीन याद कीजिये, जब इसलामी विद्वान मौलाना वली पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट में आकर कुरान और इसलाम के संदर्भों को उद्धृत करके, जिहादी-कठमुल्ले मौलाना ताहिरी की स्त्री-विरोधी इसलामी व्याख्याओं की धज्जियां उड़ा देते हैं, तो कठमुल्ला ताहिरी तिलमिला कर मैदान छोड़ देता है. आज फर्क यह है कि आरिफ मोहम्मद खान के चेहरे पर दाढ़ी-टोपी नहीं थी बस.
इसलामी-नारीवादी विचारक के तौर पर मैंने हमेशा यह माना है कि मुसलिम समाजों को जिस कठमुल्ला और स्त्री-विरोधी विचारधारा ने घेर रखा है, उसका इलाज पश्चिमी आधुनिकता और मार्क्सवादी प्रगतिशीलता से नहीं हो सकता. पश्चिम की ये दोनों विचारधाराएं आपको धर्म-विमुख होने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं सुझातीं. धर्म-विमुख होने का व्यावहारिक नुकसान यह है कि आप समुदाय से बाहर धकेल दिये जाते हैं और समुदाय के अंदर के विमर्श से खारिज कर दिये जाते हैं. मार्क्सवादी मुसलमानों के साथ यही हुआ है.
भारतीय मुसलिम समाज अपने अंदर पनप रही जड़ताओं, कठमुल्लावाद और सांप्रदायिकता से असरदार जंग लड़ने के लिए अगर इसलाम के अंदर से ही मानवतावादी दिशा-निर्देश ले सकता है और मुल्ला की काट इसलाम से दे सकता है, तो यह बड़ी जीत होगी. इसलाम खुद एक सुधारवादी आंदोलन की तरह फैला है, सुधार जारी रहने चाहिए, इसलाम की स्त्रीवादी व्याख्या अभी बाकी है. और तीन तलाक के खात्मे से इसकी शुरुआत मानी जा सकती है.
तलाक-ए-विदअत है तीन तलाक
शाइस्ता अम्बर
अध्यक्ष, मुसलिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड
तीन तलाक और हलाला पर फौरन प्रतिबंध लगाने की जरूरत है. तीन तलाक एक तरह से तलाक-ए-विद्अत है यानी तलाक का सही स्वरूप नहीं है और कुरान के कानून के खिलाफ है. तलाक को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि यह एक इसलामी कानून है और मसलेहत का एक रास्ता भी है कि अगर शौहर-बीवी में नहीं बन रही है, तो वे दोनों अलग हो सकते हैं. इसलिए तलाक में सुलह-पसंदी बहुत जरूरी तत्व है.
मसलन, अगर किसी को तलाक देना है, तो इसके लिए तीन महीने की प्रक्रिया है, जिसमें दोनों पक्षों के बीच सुलह की बात हो और सोचने-समझने का वक्त भी मिले, ताकि एक बार में तीन तलाक देने के बाद पछताना न पड़े. और इस पछतावे के लिए हलाला का रास्ता न अपनाना पड़े, क्योंकि हलाला जैसी चीज की इसलाम में कोई जगह नहीं है और इसके बारे में कुरान में कहीं कोई जिक्र नहीं है. हदीस शरीफ में आता है कि हलाला करनेवाले पर पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने लानत भेजी है. जो चीज अल्लाह के रसूल को नापसंद है, जिसका कुरान इजाजत नहीं देता, फिर हम उसे कैसे सही मान सकते हैं. हराम चीज को हलाल कैसे कर सकते हैं? तलाक के प्रावधान से कुरान शरीफ में अल्लाह ने एक मसलेहत का रास्ता खोला है. निकाह एक कांट्रैक्ट है और जिस तरह से निकाह के लिए लिखा-पढ़ी होती है, उसी तरह से तलाक के लिए भी तीन महीने की प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए, जिसका कुरान में जिक्र है.
तीन महीने का समय इसलिए रखा गया है, ताकि सुलहपसंदी के चलते हो सकता है कि दोनों पक्षों में आपसी सहमति बन जाये. तीन तलाक का हल हम कोर्ट या सरकार के जरिये नहीं, बल्कि शरीयत के दायरे में चाहते हैं. अल्लाह ने कुरान में कहा है कि- ‘तुम तलाक दो, तो तीन महीने में तीन दफा रुक-रुक कर दो.’ अल्लाह ने रुक-रुक कर तीन महीने में तलाक का तरीका इसलिए बनाया है, क्योंकि बहुत मुमकिन है कि तीन महीने के दौरान शौहर-बीवी में मनमुटाव कम हो जाये, दोनों में सुलह-समझौते की गुंजाइश पैदा हो और तलाक तक की नौबत ही न आये. यही शरीयत के हिसाब से तलाक का जायज तरीका है.
लेकिन, केंद्र सरकार सिर्फ तीन तलाक को ही नहीं, बल्कि तलाक के इस तरीके पर दखल देना चाहती है और कोर्ट के जरिये ही मुसलिम महिलाओं को तलाक दिलाना चाहती है. यह सही है कि जिस तरह से कहीं-कहीं पर कुरान के खिलाफ जाकर तीन तलाक हो रहा है, वह धर्म नहीं हुआ, बल्कि एक सामाजिक बुराई हुई. इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह कहना सही है कि अगर यह धर्म का मसला नहीं होगा, तो वह दखल नहीं देगा. इस सामाजिक बुराई को रोके जाने की सख्त जरूरत है.