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गांधी : पर्यावरणवाद के आदि प्रवर्तक
गांधी की राह, देश की जरूरत : पर्यावरणवाद के आदि प्रवर्तक गांधी के सत्य और अहिंसा पर आधारित मानव कर्म का स्वाभािवक प्रतिफल है पर्यावरण संरक्षण विजय कुमार चौधरी अध्यक्ष बिहार विधानसभा चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं. चंपारण ही दक्षिण अफ्रीका के बाद गांधी के सिद्धांतों की प्रयोगशाला बना था और […]
गांधी की राह, देश की जरूरत : पर्यावरणवाद के आदि प्रवर्तक
गांधी के सत्य और अहिंसा पर आधारित मानव कर्म का स्वाभािवक प्रतिफल है पर्यावरण संरक्षण
विजय कुमार चौधरी
अध्यक्ष
बिहार विधानसभा
चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं. चंपारण ही दक्षिण अफ्रीका के बाद गांधी के सिद्धांतों की प्रयोगशाला बना था और चंपारण सत्याग्रह में ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का बीजारोपण हुआ था. इस शताब्दी वर्ष में सारे देशवासी गांधी को शिद्दत से याद कर रहे हैं.
बिहारवासी स्वाभाविक रूप से ज्यादा उत्साहित हैं, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका से गांधी के भारत आगमन का सीधा एवं प्रत्यक्ष संबंध चंपारण यानी बिहार से है. बिहार सरकार ने भी इस वर्ष अनेक तरह के आयोजन करने का कार्यक्रम बनाया है. यह वक्त है, जब हम गांधी के नेतृत्व, आदर्श, सिद्धांतों एवं उनके बताये रास्तों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता पर गौर करें. यूं तो गांधी के व्यक्तित्व एवं विचार इतने व्यापक थे कि उनसे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक हर क्षेत्र आच्छादित है. उनके मूलभूत सिद्धांत बहुत हद तक अपने आप में आज भी मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उतने ही प्रभावकारी दिखते हैं. सामाजिक क्षेत्र में शोषित, दलित, उपेक्षित वर्ग के उत्थान की उनकी सोच आज भी प्रभावी है.
आर्थिक क्षेत्र में बड़े उद्योगों के बनिस्पत कुटीर एवं घरेलू उद्योग को बढ़ावा देना आधुनिक समावेशी विकास के सिद्धांत को ही निरुपित करता है. इसी तरह धार्मिक एवं आध्यात्मिक मामले में मानव-प्रेम एवं मानव के अंत:करण की पवित्रता की उनकी सोच आज भी प्रासंगिक है. लेकिन, इन सबके अलावा एक क्षेत्र, जिसमें गांधी के विचार न सिर्फ जीवित हैं, बल्कि लगातार अंकुरित एवं पल्लवित हो रहे हैं, वो है ‘प्रकृतिवाद’ एवं ‘पर्यावरणवाद’ का.
प्रकृति एवं पर्यावरण के विषय में गांधी अपने समय से सौ वर्ष आगे की देखते एवं सोचते थे. गांधी काल में प्रकृति या पर्यावरण संरक्षण के संबंध में न जागरूकता थी और न ही ऐसी कोई अवधारणा थी. कम जनसंख्या एवं प्रचुर प्राकृतिक संसाधन की उपलब्धता के कारण पर्यावरणीय समस्याएं उभर नहीं पायी थीं. परंतु, यह गांधी जैसे महान चिंतक की दूरदृष्टि थी, जो आज प्रकृति या पर्यावरण संरक्षण के जिन समस्याओं से हम जूझ रहे हैं, उन सबके निवारण के उपाय उनके विचारों में दिखते हैं. गांधी का प्रकृति प्रेम अद्भुत एवं अतुलनीय था. प्रकृति को वे संपूर्णता में देखते थे एवं उसे मानव जीवन का एकमात्र आधार मानते थे. उनके अनुसार प्रकृति उन्हें उत्साहित एवं रोमांचित करती थी एवं आनंदातिरेक में पहुंचाती थी.
वे प्रकृति को ऊर्जा एवं प्रेरणा के एकमात्र स्रोत के रूप में देखते थे. वे मानते एवं कहते थे कि उन्होंने प्रकृति के अलावा किसी दूसरे से प्रेरणा नहीं ली और प्रकृति ने उनके विश्वास के साथ कभी धोखा नहीं किया. बकौल गांधी, प्रकृति पृथ्वी पर सभी जीवों को अपने-अपने दायरे में रहना और जीना सिखाती है. मनुष्य अगर अन्य जीवों की तरह अपने दायरे में रहे और अपने स्वार्थवश दूसरे जीवों का अहित न करे, तो इस पृथ्वी पर हमेशा शांति एवं समरसता रहेगी. उनके अनुसार मनुष्य के तीन तरह के पोषण होते हैं- भोजन, पानी एवं हवा, जो हमें प्रकृति से ही मिलते हैं.
इन तीनों चीजों की आवश्यकता एवं उपयोगिता के परिप्रेक्ष्य में वे कहते थे, भोजन के बिना आदमी कुछ दिन तक जिंदा रह सकता है. पानी के बिना बहुत कम दिन जिंदा रह सकता है. परंतु, हवा के बिना वह एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता है. ज्यादा परेशानी इसलिए होती है कि वह प्रकृति प्रदत्त इन तीनों चीजों का महत्व और कीमत का सही आकलन नहीं करता है. वे हमेशा तीनों चीजों की शुचिता पर जोर देते थे.
पर्यावरणवाद या प्रकृतिवाद का आज की तरह विकसित अवधरणा अनुपस्थित थी, परंतु प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण की मूल बातें गांधी के विचारों में स्पष्ट रूप से निरुपित हैं. यह काबिले-गौर है कि सत्य और अहिंसा के संबंध में उनके मौलिक विचार का जुड़ाव भी किसी-न-किसी रूप में पर्यावरण संरक्षण से है. गांधी के विचारों में प्रकृति ही सत्य है, जो मानव जीवन का आधार है. अहिंसा प्रकृति के सभी जीवों के साथ-साथ
सहजीविता का ही दूसरा नाम है. गांधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित मानव व्यवहार एवं कर्मों का स्वाभाविक प्रतिफल एवं निष्कर्ष प्रकृति या पर्यावरण संरक्षण ही होता है. पेड़-पौधे अथवा गैर-मनुष्य जीवों को मनुष्य द्वारा क्षति नहीं पहुंचाना ही तो प्रकृतिवाद का मूल सिद्धांत है.
दूसरी तरफ, बड़े-बड़े कल-कारखानों की जगह छोटे-छोटे कुटीर एवं लघु उद्योगों की वकालत करके गांधी ने आजकल बड़े उद्योगों से होनेवाले पर्यावरणीय क्षति का पूर्वानुमान ही तो किया था, इसके अनुसार मानवीय हितों को सुरक्षित करने की धारणा रखी थी. गांधी के प्रतीकों के रूप में आज भी चरखा एवं खादी पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए कारगर विकल्प के रूप में जाना जाता है.
इस प्रकार प्रकृति एवं पर्यावरण से जुड़े गांधी के विचारों का संग्रहण ही आज पर्यावरणवाद के रूप में पनप रहा है. इनके अलावा आधुनिक भारत के पर्यावरण से जुड़े विभिन्न आंदोलनों पर नजर डालें, तो इन पर भी गांधीवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है. हिमालय के जंगलों के पेड़ों की कटाई के विरोध में उतराखंड के चमोली जिले में सुंदरलाल बहुगुणा एवं चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में हुए ‘चिपको आंदोलन : 1973’ एक प्रमाण है.
1978 में केरल के पालकड के ‘साइलैंट वैली’ क्षेत्र में जल विद्युत परियोजना का विरोध भी इसी परिप्रेक्ष्य में था. बिहार के भी सिंहभूम जिले में ‘जंगल बचाओ आंदोलन 1982में आरंभ हुआ.
कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ और शिमोगा जिले का ‘अप्पिको आंदोलन 1983 में वहां के जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन का ही दक्षिणी रूपांतरण था. दो-तीन दशक पहले गुजरात में नर्मदा नदी पर बड़े बांध निर्माण कार्य के विरोध में मेधा पाटेकर एवं बाबा आम्टे के नेतृत्व में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन 1985 में और 1990 के दशक में उत्तराखंड के टिहरी में भागीरथी नदी पर बनने वाले डैम के विरोध में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चले आंदोलन के रूप पर विचार करना लाजिमी है. ये आधुनिक भारत में पर्यावरण से जुड़े महत्वपूर्ण जन आंदोलन रहे हैं.
इन सब आंदोलनों के लक्ष्य, स्वरूप एवं नेतृत्व पर अगर गौर करें, तो एक ही तार एवं एक ही रौशनी जो इन सभी आंदोलनों से गुजरती दिखती है, वह है गांधीवाद. चाहे वह पेड़ों या जंगलों की सुरक्षा के संबंध में गांधी के विचार हों या फिर आंदोलन का सत्याग्रही गांधीवादी तरीका हो. इस प्रकार आधुनिक पर्यावरणीय जागरूकता एवं इसके संरक्षण की सक्रियता सीधे-सीधे गांधी के विचारों से उदित होती प्रतीत होती है.
प्रकृति एवं पर्यावरण के संबंध में गांधी के विचारों का उत्कर्ष उनके न्यासधरिता के सिद्धांतों में दिखता है. न्यासधरिता का सिद्धांत गांधी के आत्मा के बहुत करीब था और वे इसे प्राकृतिक एवं भौतिक दोनों संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में वांछनीय मानते थे. उनके अनुसार मनुष्य को सिर्फ आवश्यकता के अनुरूप ही अर्थ का उपभोग करना चाहिए एवं उससे अधिक उपलब्धि संपत्ति का उपयोग एक न्यासधारी के रूप में करना चाहिए. न्यासधरिता में किसी संपत्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता है, बल्कि वह आमजनों के हित में उपयोग किया जाता है. गांधी ने न्यासधरिता के इस सिद्धांत को प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में भी उतना ही प्रभावी एवं वांछनीय माना है.
इस संदर्भ में उन्होंने मानव विकास के क्रम में प्रकृति के संरक्षण पर जोर देते हुए कहा कि कोई मानव-पीढ़ी उस समय के उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का न्यासधारी है. उसे सिर्फ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अथवा जीविका के न्यूनतम स्तर को बनाये रखने के लिए ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना चाहिए. यह भी ख्याल रहे कि जितने प्राकृतिक संसाधनों का हम दोहन करते हैं, उतनी ही मात्रा में उन संसाधनों का
पुनर्भरण करना भी हमारा दायित्व होता है. इसलिए अगर हम अपनी स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते हैं तो हम आगे आनेवाली पीढ़ी को भी एक सुरक्षित प्राकृतिक माहौल सौंप सकते हैं. सही मायने में यही तो आधुनिक पर्यावरणवाद है.
इस रूप में गांधी न सिर्फ पर्यावरणवाद के आदि प्रवर्तक थे, बल्कि उनके विचार ही आज प्रस्फुटित और पुष्पित होकर पर्यावरणवाद का स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं.
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