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आइटी इंडस्ट्री : कम हो रहे हैं रोजगार के अवसर, अगले तीन साल में छह लाख नौकरियां खतरे में

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् पिछले कुछ दिनों से सूचना तकनीक के क्षेत्र में सक्रिय अनेक कंपनियों से लोगों की छंटनी की खबरें लगातार आ रही हैं. जानकारों का कहना है कि यह दौर अगले तीन सालों तक जारी रह सकता है और छह लाख तक नौकरियां जा सकती हैं. बढ़ते ऑटोमेशन, वीजा-संबंधी समस्याएं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 21, 2017 5:56 AM
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संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
पिछले कुछ दिनों से सूचना तकनीक के क्षेत्र में सक्रिय अनेक कंपनियों से लोगों की छंटनी की खबरें लगातार आ रही हैं. जानकारों का कहना है कि यह दौर अगले तीन सालों तक जारी रह सकता है और छह लाख तक नौकरियां जा सकती हैं. बढ़ते ऑटोमेशन, वीजा-संबंधी समस्याएं और मांग में कमी जैसे कारणों के साथ कंपनियों की कार्यशैली और नीतिगत कमियां भी इसके लिए जिम्मेवार हैं.
इस क्षेत्र की प्रतिनिधि संस्था नैसकॉम ने कहा है कि स्थिति से निपटने के लिए करीब आधे कर्मचारियों को फिर से प्रशिक्षित करना होगा, ताकि तकनीकी विकास का मुकाबला हो सके. सरकार को भी इस पर त्वरित ध्यान देना चाहिए. इस प्रकरण के प्रमुख बिंदुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन िदनों…
आज चारों ओर आइटी उद्योग पर छाये तथा-कथित निराशा के बादलों की चर्चा है. बातें हो रही हैं किस प्रकार नौकरियां खत्म होती जा रहीं हैं, और अमीर विश्व- जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और सिंगापुर शामिल हैं- अपने वीसा नियमों को कठोर बना कर हमारे सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र को तोड़ रहे हैं. साथ ही, स्थानीय लोगों को अधिक नौकरियां देने की बात से भारत के कॉलेजों से निकलते छात्रों के प्लेसमेंट पर मंडराते खतरों की भी बातें हो रहीं हैं.
ऐसा लग रहा है कि समस्या गंभीर है, और हमें तुरंत की कुछ कर इसे ठीक करना होगा. लेकिन, जो असली समस्या है वो इस दृश्य परिस्थिति के पीछे छुपी हुई एक ऐसी मूलभूत स्थिति है, जिस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता. हम पूर्ण विश्लेषण कर देखेंगे वस्तुस्थिति क्या है.
एक उद्योग का बनना
अस्सी के दशक से पहली बार सुनाई देने लगा कि भारत में एक नया उद्योग खड़ा होने लगा है- आइटी उद्योग. जो दूरदर्शी सोच एफसी कोहली ने टीसीएस के शुरुआती दौर में दिखायी, वो राजीव गांधी द्वारा लाये उदारीकरण के पहले दौर में इनफोसिस जैसी कंपनियों ने अपने मॉडल को विस्तारित करने में भी दिखायी. साल 1990 के मध्य तक कुछ सौ करोड़ रुपयों का सालाना राजस्व करनेवाली प्रमुख पांच-छह कंपनियां बन चुकी थीं, और यह स्पष्ट था कि ग्लोबल डिलीवरी मॉडल (जीडीएम- नारायण मूर्ति द्वारा रचित) एक सच्चाई बन चुकी है.
प्रसिद्ध लेखक थॉमस फ्रीडमैन द्वारा लिखित ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ ने 2005 में भारत की आइटी आउटसोर्सिंग महारत पर मुहर लगा दी. गली-कूचों में नये-नये इंजीनियरिंग कॉलेज (अनेक ‘विश्व-स्तरीय’) खुलते चले गये, जहां न तो शिक्षक थे, न समुचित सुविधाएं. कुछ था तो बस थोकबंद तरीके से होनेवाले प्लेसमेंट, चूंकि ये आइटी कंपनियां अपने विशाल ट्रेनिंग सेंटर्स में इन नौजवान (और अप्रशिक्षित) इंजीनियरों को सिरे से तैयार करती थीं. यह एक सिस्टम बन गया था, जो जबरदस्त गति से चला. इसका पूरा श्रेय निश्चित रूप से हमारे प्रतिभाशाली आइटी उद्यमियों को जाता है.
किंतु आज वही मुहर और प्रतिष्ठा भारत की कंपनियों के गले का बोझ बन गया है, और उन्हें अमीर विश्व को समझाना पड़ रहा है कि वे उनकी नौकरियां ‘खा’ नहीं रहे हैं! इनके चेहरों पर उड़ती हवाइयां सबूत हैं कि केवल शुद्ध मुनाफे के लिए किये गये व्यापारों में बाहरी कारक किस प्रकार बवंडर मचा सकते हैं. अपने स्वयं के सस्ते मानव संसाधनों को छोड़ कर अब इन्हें विदेशों में ही, तीन से चार गुना अधिक महंगे विदेशी इंजीनियरों को नौकरियां देनी पड़ रहीं हैं. शायद ‘कॉस्ट आर्बिट्राज’ की दौड़ यहीं तक होनी थी.
विश्व स्थिति का पलटना
साल 2017 में, विश्व की राजनीतिक स्थिति 2000 से 2010 के मुकाबले पूरी तरह पलट चुकी है. ऐसा क्यों हुआ? इसके पांच कारण हैं- (1) अमेरिका में बड़ा सत्ता और सोच परिवर्तन, (2) यूरोप के अनेक देशों की खस्ता माली हालत, (3) विश्व व्यापार वृद्धि दर का कम बने रहना, (4) अनेक प्रकार के सामरिक तनाव, और (5) वैश्वीकरण की 30 वर्षों से चल रही आंधी का अपना विश्वसनीयता खो देना, चूंकि समृद्धि का समतापरक विस्तार हुआ ही नहीं, और अमीर अत्यधिक अमीर बन बैठे (आज 8 लोगों के हाथों में 360 करोड़ लोगों के बराबर दौलत है!).
इसका पूरा दबाव अब उन देशों पर आ रहा है, जो दूसरों की खुली सोच पर निर्भर रहे, और सेवा प्रदाता बने रहे. हमारी सभी भारतीय कंपनियां सबसे कम जोखिम का खेल खेलती रहीं- अर्थात सेवा-प्रदाता बन दूसरों के लिए सिस्टम बनाना, चलना और मेंटेन करना. आज भारतीय आइटी को जो मार पड़ी है, वो स्मैक के रूप में जानी जाती है- एसएमएसी. अर्थात सोशल, मोबाइल, एनालिटिक्स और क्लाउड. इसी स्मैक ने नौकरियां खाने का काम किया है, चूंकि इसमें स्वचालन बहुत होता है. यकीन जानिये की आइटी उद्योग की मुनाफेदार दौड़ जितनी हो सकती थी, हो चुकी. अब बदल चुके प्लेटफॉर्म्स (स्मैक), अधिक महंगे मानव संसाधन, कड़े वीजा नियमों और बदलती व्यापारिक स्थितियों के चलते पुराने दिन लौट कर नहीं आनेवाले हैँ.
हम देखते रहे
हमारी कंपनियों में से एक ने भी एक भी ऐसा विश्व-स्तर पर धमाका करनेवाला स्मैक ब्रांड नहीं बनाया, जो दुनियाभर के नागरिकों को आकर्षित कर पाता. और तो और, हमने खुशी-खुशी अपने विशाल बाजार को विदेशों में बने ब्रांड्स के लिए खोलते चले गये. जी हां, गूगल, फेसबुक, यूट्यूब, अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट, ट्विटर और अन्य. इन ब्रांड्स ने पूरे भारत के विशाल कंज्यूमरों ने इंटरनेट बाजार पर ऐसी पकड़ बना ली कि हम भारतीय महज उपभोक्ता बन कर रह गये, और ये मालिक!
और यह सब तब हुआ, जब भारत के पास तकनीकी बुद्धिमता का अथाह भंडार है- गूगल और माइक्रोसॉफ्ट दोनों के प्रमुख भारतीय ही तो हैं! लेकिन भारत में न ऐसी सोच रही, न निवेश करने का जज्बा रहा कि हम ऐसे ब्रांड्स बनायें, जो दुनिया पर राज करें. और तो और, हमारे सभी बड़े राजनेता और सरकारी विभाग और कंपनियां भी इन्हीं सुपर प्लेटफॉर्म्स पर आश्रित हो गये हैं!
इससे पहले की भारत की बड़ी विफलता पर और बात करें, एक नजर डालें भारत के धुर-विरोधी देश चीन पर. चीन ने क्या किया? कुछ तो अपनी सेंसरशिप की मजबूरियों के चलते, और कुछ अपनी राष्ट्रवादिता के चलते, उन्होनें अपने खुद के ब्रांड्स बना लिये. और आज अति-विशाल चीनी कंज्यूमर इंटरनेट ब्रांड्स बन कर खड़े हैं, जिनमें हैं बाइडू (सर्च इंजन- गूगल का विकल्प), रेनरेन (चीन का अपना ट्विटर), सिना वाइबो (चीन का फेसबुक), अलीबाबा (चीन का अमेजन), दिदि चुशिंग (उबर का विकल्प). ध्यान रहे, इनमें से एक भी क्षेत्र में भारत का एक भी विशाल ब्रांड नहीं है- ब्रांड तो छोड़िये, इस पर बात तक कोई करना ही नहीं चाहता. सब चुप हैं, मानो भारत की संप्रभुता इन अमेरिकी और चीनी हाथों में देने का तय कर बैठे हों!
आज सबसे बहुमूल्य कंपनियों में (बाजार पूंजीकरण के मानक से) शीर्ष दस में से पांच इंटरनेट और टेक्नोलॉजी सुपर कंपनियां हैं- एप्पल, गूगल (अल्फाबेट), अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक ये सभी मूलतः डाटा के व्यापारी हैं- ये हमें कोई ठोस वस्तुएं नहीं बेचतीं, केवल डाटा आधारित सेवाएं बेचती हैं. भारत में यह बड़ी भ्रांति है कि गूगल और फेसबुक फ्री सेवाएं हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है! गूगल एक बेहद महंगी सेवा है, चूंकि हम अपना सारा डाटा (जानकारियां, नाम, पते, नंबर, फोटो) उसे देते चले जा रहे हैं. हमारे बारे में हमसे ज्यादा ये कंपनियां जानती हैं! और उससे चलती हैं इनकी मुनाफेदार सेवाएं और विज्ञापन.
तो आनेवाले समय में क्या होगा? याद करें कारगिल युद्ध और अमेरिका का भारत को जीपीएस डाटा देने से इनकार कर देना. भारत ने मुंह की खाकर सीखा और अंततः हमारे वैज्ञानिकों ने अपना स्वयं का क्षेत्रीय जीपीएस बना लिया (सात उपग्रहों का एक संजाल जिसे ‘नाविक’ कहते हैं). देर-सवेर, जब आइटी में हमारी पराधीनता हमें ऐसा ही कड़वा सबक देगी, तब हमें समझ आयेगा कि अपने आप को पूरी तरह इन विदेशी ब्रांड्स की हवाले कर हमने संप्रभुता ही त्याग दी है. हम एक डिजिटल उपनिवेश बन चुके हैं, हमारी अपनी कोई ब्रांड नहीं और हमारे अपने कोई राजस्व संसाधन नहीं!
आइटी उद्योग की वर्तमान समस्याएं इन बड़ी सामरिक समस्याओं के सामने बौनी हो जाती हैं. समय आ गया है कि हम प्रतिभाशाली भारतीय अपनी डिजिटल गुलामी का जश्न मनाने के बजाय विश्व के सिरमौर बनने का प्रयास शुरू करें. गूगल को अपना मालिक बनाने के बजाय अपना गूगल बना कर अमेरिका को हम पर निर्भर करें.
इस सोच के बिना, 2030 तक, हम केवल नाम के संप्रभु रह जायेंगे, जब सारा डाटा और आंकड़े विदेशियों के हाथों में होंगे, शर्तें वे तय कर रहे होंगे, और बगले झांकने के सिवाय हमारे उद्यमियों के पास कोई चारा नहीं रहेगा. हां, शायद तब भी, गूगल का सीइओ कोई भारतीय ही होगा!
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