ईरान में चुनाव : कांटों से भरा हसन रूहानी का दूसरा कार्यकाल

ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में नरम रूझान के हसन रूहानी की जीत कोई आश्चर्यजनक परिणाम नहीं है. उनके नेतृत्व में ईरान ने पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने के कोशिश की है तथा आंतरिक अर्थव्यवस्था में बाहरी निवेश के लिए मौका बनाया है. यह भी है कि 1981 के बाद के हर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 24, 2017 6:08 AM
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ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में नरम रूझान के हसन रूहानी की जीत कोई आश्चर्यजनक परिणाम नहीं है. उनके नेतृत्व में ईरान ने पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने के कोशिश की है तथा आंतरिक अर्थव्यवस्था में बाहरी निवेश के लिए मौका बनाया है.

यह भी है कि 1981 के बाद के हर चुनाव में पदस्थ राष्ट्रपति ने दूसरे कार्यकाल के लिए जनादेश हासिल किया है. ईरानी अर्थव्यवस्था और प्रशासन में उदारवाद लाने तथा पश्चिम के साथ रिश्ते सुधारने के साथ रूहानी को मध्य-पूर्व में सऊदी अरब के साथ छद्म लड़ाई तथा सीरिया के गृहयुद्ध से भी निपटना है. उनके प्रदर्शन पर मध्य-पूर्व की राजनीति के भविष्य का बहुत कुछ निर्भर करेगा. राष्ट्रपति रूहानी की जीत के विविध आयामों पर चर्चा आज के इन-डेप्थ में…

पुष्परंजन

ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक

रूहानी समर्थक ईरान की राजनीति पर फिल्म बनायें, तो उसका नाम ‘रिटर्न आॅफ रूहानी’ रख सकते हैं. 1981 से ईरान की राजनीति में यह रवायत सी है कि जो भी राष्ट्रपति सत्ता में रहा है, दूसरी दफा शासन के वास्ते जनता उसे ही वोट देती है. दो करोड़, 27 लाख, 96 हजार 468 मतों से विजयी डाॅ हसन रूहानी का अगला कार्यकाल कांटों से भरा है. देश से बाहर ट्रंप की पश्चिम एशिया नीति रोड़े के रूप में है, तो देश के भीतर कठोर रूढ़िवादियों का दबाव है.

दूसरे नंबर पर रहे कट्टर रूढ़िवादी सैयद इब्राहिम रईसी सादात को 1 करोड़, 54 लाख, 52 हजार, 194 वोट मिले हैं. मुस्तफा मीर सलीम को तीसरा, और मुस्तफा हाशेमी को चौथा स्थान हासिल हुआ है. 1 हजार 636 लोगों ने राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने के वास्ते आवेदन किया था, जिनमें से सिर्फ छह लोगों को गार्जियन काैंसिल की ओर से इजाजत मिली थी. राष्ट्रपति पद की ख्वाहिशमंद 137 औरतों ने भी आवेदन किया था, उनमें से किसी को इस वास्ते अनुमति नहीं मिली. फिर भी ईरान की शासन-व्यवस्था को ‘सुधारवादी’ क्यों कहा जाता है? यह एक बड़ा सवाल है.

12वें राष्ट्रपति का चुनाव

बीते 19 मई को 12वें राष्ट्रपति के वास्ते ईरान में वोट देने की प्रक्रिया दुनियाभर के लिए दिलचस्पी का सबब थी. शुक्रवार सुबह को आरंभ मतदान का रात बारह बजे तक जारी रहना सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र था. मतदान की अवधि चार बार बढ़ायी गयी. मतदान लंबा खिंचने की वजह 1 लाख 27 हजार 600 नगर और ग्राम परिषदों के लिए साथ-साथ वोट डालना था. नगर और ग्राम परिषदों में भी सुधारवादियों की जबरदस्त जीत हुई है. इस मतदान के मद्देनजर भारत में रह रहे ईरानियों के वास्ते नौ पोलिंग स्टेशन बनाये गये थे, जिसमें नयी दिल्ली समेत मैसूर, बेंगलुरु, हैदराबाद, मुंबई, चंडीगढ़, अलीगढ़ जैसे शहरों में वोट डालने का इंतजाम किया गया था.

सबसे ताकतवर सुप्रीम लीडर

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता अयातुल्लाहिल उज्मा सैयद अली खामेनई 4 जून, 1989 से इस सर्वोच्च पद की जिम्मेवारी संभाल रहे हैं. इससे पहले खामेनई 1981 से 1989 तक ईरान के राष्ट्रपति रहे थे.

अली खामेनई, किसी जमाने में अयातुल्ला खुमैनी के करीबी रहे थे. सैयद रूहिल्ला मुसावी खुमैनी, ‘अयातुल्ला खुमैनी’ का असल नाम था, जिन्होंने 1979 में ईरानी क्रांति का नेतृत्व किया था. अमेरिका का पिट्ठू कहे जानेवाले पहलवी शासन के अंत के बाद 3 दिसंबर, 1979 को अयातुल्ला खुमैनी को ईरान का सर्वोच्च नेता घोषित किया गया था. असीमित अधिकार वाले सर्वोच्च नेता, ईरान की 12 सदस्यीय ‘शोराये निगहबान-ए-कानून-ए-अस्सासी’ (गार्जियन कौंसिल) को नियंत्रित करते हैं.

गार्जियन कौंसिल यह तय करता है कि ईरान में राष्ट्रपति से लेकर नगर और ग्राम परिषदों का चुनाव किसे लड़ना है, और किसे नहीं. ईरानी सत्ता का केंद्र ‘गार्जियन कौंसिल’ है, जिसके सर्वेसर्वा सर्वोच्च नेता हैं. 3 जून, 1989 तक अयातुल्ला खुमैनी जीवित रहे. अमेरिका से टकराने की वजह से पूरी दुनिया में वह चर्चा के केंद्र में रहे. खुमैनी के सुपुर्द-ए-खाक के बाद 4 जून, 1989 को अली खामेनई, ‘असेंबली आॅफ एक्सपर्ट’ की स्वीकृति से ईरान के दूसरे सर्वोच्च नेता चुने गये.

राष्ट्रपति कितना रसूखदार

हालांकि, कार्यपालिका प्रमुख के रूप में ईरान का राष्ट्रपति सत्ता संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मगर वह हर फैसले के लिए सर्वोच्च नेता का मुंह देखता है. ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद सर्वोच्च नेता को सबसे ताकतवर बनाया गया. सर्वोच्च नेता ईरान की सेना का सर्वोच्च कमांडर है, वह घरेलू और विदेश नीति तय करता है. चार वर्षों के लिए निर्वाचित राष्ट्रपति ईरान की आर्थिक नीति के वास्ते जिम्मेवार है. मंत्रिमंडल का गठन राष्ट्रपति करता जरूर है, मगर उसके लिए उसका अनुमोदन निगरानी परिषद् और संसद से कराना होता है.

दो कार्यकाल के तुरंत बाद, तीसरे टर्म के लिए राष्ट्रपति पद संभाल रहा व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता. चुनाव जीतने के लिए पचास प्रतिशत से अधिक मत का आना आवश्यक है. उस हिसाब से डाॅ हसन रूहानी को 57 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं. उनके प्रतिद्वंद्वी इब्राहिम रईसी को 39 फीसदी वोट मिले हैं. 2013 के चुनाव में डाॅ रूहानी को 50.8 प्रतिशत मत मिले थे.

औरतों की आजादी

ईरान के सुधारवादी शासन में औरतों की आजादी एक बड़ी चुनौती है. राष्ट्रपति पद के वास्ते 137 औरतों द्वारा आवेदन करना इस बात का सुबूत है कि वहां महिलाएं नेतृत्व संभालने के लिए बेचैन हैं.

हिजाब या सिर पर स्कार्फ का अनिवार्य रूप से लगाया जाना नयी पीढ़ी को नागवार गुजरता है. ब्यूटी पार्लरों की बढ़ती संख्या, होटलों-कैफे, पार्टियों में औरतों की शिरकत ईरान के बदलते समाज का आईना है. इस्लामी क्रांति से पहले ईरान में 42.33 फीसदी महिलाएं शिक्षित हुआ करती थीं, अब उनका प्रतिशत बढ़ कर 97.70 हो गया है. राष्ट्रपति रूहानी ने अपनी उपलब्धियों में यह गिना दिया था कि सात लाख महिलाओं को उनके शासन ने रोजगार उपलब्ध कराया था. मगर, ईरानी महिला राष्ट्रपति क्यों नहीं बन सकती? इस सवाल का उत्तर देने से सुधारवादी कतराते हैं.

रूहानी की चुनौतियां

राष्ट्रपति शासन के दूसरे दौर में हसन रूहानी के लिए ट्रंप की पश्चिम एशिया नीति भी एक चुनौती के रूप में रहेगी. सऊदी अरब और इजराइल के दौरे में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के बयान से लग रहा है कि ईरान के प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम को लेकर व्हाॅइट हाउस से टकराव की स्थिति रहेगी.

ईरान ने ट्रंप के बयान को हस्तक्षेपपूर्ण, ईरानोफोबिया फैलानेवाला, और उसके विरुद्ध युद्ध भड़कानेवाला करार दिया है. ईरान इस समय दो लाख बैरल क्रूड आयल रोजाना निर्यात कर रहा है. राष्ट्रपति रूहानी ने कहा कि तेल आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भरता में तीस फीसदी कमी हम ला चुके हैं, उसे और कम करना है. ईरान की इस रणनीति का असर तेल उत्पादक देशों का संगठन ‘ओपेक’ पर कितना पड़ता है, यह समीक्षा का विषय होगा. रूहानी के लिए रोजगार सृजन, उद्योग-व्यापार को समृद्ध करना एक बड़ी चुनौती होगी.

चर्चा में मोदी का रूहानी प्रेम

राष्ट्रपति पद पर दूसरी बार डाॅ हसन रूहानी के चुने जाने के बाद बधाइयों का तांता लग गया. मगर, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भेजा संदेश ईरानी मीडिया में चर्चा का विषय बना है. पीएम मोदी ने फारसी और अंगरेजी में लगातार तीन ट्विट किये, और दोनों देशों के बीच विशिष्ट संबंधों को और मजबूत करने की प्रतिबद्धता को दोहराया.

एक ट्विट में मोदी ने कहा, ‘मेरे दोस्त राष्ट्रपति हसन रूहानी को फिर से राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर हार्दिक बधाई. एक-दूसरे संदेश में पीएम मोदी ने कहा, ‘निश्चित रूप से ईरान आपके सक्रिय व सार्थक नेतृत्व में नयी सफलताओं के मार्ग पर अग्रसर रहेगा. मोदी ने ऐसे समय में यह संदेश भेजा है, जब वे इजराइल की यात्रा पर जाने की तैयारी में हैं. ईरान के कुछ टीकाकार इसे भारतीय विदेश नीति का ‘पैराडाइम शिफ्ट’ मान रहे हैं!

रूहानी की जीत और ट्रंप के लिए मौका

डो नाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका और ईरान के संबंधों में कटुता लगातार बढ़ती जा रही है. ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी की दुबारा जीत के मौके पर ही ट्रंप का सऊदी अरब और इजरायल के दौरे को लेकर भी बयानबाजी हुई है. मध्य-पूर्व की राजनीति में अमेरिका की दिलचस्पी और उसके सहयोगियों का ईरान से सीधा टकराव एक खतरनाक दिशा की ओर बढ़ सकता है. लेकिन अनेक पर्यवेक्षक मानते हैं कि ईरानी चुनाव के नतीजे ट्रंप के लिए एक अवसर हैं कि वे कूटनीतिक रास्ते से संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश करें, जैसा कि उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा के कार्यकाल में हुआ था.

जीत के तुरंत बाद रूहानी ने कहा कि ‘चुनाव में हमारे देश का संदेश स्पष्ट हैः ईरान ने दुनिया के साथ हिंसा और अतिवाद से परे बातचीत की राह चुनी है.’ हालांकि इस जीत से रूहानी की चुनौतियां कतई कम नहीं हुई हैं. द न्यूयॉर्क टाइम्स में ठॉमस एर्डब्रिंक ने लिखा है- ‘अच्छे अंतर से जीत के बावजूद 68 वर्षीय रूहानी को देश के भीतर और बाहर ठोस अवरोधों का सामना करना है. सबसे पहले तो उन्हें देश की जड़ अर्थव्यवस्था में पूरी तरह बदलाव कर गति लाना होगा.’ वाशिंग्टन-स्थित नेशनल इरानी-अमेरिकी काउंसिल के अध्यक्ष त्रिता पारसी का कहना है कि अपेक्षाकृत अधिक नरमपंथी रूहानी की जीत ईरान के अनिर्वाचित संस्थाओं को बड़ा झटका है जिनकी वजह से रूहानी को पिछले कार्यकाल में काम करने में रुकावट हुई थी. यह अमेरिका के उन लोगों के लिए भी झटका है जो या तो मतदान का बहिष्कार करने की बात कह रहे थे या फिर कट्टरपंथी इब्राहिम रईसी को जीताना चाहते थे ताकि दोनों देशों के बीच टकराव तेज हो सके. अब रूहानी को मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कदम उठाना होगा, दुनिया के साथ रिश्तों को बेहतर करना होगा और ईरान के आर्थिक विकास के लिए अग्रसर होना होगा.

पारसी ने रेखांकित किया है कि टकराव की जगह कूटनीति को चुनने के लिए ट्रंप प्रशासन के लिए भी यह एक अवसर है. अपने चुनाव-प्रचार के दौरान रूहानी ने साफ कहा था कि वे ईरान पर लगे बचे-खुचे गैर-परमाणु प्रतिबंधों को हटाना चाहते हैं. इसका मतलब स्पष्ट है कि वे अमेरिका के साथ कूटनीतिक बातचीत को आगे ले जाने के इच्छुक हैं. अगर ट्रंप प्रशासन अपनी तनी हुई मुठ्ठी को थोड़ा ढीला कर दे, तो मध्य-पूर्व में अमेरिका के राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा को बेहतर कर सकता है जो कि टकराव और युद्ध से हासिल नहीं किया जा सका है.

रूहानी की जीत के समय ही राष्ट्रपति ट्रंप ईरान के शत्रु और अपने मित्र देश सऊदी अरब के साथ कई तरह के समझौते कर रहे थे जिसमें 110 बिलियन डॉलर का हथियार-खरीद समझौता भी है. द इंडिपेंडेंट में रॉबर्ट फिस्क ने टिप्पणी की है कि ट्रंप सुन्नी सऊदी अरब के शिया ईरान और उसके सहयोगियों के खिलाफ युद्ध की प्यास को उकसा रहे हैं. ईरान में चुनाव से एक नतीजा आया है, जो कि सऊदी अरब में ट्रंप के साथ जुटे 50 तानाशाह अपने देश में कराने के लिए सोच भी नहीं सकते हैं. फिस्क का मानना है कि अब सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि ट्रंप प्रशासन के पागलपन और उसके सुन्नी युद्ध तंत्र के समर्थन पर रूहानी की प्रतिक्रिया क्या होती है.

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