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कूटनीतिक मामलों के जानकार पुष्पेश पंत को पढ़ें : विदेश नीति में कुछ सफल रही मोदी सरकार

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार मोदी सरकार की तीसरी सालगिरह का जश्न जिस जोश से मनाये जाने का अंदाजा लोग लगा रहे थे, वह नजर नहीं आ रहा. इसका सबसा बड़ा कारण कश्मीर की उपद्रवग्रस्त घाटी में हालात का लगातार बिगड़ना है. वैसे तो कानून अौर व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेवारी हैं, पर जब इसका सीधा […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
मोदी सरकार की तीसरी सालगिरह का जश्न जिस जोश से मनाये जाने का अंदाजा लोग लगा रहे थे, वह नजर नहीं आ रहा. इसका सबसा बड़ा कारण कश्मीर की उपद्रवग्रस्त घाटी में हालात का लगातार बिगड़ना है.
वैसे तो कानून अौर व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेवारी हैं, पर जब इसका सीधा असर देश की एकता, अखंडता अौर संप्रभुता पर पड़ रहा हो, तो केंद्र सरकार खुद को जवाबदेही से मुक्त नहीं मान सकती. वहां तैनात सुरक्षाकर्मियों पर बेलगाम पथराव तक यह चुनौती सीमित नहीं. चुनाव आयोग को तक यह स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा है कि इन परिस्थितियों के मद्देनजर वहां चुनाव नहीं करवाये जा सकते. अर्थात् जिन्हें हम कायर, देशद्रोही कहते हैं, वह हमारे जनतंत्र को नष्ट-भ्रष्ट करने में कामयाब होते नजर आ रहे हैं. यहां यह जोड़ने की जरूरत है कि इस सीमावर्ती राज्य में सत्ता में भागीदारी की भाजपा की मौकापरस्त महत्वाकांक्षा ही इस दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है.
अंग्रेजी की पुरानी कहावत है कि शेर की सवारी का लालच जानलेवा जोखिम पैदा करता है. उतरना असंभव होता जाता है. कश्मीर की भाजपा-पीडीपी साझा सरकार की भयंकर नाकामयाबी के बावजूद सरकार को बर्खास्त न करना केंद्र की लाचारी को जगजाहिर करता रहा है.
कुलभूषण जाधव के प्रकरण ने भी ही दर्शाया है कि इस समस्या के संवाद से समाधान की संभावना कितनी कम है. अंतरराष्ट्रीय अदालत ने हमें क्षणिक राहत दी है, पर यह भरम पालना असंभव है कि यह एक राजनयिक जीत है. कश्मीर के मामले में असमंजस ने ट्रंप जैसे ‘दोस्तों’ को मध्यस्थता के लिए ललचाया है. यह सुझाना अौर भी घातक नादानी है कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है. अमेरिका ही नहीं, चीन अौर सऊदी अरब समेत अनेक मुसलिम देश उसके साथ हैं.
रूस का अडिग समर्थन भी आज हमें सुलभ नहीं. इसी सिलसिले में यह याद रखने की जरूरत है कि कश्मीर-पाकिस्तान-चीन की उलझी गुत्थी भारत के सैनिक खर्च को कमरतोड़ बनाती जा रही है अौर किसी भी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने का वादा खोखला बड़बोलापन ही बचा रहता है.
इस सबसे बड़ी असफलता ने तीन साल की उन बहुत सारी उपलब्धियों को फीका कर दिया है, जिन पर मोदी अौर एनडीए गर्व कर सकते थे. नोटबंदी से जिस अस्थिरता अौर आर्थिक मंदी की आशंका उत्पन्न हुई थी, वह निर्मूल साबित हुई. आम जनता का समर्थन प्रधानमंत्री को मिलता रहा. उत्तर प्रदेश के चुनावों में भारी जीत इसका प्रमाण है. आज भी वंचित मतदाता को लगता है कि इस सरकार से त्वरित आर्थिक विकास की आशा की जा सकती है.
पहली बार कोई प्रधानमंत्री सीधे जनता को संबोधित कर मन की बात साझा कर रहा है. यह शिकायत नाजायज है कि शौचालय हों या परीक्षा के पहले मानसिक तनाव, ये राष्ट्रीय महत्व के विषय नहीं. आबादी का बड़ा हिस्सा इनसे रोज प्रभावित-पीड़ित रहता है. ‘छोटे’ समझे जानेवाले मुद्दों के सहारे एक बड़ी सार्वजनिक बहस को आरंभ करने का प्रयास सराहनीय है.
मेरी नजर में ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘कुशल भारत अभियान’, ‘भारत में निर्मित अौर भारत के लिए निर्मित अभियान’ को कोरी जुमलेबाजी करार देकर खारिज करने की जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए. यह काम सरकारी परियोजना या प्रायोजित-पोषित कार्यक्रम नहीं समझे जा सकते.
जिस तरह यूपीए के राज में ‘राष्ट्रीय सलाहकार समिति’ गैरसरकारी स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से विकास अौर सामाजिक न्याय अभियान को दूर्वाजड़ों तक पहुंचाने की बात सोच रही थी, कुछ वैसे ही इन सपनों को साकार करने के लिए जनता को अपनी भूमिका/कर्तव्य के बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा.
प्रधानमंत्री धन जन बीमा योजना हो या बैंक खाते इनकी आलोचना सहज है, पर शहरों के बाहर इन्होंने निश्चय ही सबसे गरीब तबके की जिंदगी को बेहतर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है. ‘उज्ज्वला’ के बारे में भी यही कहा जा सकता है. गैस को रसोई ईंधन के रूप में पहली बार इस्तेमाल करनेवाला ही जानता है कि इस सहूलियत का महिला आजादी से कितना घनिष्ठ नाता है.
जरूरतमंद लोगों को जो भी लाभ मिलना है, उसका सीधे खाते में जमा होना अौर आधार कार्ड पर आधारित पहचान को इनसे जोड़ना कम महत्वपूर्ण नहीं समझे जाने चाहिए. इसे ‘निजता’ के ‘बुनियादी’ अधिकार का उल्लंघन कह कर इसकी आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जिंदगी बसर करनेवाले के लिए निजता या व्यक्तिगत ब्यौरों की गोपनीयता कोई मायने नहीं रखती. यह आलोचना भी निरर्थक है कि भाजपा-एनडीए जब विपक्ष में थे, तब उन्होंने इन चीजों- आधार तथा जीएसटी- का विरोध किया था. आज यदि समावेशी विकास के लिए पूर्ववर्ती सरकार के अच्छे काम को यह सरकार जारी रखती है, तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
यह तोतारटंत भी बेकार है कि मंहगाई बेलगाम नहीं बढ़ रही, तो सरकार के उद्यम से नहीं वरन अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दामों में गिरावट अौर अच्छे मॉनसून के कारण ही संभव हुई है. सौभाग्य तथा दुर्भाग्य का संतुलन पांच साल में एक चुनाव से दूसरे तक स्वयमेव होता रहता है.
हर बार किसी की बोई फसल का कुछ न कुछ हिस्सा दूसरा काटता है. अंतरिक्ष में रॉकेट, उपग्रह भेजना हो या बुनियादी ढांचे में सुधार, शिक्षा-चिकित्सा सेवाएं हैं या रोजगार के नये अवसर, इनका विकास तीन साल वाले पैमाने में नहीं नापा जाना चाहिए. भारत जैसे बहुलता से भरे देश में जहां संघीय व्यवस्था है अौर न्यायपालिका निष्पक्ष अौर स्वाधीन वहां हर सफलता का श्रेय कोई भी केंद्र सरकार नहीं ले सकती अौर नहीं हर विफलता का जिम्मा उसके सर फोड़ा जाना चाहिए.
पिछले तीन वर्षों में बढ़ती असहिष्णुता अौर सांप्रदायिक वैमनस्य को लेकर भी अनेक संवेदनशील नागरिक व्यथित चिंतित रहे हैं. हिंसक-अराजक स्वयंभू गौरक्षकों के संक्रामक उत्पात ने इस सरकार की छवि को सबसे ज्यादा कलुषित किया है.
पर, क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि कांग्रेस, सपा, साम्यवादी दलों द्वारा धर्मनिरपेक्षता के बहाने अपने चुनावी लाभ के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण ने ही सांप्रदायिक वैमनस्य को भड़काया है?
जहां विदेश नीति के संचालन में पाकिस्तान को छोड़ मोदी सरकार काफी सफल समझी जा सकती है, वहीं घरेलू मामलों में उसकी लाचारी-नाकामी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. सर्वोच्च स्तर पर प्रतिभा अौर प्रशासनिक कौशल का अभाव साफ झलकता है. शिक्षा,पर्यावरण, महिला कल्याण, स्वास्थ्य से जुडे सवाल उपेक्षित रहते हैं अौर कृषि की दुर्दशा की चिंता चर्चा करनेवाले आज अदृश्य-अश्रव्य होते जा रहे हैं. किसी दैत्याकार भ्रष्टाचार के भंडाफोड़ के अभाव को ही तीन सालों की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं माना जा सकता.
जहां तक विदेश नीति का सवाल है, पाकिस्तान सबसे बड़ी विफलता रहा, तो बांग्लादेश अौर श्रीलंका तथा नेपाल को आश्वस्त करने में मोदी सरकार सफल रही. ममता के हठीले रवैये के कारण तीस्ता जल विवाद भले ही हल नहीं हो पाया हसीना सरकार के साथ संबंध तनाव रहित रहे.
श्रीलंका में चीन की भारत की घेराबंधी की साजिश को निरस्त करने में भी भारत सफल रहा है, वहां की सरकार ने चीनी नौसेना की पनडुब्बी को अपने बंदरगाह मे आकर विश्राम-रखरखाव की अनुमति नहीं दी अौर विपक्षी दलों के चिरोध के बावजूद त्रिंकोमाली मे भारत के सहकार से विराट तेल परियोजना का सूत्रपात किया जा रहा है. मधेसी आंदोलन की छाया भारत-नेपाल संबंधों को प्रभावित करती रही है. इस सरकार ने बड़े संयम अौर कौशल से अपने को नेपाल की आंतरिक राजनीति में दखलअंदाजी के लालच से मुक्त रखा है.
इसके साथ-साथ अपने राष्ट्रीय हितों के बारे में नेपाल को परोक्ष रूप से ही सही स्पष्ट संकेत दिये हैं कि नेपाल की भूमि का दुरुपयोग भारत के सामरिक होतों को नुकसान पहुंचानेवाले किसी विदेशी को नहीं दिया जा सकता. दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा से चीन खिन्न हुआ अौर उसने भारत पर दबाव डालने की कोशिश भी की. यह सराहनीह है कि इस प्रकरण का कोई असर भारत-चीन के आर्थिक रिश्तों पर नहीं पड़ने दिया गया.
इजराइल के साथ संबंधों की निरंतर बढ़ती घनिष्ठता ने अरब जगत की अस्थिरता को देखते इसलामी कट्टरपंथी अौर दहशतगर्दी का मुकाबला करने में भारत को अधिक ताकतवर बनाया है. इसके बाजजूद यूरोपीय समुदाय के साथ ब्रेक्जिट के बाद भारत के रिश्तों के बारे में कोई स्पष्ट सोच नहीं दिखलाई देती. अॉस्ट्रेलिया, कनाडा तथा जापान के बारे में मोदी के ताबड़तोड़ दौरों से जो जोश पैदा हुआ था, उस जोश के वैसे नतीजे देखने को नहीं मिल सके हैं. सबसे बड़ा कौतूहल इस बात को लेकर है कि क्यों हम रूस के बारे में दूरदर्शी तरीके से नहीं सोच पा रहे हैं?

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