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भाजपा सरकार के तीन साल पर नीरजा चौधरी का आलेख : नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनीति की दिशा बदली
मोदी सरकार के तीन सालों के कामकाज की समीक्षा का सिलसिला जारी है. खूबियों का खामियों का हिसाब लगाया जा रहा है. अभी तक सरकार ने भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगने दिया है और कई स्तरों पर साहसी कदम उठाये गये हैं. लेकिन नाकामियां भी खाते में हैं. सामाजिक, राजनीतिक और विदेश नीति के […]
मोदी सरकार के तीन सालों के कामकाज की समीक्षा का सिलसिला जारी है. खूबियों का खामियों का हिसाब लगाया जा रहा है. अभी तक सरकार ने भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगने दिया है और कई स्तरों पर साहसी कदम उठाये गये हैं. लेकिन नाकामियां भी खाते में हैं. सामाजिक, राजनीतिक और विदेश नीति के मोरचे पर सरकार के हासिलों का लेखा-जोखा करती जानकारों की टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत है आज का यह विशेष आयोजन…
नीरजा चौधरी
राजनीतिक विशेषज्ञ
साल 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत एक शानदार जीत थी और पहली बार देश में इतने बड़े बहुमत से एक सरकार बनी थी. सरकार चल पड़ी और उसने बहुत सी नीतियों पर काम करना शुरू किया. इस दौरान भाजपा राजनीतिक तौर पर बहुत मजबूत हुई. लेकिन, साल 2015 में यह स्थिति बरकरार नहीं रह पायी और दिल्ली में भाजपा की राजनीतिक हार हो गयी और बुरी तरह हार हुई. इसके बाद फिर वह बिहार में भी हार गयी. दरअसल, आठ-दस महीने में ही लोगों का मिजाज कुछ बदला. उस दौरान जिस तरह से मोदी जी के व्यक्तित्व से लोग प्रभावित थे, ठीक उसी तरह से अरविंद केजरीवाल पर भी लोगों ने भरोसा किया कि वह डायनामिक होंगे और अच्छा काम करेंगे. लेकिन, मोदी का प्रभाव कम नहीं हुआ.
लोगों को इस बात की उम्मीद थी कि मोदी एक विकास पुरुष हैं, और वे विकास करेंगे. वहीं भारत का नौजवान तबका मोदी की ओर बहुत आशा भरी नजरों से देखता था. लेकिन, इन्हीं दौरान लव जेहाद, घरवापसी आदि के मुद्दे सामने आ गये और हिंदू-मुसलिम संघर्ष तेज हो गया. इस तरह पूरा 2015 गुजर गया और मोदी सरकार को लेकर थोड़ी नकारात्मकता के साथ लोगों की उम्मीद सिर्फ मोदी से ही थी कि वे अब भी कुछ करेंगे. और ऐसा ही हुआ.
साल 2016 और फिर 2017 के शुरुआती महीनों तक आते-आते नरेंद्र मोदी ने दो तरीके से भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी. पहला, हिंदू-मुसलिम के मुद्दे को उन्होंने राष्ट्रवाद में बदल दिया. जेएनयू से शुरुआत के साथ ही देश के कई विश्वविद्यालयाें से होते हुए पूरे समाज में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनमें राष्ट्रवाद और राष्ट्रदोह का मुद्दा माहौल में घुल गया. दूसरा, नरेंद्र मोदी ने भाजपा के अपने मूलभूत चरित्र को बदलने की पूरी कोशिश की और वे कामयाब भी रहे. भाजपा एक धनिक-समर्थक पार्टी मानी जाती थी, लेकिन मोदी ने इसे गरीब-समर्थक बना दिया. डिमोनेटाइजेशन के कार्ड से अर्थव्यवस्था की गति भले धीमी हुई, लेकिन उसका राजनीतिक फायदा सीधा मोदी को मिला और एक झटके में ही देश के गरीब तबके को लगने लगा कि यह आदमी रिस्क लेकर बड़े से बड़ा काम कर सकता है.
यह संदेश बहुत सकारात्मक था मोदी के लिए, जिसका सीधा राजनीतिक फायदा हाल के चुनावों में देखने को मिला. भाजपा ने कई राज्यों में सरकारें बनायीं और सबसे बड़ी बात कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के राजनीतिक किले को फतह कर लिया. उत्तर प्रदेश का चुनाव एक टर्निंग प्वॉइंट की तरह था और इस जीत ने यह साबित कर दिया कि अब भी नरेंद्र मोदी से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ है. तीन साल पूरे हो गये हैं मोदी सरकार को, लेकिन अब भी लोगों को यही उम्मीद है कि जरूर कुछ अच्छा होगा. मसलन, सिर्फ दिल्ली के एमसीडी चुनाव को ही लें, तो बीते दस साल में उतना खराब प्रशासन कभी नहीं रहा, लेकिन फिर भी भाजपा वहां जीत गयी. हाल के दिनों में जहां-जहां भी भाजपा ने जीत दर्ज की, वह सिर्फ नरेंद्र मोदी की बदौलत ही जीत थी.
राजनीतिक तौर पर नरेंद्र मोदी की इन उपलब्धियों से विपक्ष पूरी तरह से कमजोर हो गया है. यह बहुत बड़ी बात है कि जहां तीन साल सरकार चलाने के बाद सरकार के खिलाफ जनता में एंटीइनकम्बैंसी आने लगती है, वहां लोग अब भी सरकार और प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीद रखते हैं, तो यह मोदी सरकार की एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धि मानी जायेगी. दरअसल, इसके पीछे की वजह यह है कि मोदी ने सरकार के काम करने की शैली दबल दी है और भ्रष्टाचार पर काफी अंकुश लगा है. इस बात से लोगों में भरोसा जगा है कि सरकार काम कर रही है. दूसरी बात यह है कि ऐसा लग रहा है कि अब राष्ट्रीय स्तर पर लोग ‘वन पार्टी’ की तरफ बढ़ रहे हैं.
यह राजनीतिक ऐतबार से ठीक तो है, लेकिन विपक्ष के कमजोर होने के ऐतबार से ठीक नहीं है, क्योंकि एक मजबूत विपक्ष का होना किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है. यहां यह भी ध्यान रहे कि विपक्ष के मजबूत होने की जिम्मेवारी खुद विपक्ष पर ही है, सत्तापक्ष पर नहीं. सत्तापक्ष तो हर हाल में चाहेगा कि विपक्ष कमजोर हो. सत्तापक्ष की राजनीति का यह हिस्सा रहा है कि वह हमेशा विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति के तहत काम करे. इस मामले में मोदी सरकार सफल रही है.
आज विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को भी खुद समझ में नहीं आ रहा है कि वह मोदी और भाजपा को रोका कैसे जाये. दरअसल, विपक्ष में नेतृत्व का कमजोर होना भी एक कारण है. यही वजह है कि आज विपक्ष से भी ऐसी खबरें आने लगी हैं कि साल 2019 में मोदी फिर से वापसी करेंगे. विपक्ष का इतना कमजोर होना मजबूत लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, लेकिन यही चीज मोदी की एक राजनीतिक सफलता भी है.
जिस तरह से रोजगार घटे हैं और लोगों ने अपनी नौकरियां गंवायी हैं, वह इस सरकार की बड़ी असफलता है. ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा मोदी का एक बहुत बड़ा नारा था, लेकिन इस नारे पर खरा उतरने में यह सरकार फेल रही और यह विफलता इस सरकार की सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष रहा.
मसलन, अगर लोग आकर किसी भी निर्दोष को मार डालें और कानून अपने हाथ में लेनेवालों के खिलाफ कोई कार्रवाई न हो, या सिर्फ नाम मात्र कार्रवाई हो, तो यह स्थिति ‘सबका साथ सबका विकास’ के बड़े नारे को धूमिल कर देती है. यही वजह है कि आज अल्पसंख्यकों में एक प्रकार की असुरक्षा और भय का माहौल है, और आगे जाकर इसका क्या राजनीतिक प्रभाव होगा, यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि हमारे देश के लिए यह ठीक नहीं है.
नरेंद्र मोदी के राजनीतिक व्यक्तित्व के ऐतबार से ‘सबका साथ सबका विकास’ महज एक नारा नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे एक यथार्थ बनना होगा. इस मामले में मोदी सरकार विफल तो है, लेकिन यहीं यह बात भी सही है कि मोदी सिर्फ चुनाव को देख कर काम नहीं करते हैं, बल्कि वे युगपुरुष की तरह काम करते हैं और यही उनकी राजनीतिक गरिमा भी है, इसलिए आगे वे ‘सबका साथ सबका विकास’ के मामले में भी सुधार लायेंगे. यह सही है कि हिंदू आज मोदी की तरफ देख रहे हैं और सत्ता हासिल करने के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हो.
लेकिन, देश चलाने के लिए और बड़े स्तर पर राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए मोदी को अल्पसंख्यकों एवं वंचित तबकों को साथ लेकर चलना ही होगा और ‘सबका साथ सबका विकास’ इसी बात को सार्थक करनेवाला नारा है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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