अच्छे रिजल्ट के लिए अच्छे शिक्षक जरूरी

निराशाजनक : नहीं मिल पा रही छात्रों को पढ़ने के लिए जरूरी सुविधाएं जे एस राजपूत पूर्व-निदेशक एनसीइआरटी बिहार बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में छात्रों के परिणाम अन्य राज्यों के मुकाबले अच्छे नहीं रहे हैं. 12वीं में केवल 35.25 फीसदी छात्र ही पास हो पाये हैं. इतना कम परीक्षा परिणाम देख कर मुझे बहुत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 2, 2017 6:03 AM
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निराशाजनक : नहीं मिल पा रही छात्रों को पढ़ने के लिए जरूरी सुविधाएं
जे एस राजपूत
पूर्व-निदेशक एनसीइआरटी
बिहार बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में छात्रों के परिणाम अन्य राज्यों के मुकाबले अच्छे नहीं रहे हैं. 12वीं में केवल 35.25 फीसदी छात्र ही पास हो पाये हैं. इतना कम परीक्षा परिणाम देख कर मुझे बहुत दुख होता है. इसके बहुत सारे कारण स्पष्ट हैं. सरकार ने नकल रोकने की कोशिश की, जो सही निर्णय है, लेकिन छात्रों को अध्यापन संबंधी जो सुविधाएं मिलनी चाहिए थी, वे नहीं मुहैया करायी गयीं. इसके कई कारण रहे. ज्यादातर स्कूलों में शिक्षकाें का घोर अभाव है. नियमित अध्यापकों की जगह पर ठेके पर शिक्षकों की बहाली की गयी है.
इन कारणों से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है. स्कूलों में यदि पार्ट टाइम शिक्षक नहीं होते, तो निश्चित तौर पर ये परीक्षा परिणाम इससे दोगुना अच्छे होते. इस मामले में मुख्य समस्या यह है कि पिछले अनेक वर्षों से इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है, जिसका परिणाम नकल करने की प्रक्रिया में वृद्धि होने के रूप में सामने आया. और जब सारे देश में सबकुछ उजागर हो गया, तो सरकार ने उस पर रोकथाम लगाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भरपूर प्रयास किया. ऐसा करना भी चाहिए. परीक्षा में नकल बिलकुल नहीं होनी चाहिए. लेकिन, इस समस्या का यह समाधान नहीं है कि आप केवल नकल को रोक दें. शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए वर्षों मेहनत करनी पड़ेगी. दरअसल, बच्चों को जो मिलना चाहिए, वह नहीं मिला है.
छात्रों को अच्छे अध्यापक, अच्छी प्रयोगशालाएं और पुस्तकालय मुहैया कराने होंगे. झारखंड में भी 10वीं और 12वीं के नतीजे इस बार अच्छे नहीं आये हैं. 10वीं में केवल 57.9 फीसदी बच्चे और 12वीं में साइंस में 52.36 फीसदी और कॉमर्स में 60.09 फीसदी बच्चे ही पास हुए हैं.
हालांकि, डेढ़ दशक पहले बिहार से अलग होने के बाद झारखंड की सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के अनेक प्रयास जरूर किये हैं, लेकिन नये राज्य के रूप में गठित होने से पहले संयुक्त बिहार में शिक्षा को लेकर जो नीतिगत फैसले लिये गये थे, उनका असर अब भी किसी-न-किसी रूप में दिखाई देता है. अलग राज्य बनने के डेढ़ दशक बीत जाने के बावजूद झारखंड में उन बच्चों की संख्या देश के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा है, जो स्कूल नहीं जाते हैं. कई रिपोर्ट में इसका उल्लेख भी किया गया है. यहां उल्लेखनीय है कि बिहार के मुकाबले झारखंड में स्कूल नहीं
जाने वाले बच्चों का प्रतिशत ज्यादा है. इसके अलावा, झारखंड में बच्चों के सीखने की प्रवृत्ति भी कमजोर है, जो निश्चित रूप से शिक्षकों की गुणवत्ता को इंगित करती है. ये सभी चीजें मिल कर राज्य में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली को दर्शाती हैं.
आप दिल्ली का उदाहरण देख सकते हैं, जहां इस वर्ष निजी स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों के बच्चों के परीक्षा के परिणाम अच्छे आये हैं. इससे अन्य राज्य सरकारों काे भी सबक लेना चाहिए. जो सरकार ऐसी उपलब्धि हासिल करेगी, उसकी लोकप्रियता में भी बढ़ोतरी होगी. मैंने तो यहां तक सुना है कि दिल्ली में बहुत से बच्चे प्राइवेट स्कूलों को छोड़ कर सरकारी स्कूलों में गये हैं.
इससे सरकार की साख भी बढ़ेगी. दिल्ली सरकार यदि इसमें निरंतरता बनाये रखे, तो यह बहुत ही सराहनीय कार्य होगा. साथ ही इसके अनेक सकारात्मक नतीजे सामने आ सकते हैं. देश में अगर आप समग्र विकास करना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको स्कूलों को सुधारना होगा. और सामान्य आदमी के लिए तो सरकारी स्कूल ही बचे हैं. सरकारी स्कूलों के अध्यापक अपनेआप में बहुत योग्य होते हैं. आज जरूरत इस बात की है कि उन्हें थोड़ा-सा प्रोत्साहित किया जा सके, ताकि उनका मनोबल बढ़ सके.
बिहार सरकार को आत्ममंथन करने की जरूरत है कि आखिर कमी कहां है, जिस कारण ऐसे नतीजे आये हैं. पांच वर्षों तक मैं वहां मानव संसाधान विभाग मंत्रालय में शिक्षा सलाहकार रह चुका हूं और वहां के शिक्षा के हालात को बेहतर तरीके से जानता हूं.
एनसीइआरटी के डायरेक्टर के रूप में भी मैंने बिहार की शिक्षा व्यवस्था को समझा है. बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में अक्सर गलत निर्णय लिये गये हैं. 1990 के दशक में नॉन-बीएड शिक्षकों की नियुक्ति की गयी. इससे शिक्षकों की गुणवत्ता बहुत हद तक प्रभावित हुई. निजी बीएड कॉलेजों के जरिये डिग्री बांटी जाने लगी. उस समय जिस तरीके से शिक्षा की जड़ को कमजोर किया गया, उसका नतीजा अब लोगों को भुगतना पड़ रहा है. सरकारी बीएड कॉलेज व अन्य शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों में बहुत से पद रिक्त हैं.
अध्यापक का प्रशिक्षण दुनियाभर में मानक के रूप में समझा जाता है, लेकिन बिहार में इसकी अनदेखी की गयी.इस राजनीतिक फैसले से बड़ा नुकसान हुआ है. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों से बीएड शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है, लेकिन हमें यह देखना होगा कि इन शिक्षकों ने बीएड कहां से और कैसे किया है. दरअसल, बिहार में बीएड डिग्री बांटने का बड़ा घोटाला सामने आया था. बतौर चेयरमैन एनसीइआरटी मैंने स्वयं वर्ष 1999 में तत्कालीन एक्टिंग राज्यपाल (उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश) से व्यक्तिगत रूप से मिल कर यह शिकायत की थी कि बीएन मंडल विश्वविद्यालय और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में बीएड की डिग्री अवैध तरीके से बेची जा रही है. हालांकि, मैंने अपनी ओर से इस व्यवस्था को बदलने की पूरी कोशिश की, लेकिन कार्यकाल खत्म होने के बाद मैं वहां से चला आया. इसलिए जरूरत इस बात की है कि बिहार के लोगों को अब आगे आना होगा और इस मसले पर गंभीरता से विचार करना होगा.
इसके लिए आपको अनेक प्रकार के सुधारात्मक पहले करने होंगे. सबसे पहले जितने भी शिक्षण-प्रशिक्षण विद्यालय, महाविद्यालय हैं, उन सभी में रिक्त पदों पर नियुक्तियां करनी होंगी. देशभर से संबंधित विशेषज्ञों को बुला कर राज्य के शिक्षकों को जरूरी प्रशिक्षण मुहैया कराना होगा. साथ ही, छात्रों व शिक्षकों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा मुहैया कराना होगा. सुधार के इन सभी पहलों को यदि गंभीरता से अमल में लाया जाये, तो मुझे भराेसा है कि अगले दो वर्षों में राज्य में शिक्षा व्यवस्था की तसवीर को पूरी तरह से बदलने में कामयाबी हासिल हो सकती है.
(बातचीत : कन्हैया झा)
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