सबकुछ गंवा कर भी हारा नहीं है नेपाल
।। काठमांडू से अनु सिंह चौधरी ।। (लेखिका एवं स्वतंत्र पत्रकार) भक्तपुर के पद्मा सरकारी स्कूल में भूकंप पीड़ितों के लिए लगाए गए राहत शिविर में इस वक्त तीन हज़ार से अधिक लोग रह रहे हैं. पुष्पा भी उनमें से एक है. 25 अप्रैल को आए भूकंप ने गली के वे सारे मकान धूल-मिट्टी के […]
।। काठमांडू से अनु सिंह चौधरी ।।
(लेखिका एवं स्वतंत्र पत्रकार)
भक्तपुर के पद्मा सरकारी स्कूल में भूकंप पीड़ितों के लिए लगाए गए राहत शिविर में इस वक्त तीन हज़ार से अधिक लोग रह रहे हैं. पुष्पा भी उनमें से एक है. 25 अप्रैल को आए भूकंप ने गली के वे सारे मकान धूल-मिट्टी के ढेरों में बदल गए, जिन्हें देखते हुए पुष्पा बड़ी हुई थी. भक्तपुर की पहचान कहे जाने वाले दरबार स्कावयर की शक्ल ही बदल गई है. कुछ मंदिर ढेर हो गए हैं, तो कुछ अभी भी तने खड़े हैं. ऐसे कि जैसे पत्थरों के हाथियों और शेरों ने वाकई मंदिर को बचाए रखने का ज़िम्मा संभाल लिया हो. भक्तपुर की आजीविका पर्यटन पर टिकी थी, और पर्यटन इन्हीं पुराने मंदिरों और मकानों पर टिका था. मंदिर रहे नहीं, मकानें और दुकानें मिट्टी हो गईं तो फिर कमाई का ज़रिया क्या रहेगा, इस बारे में कोई फिलहाल नहीं सोच रहा. जान बच गई है, यही बहुत है. भक्तपुर भूकंप के केन्द्र से सिर्फ 48 किलोमीटर दूर था.
ठंड, बारिश और महामारी के ख़तरों के बीच जान को महफूज रखना एक बड़ी चुनौती है. पीने का साफ पानी दूभर हो गया है. खाना शिविर की सामुदायिक रसोई में बन रहा है. घर और मकान हैं नहीं तो शौचालय कहाँ बाकी रहेंगे? भूकंप जितनी तबाही लेकर आया है, उससे बड़ी तबाही महामारी न ले आए, ये डर है. काठमांडू घाटी लगातार खाली हो रही है. लोग बसें पकड़कर तराई के इलाकों में जा रहे हैं. जिनके लिए यहाँ रु के रहना मजबूरी है, उनकी नाक और मुँह पर सर्जिकल मास्क लगे हैं. मास्क के भीतर सांसें घुटती रहती हैं. घुटती ही सही, लेकिन चल तो रही हैं. अकेले काठमांडू में एक हजार से ज़्यादा मौत हुई है.
कम से कम काठमांडू घाटी में राहत तो पहुंच रही है. सड़कें हैं, इसलिए सेना और बचावकर्मी राहत में लगे हैं. जिनके घर टूट गए उनके सिर पर तंबू नाम की छत तो है. सिंधुपालचौक, नुआकोट और गोरखा जैसे ज़िलों तक राहत ठीक तरह से पहुँच तक नहीं पायी है. टेंट पहुंचे नहीं अभी, इसलिए लोग रात खुले में गुज़ार रहे हैं. ठंड और बारिश ने बची-खुची जानों को अपने कब्जे में कर लेने की कसम खा ली है जैसे. दूर-दराज के कई गांवों तक पांच दिनों बाद भी ठीक से राहत नहीं पहुंच सकी है. एक मोबाइल फोन के ज़रिए लोगों का हाल-समाचार काठमांडू तक पहुंच रहा था. अब फोन भी डिस्चार्ज होने लगे हैं.
बचाव का जितना काम हो सकता था, किया जा चुका है. पंद्रह देशों से आए बारह सौ से ज़्यादा बचावकर्मी नेपाली सेना और पुलिस की बचाव में मदद कर रहे हैं. राहत और पुनर्निर्माण का काम आनेवाले कई महीनों तक चलता रहेगा. काठमांडू एयरपोर्ट में अलग-अलग देशों से राहत-सामग्री लगातार उतर रही है. संयुक्त राष्ट्र और रेड क्रॉस के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने एमरजेंसी रेस्पॉन्स टीम भेजी है. संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, कोरिया, सिंगापुर, फ्रांस, नॉर्वे, स्पेन, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड और यहां तक कि आइसलैंड से भी रेड क्रॉस का प्रतिनिधि मंडल नेपाल पहुंच रहा है. इन टीमों में एमरजेंसी रेस्पॉन्स के अलावा मेडिकल, लॉजिस्टिक्स और कम्युनिकेशन की एक्सपर्ट टीमें हैं.
* भारत से एनडीआरएफ की तीन यूनिटें पहुंची हैं – भटिंडा, गाज़ियाबाद और कोलकाता से. स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर एनडीआरएफ बचाव और राहत के काम में लगी है. चुनौतियां हालांकि कई हैं. रह-रहकर हल्के झटकों से पैदा होने वाला डर इनमें सबसे बड़ा है. कोलकाता से आए एनडीआरएफ के कमांडर और चीफ मेडिकल ऑफिसर डॉ अभिजीत मुखर्जी का कहना है कि उनकी टीम हर तरह की चुनौती से जूझने के लिए पूरी तरह तैयार है. टीम कमांडर इंस्पेक्टर सोनल बताते हैं कि भारतीय दल के लिए अन्य अंतराष्ट्रीय दलों की तुलना में नेपाल में काम करना इसलिए आसान रहा है क्योंकि भाषा यहां समस्या नहीं है. नेपाल के लोग भारत को अपना सबसे नज़दीकी पड़ोसी और हितैषी मानते हैं.
लेकिन राहत के कामों को लेकर भी अलग-अलग देशों की एजेंसियों और टुकड़ियों में एक किस्म की प्रतिस्पर्द्धा साफ दिखाई देती है. प्राकृतिक आपदा भी चीन और भारत के बीच नेपाल को लेकर चल रही प्रतिस्पर्द्धा को कम नहीं कर पाती. अलग-अलग देशों की एजेंसियों ने अपने लिए इलाके बांट लिए हैं. एक तरह से ये सही भी है. हालांकि जिन लोगों ने अपना घर-बार और अपनी ज़िन्दगियां खो दीं, उनके लिए इस प्रतिस्पर्द्धा का कोई मतलब नहीं है. राहत किसी तरह मिलनी चाहिए बस. मानवता किसी भी और पहचान से बड़ी होनी चाहिए.
मानवता ही वजह रही होगी कि ऑस्ट्रिया से नेपाल छुट्टियां मनाने आए बेंजामिन पोदिरस्की ने भूकंप के बाद भी नेपाल में रुककर वॉलंटियर करने का फैसला किया. बेंजामिन अपने पिता के साथ भारत और नेपाल की यात्रा पर थे – पिता की साठवीं सालगिरह मनाने के लिए. नेपाल में ट्रेकिंग और पर्वतारोहण का इरादा था. लेकिन 25 अप्रैल ने सारे इरादों को मिट्टी में मिला दिया. बेंजामिन के पिता लौट गए, लेकिन बेटे ने यहीं रु ककर रेड क्रॉस के लिए वॉलेंटियर करने का फैसला किया.
फिलहाल दो हजार से लोग रेड क्रॉस के लिए वॉलेंटियर कर रहे हैं. नेपाल रेड क्रॉस के दिव्य राड पॉडेल बताते हैं, वॉलेंटियर कई हैं. लोग लगातार आ भी रहे हैं. लेकिन उनका प्रबंधन, उनको दी जाने वाली ज़िम्मेदारियों की देखभाल-ये देखना बहुत ज़रूरी है. सही वक्त पर सही लोग पहुंच सकें, और उनके भूकंप से प्रभावित इलाकों में लोगों को मदद मिले, हमारा मकसद यही है. सिर्फ एजेंसियों के ज़रिए ही नहीं, अपने आप भी छोटी-छोटी टुकड़ियों में लोग पीड़ितों की मदद कर रहे हैं. कहीं कॉलेजों के बच्चों ने मलबों को साफ करने की ज़िम्मेदारी में हाथ बंटाने का फैसला किया है तो कहीं स्कूल की बच्चियां अपनी-अपनी पॉकेट मनी से पैसे बचाकर राहत शिविरों में पानी की बोतलें, केले और चूड़ा के पैकेट बांट रही हैं.
अगर आपदा और त्रासदी कुछ तोड़ती है, तो कुछ जोड़ती भी है. मिसाल के तौर पर गंगाभू के नागार्जुन मेडिकल स्टोर में बैठे अर्जुन घिमिरे से किसी ने कहा नहीं, लेकिन जब सड़क के दूसरी ओर बने चार गेस्टहाउस एक के बाद एक ताश के पत्तों की तरह ढहने लगे तो अपनी जान और दुकान की परवाह किए बिना अर्जुन गेस्टहाउस में फँसे लोगों को बचाने के लिए दौड़े. अगर अर्जुन को यहां से बीसियों लाशें निकलता देखने का अ़फसोस है तो ये संतोष भी है कि कुछ जानें बचा ली गईं. अर्जुन प्रशिक्षित राहतकर्मी नहीं हैं. लेकिन मदद के लिए बढ़ाया हुआ हर हाथ इतनी बड़ी त्रासदी में तिनके का सहारा होता है.
सिर्फ राहतकर्मियों के रूप में ही नहीं, आर्थिक सहयोग के रूप में भी नेपाल को मदद की सख्त ज़रूरत है. संयुक्त राष्ट्र ने नेपाल के लिए 415 अमेरिकी डॉलर की इमरजेंसी राशि की ज़रूरत का अनुमान लगाया है. अगले कुछ महीनों में इमरजेंसी स्वास्थ्य सेवाएं, मेडिकल सप्लाई, पीने का पानी और सैनिटेशन के लिए नेपाल को मदद की ज़रूरत होगी. नेपाल की दो करोड़ की आबादी में से तकरीबन बयालीस लाख लोग किसी न किसी तरह भूकंप से प्रभावित हुए हैं. एक लाख से ज़्यादा मकान पूरी तरह क्षतिग्रस्त हुए हैं तो करीब पांच लाख मकानों में दरारें आ गई हैं. ज़ाहिर है, हालात सामान्य होने में कई महीने लग सकते हैं.
तबाही ने लोगों में नाराज़गी भी पैदा की है. मोहन तमांग पिछले चार दिनों से अपना बचा-खुचा सामान समेटकर बस स्टैंड पर तराई जाने के लिए बस मिलने की उम्मीद में बैठे हैं. रातें पार्टी पैलेस में कटती हैं तो दिन इस इंतज़ार में कि काठमांडू से निकल गए तो मुश्किलें कम हो जाएंगी. यहां किसी की कोई नहीं सुनता. राहत भी उसी को मिलती है जिनके पास पैसे हैं. सरकार निकम्मी है. कुछ नहीं होगा यहां, मोहन तमांग का गुस्सा उनकी आवाज़ की तरह की ऊंचा होता जाता है. किसी राहत के अभाव में काठमांडू से निकलने के बेचैन भीड़ ने बुधवार को गंगाभू बस पार्क के एक टिकट काउंटर पर तोड़-फोड़ तक मचा दी.
भीड़ ने प्रधानमंत्री सुशील कोइराला तक को नहीं बख्शा. लोगों ने हालात का मुआयना करने बसंतपुर दरबार स्कावयर पहुंचे प्रधानमंत्री का रास्ता रोक लिया और विरोध में नारे लगाए. सरकार भी जानती है कि जितना हो रहा है, वो बूंद-बूंद राहत की तरह है. अभी राहत की दिशा में लंबा रास्ता तय किया जाना बाकी है. अंतरराष्ट्रीय मदद तो बहुत पहुंच रही है, लेकिन उसे ठीक तरीके से ग्राउंड ज़ीरो तक पहुंचाना अपने आप में इतनी बड़ी चुनौती है, जिसके लिए नेपाल सरकार बिल्कुल तैयार नहीं दिखती. गृह मंत्रालय में हुई एक प्रेस बैठक में संचार मंत्री मीनेन्द्र रजालि ने ये बात स्वीकार भी की.
त्रासदी और ज़िन्दगी के इस खेल में अगर कुछ कायम है तो उम्मीद. बहुत सारी हताशा के बावजूद. ह्यह्यइस हादसे ने ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया बदल दिया है. मैं हैरान हूं ये देखकर कि अपना सबकुछ खोने के बावजूद लोग कैसे एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं. पैसों की परवाह किए बिना. अपनी जान की परवाह किए बिना. मैं हैरान हूं कि कैसे मुस्कुराहटें बाकी हैं. राहत शिविर में था मैं तीन रात. लेकिन सबकुछ गंवाकर भी लोगों को हंसते हुए देखा है वहां. मैं जीने का यही सलीका सीखने के लिए नेपाल में रुक गया हूं, बेंजामिन कहते हैं. कुदरत अगर बर्बाद करती है तो वापस समेटने के तरीके भी सिखाती है.