-डॉ रचना गुप्ता-
कोरोना के वैश्विक संकट का असर कम हुआ नहीं कि रूस-यूक्रेन युद्ध से आर्थिक मंदी की आहट सुनाई देने लगी. टर्की की मध्यस्थता के बीच युद्ध मैदान से कोई अच्छी खबर सुनने को बेताब दुनिया को श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता ने चिंता में डाल दिया है. श्रीलंका के संकट को सिर्फ द्विपीय देश तक सीमित नहीं माना जा सकता है. यह ठीक वैसा ही है जैसे 2008 में ग्रीस संकट का असर पूरी दुनिया में हुआ या फिर रूस-यूक्रेन युद्ध से पैदा ऊर्जा संकट से कोई भी देश अछूता कहां है. जाहिर है कि श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता से एशिया से लेकर यूरोपीय देशों के आर्थिक समीकरण बदलेंगे.
श्रीलंका में पेट्रोल-डीजल, दवाइयों समेत रोजमर्रा की वस्तुओं की कमी को लेकर विरोध प्रदर्शन में जनता सड़कों पर उतर आयी. सत्ता प्रतिष्ठानों पर आम आदमी बैठ गया. राष्ट्रपति के आवास पर लोगों ने कब्जा कर लिया . आक्रोश इस कदर बढ़ा कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा. गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका के पहले राष्ट्रपति हैं जिन्हें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ही पद छोड़ना पड़ा. 1953 में विरोध-प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री डुडले सेनानायके को पद छोड़ना पड़ा था.
20 जुलाई को श्रीलंका के नये राष्ट्रपति के लिए वोटिंग हुई. इस चुनाव में जनता ने हिस्सा नहीं लिया, संसद के सदस्यों ने ही वोटिंग की. रानिल विक्रमसिंघे को श्रीलंका का नया राष्ट्रपति चुन लिया गया है. गौरतलब है कि 1948 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता के बाद श्रीलंका सबसे गंभीर राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है. इस संकट की वजह आर्थिक बदहाली और अर्थव्यवस्था का दिवालियापन रहा है. विदेशी मुद्रा कोष के गंभीर संकट से उबरने के लिए उसे कम से कम चार अरब डॉलर की तत्काल जरूरत है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने साफ शब्दों में कह दिया है कि किसी तरह की मदद तभी संभव है जब श्रीलंका राजनीतिक रूप से स्थिरता हासिल कर लेगा.
श्रीलंका सरकार की गलतियों में उसके और दुनिया के किसी भी देश के लिए सबक छिपा है. अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए हर देश को आय के विभिन्न स्रोत विकसित करने पड़ते हैं. श्रीलंका के लिए सालों तक आय का सबसे बड़ा स्रोत पर्यटन मात्र रहा है. वर्तमान में श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन का योगदान 12 प्रतिशत है. कोरोना संकट के दौरान पर्यटन गतिविधियों के ठप पड़ने के बाद श्रीलंका की अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर गई. यह बात सिर्फ श्रीलंका पर लागू होती है, ऐसा नहीं है. आर्थिक मोर्चे पर कुछ इसी तरह की गलती रूस ने पिछले कुछ सालों में की है. रूस की 40 फीसदी आय सिर्फ तेल और गैस पर निर्भर करती है. यही वजह है कि यूरोपीय देशों द्वारा रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का असर उसकी तेल व गैस परियोजनाओं पर पड़ा है. जरा सोचिए, सैन्य साजो-समान के निर्यात के मोर्चे पर रूस को मदद न मिलती तो यूक्रेन के साथ युद्ध की वजह से पश्चिमी देशों व ईयू द्वारा लगाये आर्थिक प्रतिबंधों से उसकी क्या दशा होती. यानी नयी सरकार के गठन के फौरन बाद उसे लोगों में विश्वास बहाली के कदम उठाने होंगे.
भरोसे के बिना न तो आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाई जा सकती है और न ही राजनीतिक स्थिरता के लक्ष्य हासिल किये जा सकेंगे. नयी सरकार को विदेशों में बसे श्रीलंकाई मूल के लोगों को देश पैसा भेजने के लिए प्रेरित करना होगा. इसके लिए सेंट्रल बैंक द्वारा तय डॉलर की दरों को तार्किक बनाना होगा. पर्यटन गतिविधियों को दोबारा नयी ऊंचाई देने के लिए इंडोनेशिया और थाइलैंड में उपलब्ध पर्यटन गतिविधियों की तुलना में आकर्षक पैकेज व दरें पेश की जा सकती हैं. यह सब उपाय दीर्घकालिक आर्थिक सुधारों को गति देते हुए समानांतर रूप से करने होंगे.
श्रीलंका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव के ठीक बाद राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने अपने करीबी उद्योगपतियों के 600 अरब रुपये की छूट प्रदान की. भ्रष्टाचार के इन मामलों की यदि जांच होती है तो जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा. विदेश नीति के मोर्चे पर भी श्रीलंका लगातार गलतियां दोहराता रहा है. अपने दोस्त पहचाने में श्रीलंकाई सरकारों ने किस कदर गलतियां की हैं, इसका अंदाजा सड़कों पर उतरी जनता के हाथों में लहरा रही तख्तियों को देखकर पता चलता है. चीन के छिपे हुए एजेंडे को श्रीलंका की सरकार भले न समझ सकी हो लेकिन वहां की जनता खुलकर भारत को भरोसेमंद दोस्त बता रही है. बल्कि वह खुद चीन के दखल को बढ़ावा देने वाली नीतियों के खिलाफ खड़ा हो गया है. दरअसल, चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों को अंजाम तक पहुंचाने के एजेंडे पर चलते हुए लगातार गैर जरूरी आधारभूत परियोजनाओं के लिए श्रीलंका को कर्ज देता रहा. बिना जरुरत के मिले इस कर्ज को श्रीलंकाई सरकार अपनी विलासिता में खर्च करती रही. इसका परिणाम चीन की मंशा के अनुरुप हुआ. आज हंबनटोटा और कोलंबो पोर्ट में चीन का कब्जा हो चुका है.
श्रीलंका की इस दुर्दशा के पीछे वहां के निवर्तमान सरकार की उदासीनता, भ्रष्टाचार के साथ ही ड्रैगन का एजेंडा भी कम जिम्मेदार नहीं. श्रीलंका के ऊपर अकेले चीन का 5 अरब डॉलर का कर्ज है. कर्ज की कुल सीमा 50 अरब डॉलर के स्तर को पार कर चुकी है. सिर्फ इस साल उसे 7 अरब डॉलर का कर्ज चुकाना होगा. एक तरफ चीन उसे लगातार कर्जदार बना रहा था. वहीं दूसरी ओर भारत उसे लगातार बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के लिए मदद करता रहा. भारत ने हिंद महासागर में स्थित इस देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए 3.5 अरब डॉलर की आर्थिक मदद कुछ समय पहले ही कर चुका है. वैक्सीन से लेकर ईंधन की जरूरत के समय भारत ही श्रीलंका के साथ खड़ा नजर आया है. दोनों देशों के रिश्ते द्विपक्षीय संबंध साझा सांस्कृतिक, भाषाई और भौगोलिक विरासत से विकसित हुए हैं. ये बात और है कि इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए वहां के शासकों ने भारत विरोधी चीन की मंशा को शह देने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
अंत में श्रीलंका की भावी सरकारों को यह समझना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को परिवारवाद खोखला कर देता है. इस देश में लंबे समय तक सेनानायके, जयवर्द्धने और भंडारनायके जैसे राजनीतिक परिवारों का दबदबा रहा है. इस बीच राजपक्षे परिवार ने समस्या को और गंभीर बनाया. पिछली सरकार में राजपक्षे परिवार के कई सदस्य मंत्री और बड़े ओहदों से नवाजे गये. देश में यह विमर्श स्थापित हो चुका है कि एक राजनीतिक परिवार सरकार ही नहीं पूरी व्यवस्था को नियंत्रित करने में लगा है. यानी श्रीलंका को अब यदि राजनीतिक स्थिरता की ओर बढ़ना है तो उन लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा जो उसकी विरासत का हिस्सा रहे हैं, लेकिन परिवारवाद की राजनीति ने उसे अपने हितों के लिए तिलांजलि दे दी.
(हिमाचल लोक सेवा आयोग की वरिष्ठतम सदस्य)