हे दीनदयाल ! हे शक्तिमान !
कर कृपा, दिखा सुख का निशान।
बहुत हुआ, मत ले अब इंतहान।
कातर मनुष्य, माँग रहा क्षमादान।।
हे दीनदयाल ! हे शक्तिमान !
तूने दिखाया है, अपना क्रूर रोष।
मूर्ख मानव का टूटा अहंकार।
उसे हो गया स्व क्षुद्रता का भान।।
अभी तक नर करता था प्रचंड-प्रहार।
छेड़ा था उसने विनाश का राग।
संपूर्ण नियति को बना अपना शिकार।
मानने लगा स्वयं को महाराज ।।
तूने चेताया नर को कई बार।
दी कभी सुनामी ,कभी भूकंप की मार।
फिर भी नर करता रहा अत्याचार।
यह था उसका सिर्फ और सिर्फ अंहकार।।
आज मनुष्य के मद को करने चूर।
विधाता ! तूने किया है परिहास क्रूर।
शत्रु ऐसा जिसने फैलाया अंधकार।
अति शूक्ष्म जो न किसी को आता नज़र।
अदृश्य होकर ही उसने बरपाया क़हर।
विश्व के हर कोने में पसारा है पैर।
संपूर्ण मानवता को लिया उसने घेर।
हे शक्तिमान! अब न नज़र फेर।
बस कर, न ले और अग्नि-परीक्षा।
तूने ही दिया है, तू ही कष्ट हर।
और न ले इंतहान, अब बस कर।
खड़े हैं हम तेरे सामने हाथ फैलाकर।
हम हैं तेरे ही बंदे नादान।
हम हैं अज्ञानी, मूर्ख, अनजान।
हो गया हमें अपनी भूल का भान।
अब कर दया,धरा को न कर वीरान।
दे नव प्रकाश की किरण महान।
जो मिटा दे यह तम गहन।
सद्बुद्धि दे, कर दिग्दर्शन।
खोल दे मनुष्य के ज्ञान -नयन।
जिसमें सबका हो पुनः मिलन।
खग,मृग,सूर्य,चंद्र और तारागण।
सबको यहाँ मिले ख़ूब सकून।
कोई न करे किसी के हित का ख़ून।