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कृष्ण प्रताप
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Opinion
कृष्ण भक्त भी थे विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम
अगर तुम राधा होते श्याम, मेरी तरह बस आठो पहर तुम रटते श्याम का नाम...' 'आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में मोहन मुरलीधारी, कुंज-कुंज फिरे श्याम...
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रामकथा वाचन के लिए मशहूर थे पंडित राधेश्याम
इस योजना के अंतर्गत एक परिवार से एक सदस्य को पांच प्रतिशत के रियायती ब्याज दर पर दो लाख रुपये की पूंजी उपलब्ध करायी जायेगी. पहली किश्त में एक लाख दिया जायेगा.
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प्रेमचंद : ऐसे बने ‘मुंशी’ और ‘उपन्यास सम्राट’
शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ में भी उनके लिए कहीं ‘मुंशी’ का प्रयोग नहीं किया है. प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर भी ‘श्री प्रेमचंद जी’, ‘श्रीयुत प्रेमचंद’, ‘उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद’, ‘प्रेमचंद’, ‘श्रीमान प्रेमचंद जी’ आदि नाम ही छापे हैं
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जब अयोध्या पहुंच राम को भजने लगे अमीर खुसरो
अगर फिरदौस बर-रू-ए जमीं अस्त. हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त.’(धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है.) सत्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के दौरे पर गये मुगल बादशाह जहांगीर ने उसकी अनुपम प्राकृतिक छटा से निहाल होकर यह बात कही थी.
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बंकिमचंद्र ने क्षुब्ध होकर लिखा था वंदे मातरम
बंकिम का जन्म 26 जून, 1838 को पश्चिम बंगाल के उत्तर चौबीस परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में एक समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ. वह माता दुर्गा देवी व पिता यादव चंद्र की सबसे छोटी संतान थे. कहते हैं कि उनकी साहित्यिक संभावनाओं के अंकुर उनकी युवावस्था में ही विकसित होने लगे थे.
Opinion
हिंदी पत्रकारिता और साहित्य का संबंध
माखनलाल चतुर्वेदी भी एक साथ साहित्यकार और पत्रकार थे. ‘प्रभा’ व ‘कर्मवीर’ जैसे पत्रों का संपादन करते हुए उन्होंने नयी पीढ़ी से गुलामी की जंजीरें तोड़ डालने का आह्वान किया, तो ब्रिटिश साम्राज्य के कोपभाजन बने.
Opinion
जनपक्षीय पत्रकारिता के सजग प्रहरी थे शीतला सिंह
मैंने मन ही मन सोचा और अंदाजा लगाया कि यह बंदा जरूर किसी और मिट्टी का बना है. बहरहाल, मैंने परिचय दिया, तो बोले- हां, बायोडाटा देख लिया है आपका.
Opinion
पूंजीवाद के जयघोष के बीच मार्क्स की याद
जो सबसे ज्यादा लोगों की खुशी के लिए काम करता है.’ वे मानते थे कि ‘पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत होती है, जबकि जीवित व्यक्ति उसका आश्रित होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती.’
Opinion
असली पुरस्कार कब पायेंगे मजदूर
मजदूर बुरी तरह विभाजित हैं, जिससे सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के हिरावल दस्ते के रूप में उनकी कोई भूमिका नहीं बची है. ऊपर से उनकी मजदूर पहचान पर कई दूसरी संकीर्ण पहचानें हावी हो गयी हैं, जिसके कारण सत्ता प्रतिष्ठान उनका कोई वर्गीय दबाव महसूस नहीं करता.