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नीलांशु रंजन

पत्रकार-साहित्यकार

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सचमुच आसां नहीं है मुनव्वर होना

'तुम्हारी महफिलों में हम बड़े-बूढ़े जरूरी हैं/ अगर हम ही नहीं होंगे तो पगड़ी कौन बांधेगा.' इस फानी दुनिया को उन्होंने अलविदा कह दिया शायद अगला आबो-दाना ढूंढने के लिए. उन्हीं का शे'र है- 'परिंदों! आओ चलकर वो ठिकाना देख लेते हैं/ कहां पर होगा अगला आबो-दाना देख लेते हैं.'

गालिब का है अंदाज-ए-बयां और

गालिब ने फारसी में भी लिखा और उर्दू में भी. लेकिन पजीराई मिली उन्हें उर्दू कलाम से. गालिब को जितनी दफा पढिए, वो अलग-अलग शेड में नजर आते हैं. मिसाल के तौर पर 'दीवान-ए-गालिब' का पहला शे‘र ही लीजिए.
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