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झारखंड के इस गांव में होली खेलने से होती है अनहोनी, बाबा वडराव को पसंद नहीं है रंग

झारखंड का यह गांव राजधानी रांची से करीब 90 किलोमीटर दूर स्थित है. कहते हैं कि बोकारो जिले के कसमार प्रखंड स्थित दुर्गापुर गांव ने करीब 300 साल से होली नहीं खेली. अगर किसी ने होली के दिन होली खेलने की कोशिश की, तो बड़ी अनहोनी हुई.

होली का त्योहार आ गया है. 8 मार्च को लोग एक-दूसरे को रंग लगाने को बेताब हैं. रंग-गुलाल के साथ सभी तैयार हैं. लेकिन, झारखंड में एक गांव ऐसा भी है, जहां होली के दिन कोई रंग-गुलाल को हाथ तक नहीं लगाता. कहते हैं कि इस गांव में अगर किसी ने होली खेल ली, तो अनहोनी होती है. आपदा आती है. मवेशियों के साथ-साथ इंसानों की भी मौत हो जाती है. इसलिए यहां होली खेलने की मनाही है. गांव में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए होली खाने-पीने का त्योहार तो है, लेकिन रंगों का त्योहार कतई नहीं है. जी हां, हम बात कर रहे हैं दुर्गापुर गांव की.

रांची से करीब 90 किलोमीटर दूर है दुर्गापुर गांव

झारखंड का यह गांव राजधानी रांची से करीब 90 किलोमीटर दूर स्थित है. कहते हैं कि बोकारो जिले के कसमार प्रखंड स्थित दुर्गापुर गांव ने करीब 300 साल से होली नहीं खेली. अगर किसी ने होली के दिन होली खेलने की कोशिश की, तो बड़ी अनहोनी हुई. आज भी कुछ युवा हैं, जो कहते हैं कि उन्होंने इस बात का एहसास किया है. इसलिए बड़े-बुजुर्गों से सुनी कहानियों पर उन्हें विश्वास हो चला है कि होली का त्योहार दुर्गापुर के लिए नहीं है. इसलिए हम कभी अपने गांव में होली नहीं खेलते.

दुर्गापुर से जुड़ी हैं कई कहानियां

दुर्गापुर गांव और होली से जुड़ी कई कहानियां हैं. अलग-अलग लोग अलग-अलग बातें बताते हैं. कोई कहता है कि 150-200 साल से इस गांव में होली नहीं खेली गयी, तो कोई कहता है 300 साल से इस गांव में किसी ने होली नहीं खेली. अगर किसी ने होली खेली, तो उसके साथ अनहोनी हुई. इस गांव के बारे में दूसरे प्रखंडों और जिलों के लोगों को भी मालूम है. यही वजह है कि होली के दिन अगर कोई कह दे कि हम दुर्गापुर गांव के रहने वाले हैं, तो वहां उन पर कोई रंग नहीं डालता.

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होली से पहले कई लोग चले आते हैं अपने गांव

इस गांव में लोग रंग नहीं खेलते यह सच है, लेकिन गांव के बाहर जाकर कोई भी व्यक्ति होली खेल सकता है. गांव के बाहर होली खेलने पर रोक नहीं है. अगर कोई व्यक्ति गांव के बाहर रहता है और वहां होली खेलना चाहता है, तो वह खेल सकता है. यही वजह है कि कुछ लोग होली से पहले गांव से बाहर अपने रिश्तेदार के यहां चले जाते हैं. वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो साल भर कहीं भी रहें, होली के दौरान अपने गांव आ जाते हैं.

दुर्गा पहाड़ी की तलहटी में बसा है 11 टोले का गांव

इस गांव में सामान्य वर्ग के लोगों के साथ-साथ अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोग भी रहते हैं. संताल, उरांव जनजाति के लोगों के अलावा हिंदू भी इस गांव में निवास करते हैं. यह गांव 11 टोला में बसा है और इसकी आबादी करीब 7000 के आसपास है. दुर्गा पहाड़ की तलहटी में बसे इन गांवों में किसी समुदाय के लोगों ने कभी होली नहीं खेली. न बच्चों ने होली खेली, न बुजुर्गों ने. इस गांव में ब्याह कर आने वाली बहुओं को कोई रंग नहीं लगाता.

बेटियों ने भाभी या जीजा के साथ नहीं खेली होली

इस गांव की बेटियों ने कभी अपनी भाभी या जीजा के साथ होली नहीं खेली. कहते हैं कि बाबा वडराव नाराज हो जाते हैं. उन्हें रंग पसंद नहीं है. उन्हें कभी लाल-पीले फूल नहीं चढ़ाया जाता. बाबा वडराव की सफेद फूल से ही पूजा होती है. बलि प्रदान किया जाता है, तो सफेद बकरे की या सफेद मुर्गे की. कभी किसी और रंग के बकरे या मुर्गे की बलि बाबा वडराव को नहीं दी जाती.

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होली के दिन मन मसोसकर रह जाते हैं छोटे बच्चे

छोटे-छोटे बच्चों को होली खेलने का बहुत मन करता है. लेकिन, वे मजबूर हैं. अपने गांव में होली नहीं खेल सकते. ऐसे में कुछ बच्चे अपने रिश्तेदार के यहां चले जाते हैं, होली खेलने. बच्चे अपने ननिहाल या दीदी की ससुराल में जाकर होली खेल आते हैं. अपना शौक पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने गांव में कभी भी होली के दिन रंग या गुलाल को हाथ तक नहीं लगाते.

…तो क्या इस गांव के लोग कभी होली नहीं खेलते?

तो क्या दुर्गापुर गांव के लोग कभी रंग को छूते ही नहीं? ऐसा नहीं है. इस गांव के लोग भी होली खेलते हैं. खूब होली खेलते हैं. लेकिन, होली के दिन नहीं. आपको बता दें कि गांव में दुर्गा पूजा हो, सरस्वती पूजा हो या कोई और पूजा. प्रतिमा विसर्जन के दिन ये लोग जमकर एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं. इस तरह इस गांव के लोग होली से पहले या होली के बाद होली खेलते हैं, लेकिन होली के दिन होली नहीं खेलते.

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