Jharkhand News: कोयलांचल के जारंगडीह स्थित ढोरी माता तीर्थालय आस्था का प्रमुख केंद्र है. यहां देश के विभिन्न भागों से सभी धर्म व जाति के लोग आते हैं. यहां आनेवाले भक्तों में यह अटूट विश्वास है कि माता सबकी मुराद पूरी करती हैं. कोयलांचल के श्रमिकों का माता पर अटूट विश्वास है. श्रमिकों का मानना है कि ढोरी माता कोयला श्रमिकों को अपनी सुरक्षा प्रदान करती हैं. प्रत्येक वर्ष अक्टूबर माह के अंतिम शनिवार तथा रविवार को यहां वार्षिकोत्सव मनाया जाता है. आज शनिवार को भव्य शोभायात्रा निकाली गयी. वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिए झारखंड, बिहार, बंगाल, ओडिशा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, चेन्नई, बेंगलुरु, केरल, उत्तरप्रदेश सहित कई राज्यों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. विदेश से भी ईसाई धर्मावलंबी यहां आकर माता के समक्ष प्रार्थना करते हैं. राज्य के विभिन्न जिलों से भक्त पैदल यात्रा कर भी यहां आकर माता मरियम के चरणों में मत्था टेकते हैं.
21 अक्टूबर से चल रहा है समारोह
ढोरी माता का वार्षिकोत्सव 21 अक्टूबर को झंडोत्तोलन के साथ शुरू हुआ है. रोजाना मिस्सा पूजा, नोविनो प्रार्थना, प्रतिमा दर्शन, पाप स्वीकार आदि कार्यक्रम चल रहे हैं. शनिवार 29 अक्टूबर को शाम चार बजे भव्य शोभायात्रा निकाली गयी. इसमें पूरे देश से ईसाई समुदाय से जुड़े लोग शामिल हुए. माता मरियम के आदर में मिस्सा पूजा व प्रतिमा दर्शन किया गया. दूसरे दिन 30 अक्टूबर (रविवार) को प्रात: 10 बजे से समारोही मिस्सा पूजा के साथ वार्षिकोत्सव का समापन होगा. वार्षिकोत्सव के समारोही मिस्सा पूजा में मुख्य अतिथि (मुख्य याजक) के रूप में विनय कन्डुलना एवं सिमडेगा धर्मप्रांत के धर्माध्यक्ष मुख्य याजक होंगे.
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ढोरी माता की भक्ति एवं समारोह
प्रारंभ में ढोरी माता को जब जारंगडीह के एक छोटे से चर्च में रखा गया था. उस वक्त प्रत्येक रविवार को भक्ति समारोह की जाती थी. एक बार श्रीलंका से फादर बेर्थालट जारंगडीह के ख्रिस्तीय समुदाय को विनती उपवास देने आये और ढोरी माता की चमत्कारी घटना सुनने के बाद उन्होंने इसके आदर में विशेष प्रार्थना की. उसी समय से ढोरी माता के आदर एवं भक्ति में मां का आर्शीवाद पाने के लिए प्रत्येक वर्ष समारोह का आयोजन होने लगा. भक्तों की भीड़ को देख सीसीएल अधिकारियों के सहयोग से ढोरी माता गिरिजाघर व मैदान की व्यवस्था की गई. जहां हर साल वार्षिकोत्सव होता है. वर्ष 1983 में फादर डेनियल की निगरानी में इसे तीर्थालय का रूप दिया गया. ढोरी माता तीर्थालय के पल्ली पुरोहित फादर माईकल लकड़ा कहते हैं कि ढोरी माता न केवल श्रमिकों की संरक्षिका हैं बल्कि वह सारी क्लीसिया एवं मानवजाति की संरक्षिका हैं. ढोरी माता की मध्यस्थता से ही हमारी प्रार्थनाएं प्रभु यीशु तक पहुंचती हैं.
50 हजार श्रद्धालु जुटने की संभावना
वार्षिकोत्सव को लेकर श्रद्धालुओं का जुटान शुरू हो गया है. पूरा तीर्थालय बाहरी श्रद्धालुओं से पट गया है. तीर्थालय प्रबंध समिति भक्तों के लिए मिस्सा पूजा एवं ठहरने की व्यवस्था करने में जुटी है. करोना के दो साल बाद इस साल 50 हजार से ज्यादा श्रद्धालुओं के जुटने की संभावना है. तीर्थालय को आकर्षक ढंग से सजाया गया है. चर्च मैदान में बड़ा पंडाल बनाया गया है. पूरे जारंगडीह बाजार की रौनक बढ़ गयी है. शनिवार को जारंगडीह से कथारा तक माता मरियम की भव्य शोभा यात्रा गयी.
ढोरी माता की कहानी
ढोरी माता को लेकर मान्यता है कि बेरमो कोयलांचल में में ढोरी कोलियरी (कोयला खदान) पदमा राजा के सुपुत्र कामाख्या नारायण सिंह के अधीन थी. इस खदान में देश के विभिन्न क्षेत्रों के कोयला मजदूर कोयला काटते थे. ढोरी तीन नंबर खदान में रूपा सतनामी नामक एक मजदूर भी कोयला काटता था. 12 जून 1956 की सुबह मजदूरों के साथ रूपा कोयला काटने में व्यस्त था. वह लगातार गैता चला रहा था. तभी रूपा को तीन बार ‘गैता धीरे चलाओ, मैं यहां उपस्थित हूं’ की आवाज सुनायी दी. इस आवाज को भ्रम मानकर वह फिर गैता चलाने लगा. जैसे ही गैता चलाया, खदान के अंदर एक प्रतिमा दिखाई दी. जिसका एक हाथ गैता के प्रहार से टूट गया था. प्रतिमा एक देवी की थी. इसे देख रूपा ने इसकी जानकारी अन्य मजदूरों को दी. यह प्रतिमा मां काली की तरह दिखी. उन्होंने इस प्रतिमा को ढोरी स्थित मजदूरों के कार्यालय में लाकर स्थापित कर दिया. धीरे-धीरे प्रतिमा मिलने की खबर आग की तरह फैल गयी और उच्चाधिकारियों को भी इसकी जानकारी दी गयी. जिस जगह प्रतिमा निकली थी उसे मंदिर का रूप दे दिया गया. मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ जुटने लगी. इस अद्भुत चमत्कार की खबर ढोरी के तत्कालीन खान प्रबंधक (ईसाई) को मिली. प्रतिमा देखने के बाद उन्होंने पाया कि यह प्रतिमा काली की नहीं बल्कि माता मरियम की है. प्रबंधन ने इसकी सूचना बोकारो थर्मल के ख्रिस्तीय पुरोहित को दी. पुरोहित अल्बर्ट भरभराकन ने इस प्रतिमा को देखा और प्रतिमा निकलने की सूचना अन्य ख्रिस्तीय विश्वासियों को दी. इस प्रतिमा को जारंगडीह लाया गया. प्रतिमा के साथ काफी संख्या में भक्त पैदल वहां पहुंचे. जारंगडीह में लाने के बाद फादर अल्बर्ट ने ख्रीस्त भोग चढ़ाया और माता मरियम को ढोरी की माता व श्रमिकों की माता तथा संरक्षक माना. इस छोटे से समारोह के बाद प्रतिमा को जारंगडीह में स्थापित कर दिया गया. इसे बाद में गिरिजाघर का रूप दे दिया गया. वर्ष 1965-67 के बीच इस प्रतिमा को परीक्षण व शोध के लिए पुणे एवं मुंबई ले जाया गया, जहां शोधकर्ताओं ने पाया कि कटहल की लकड़ी से बनी यह प्रतिमा सैकड़ों वर्ष पुरानी है. शोधकर्ताओं को आभास हुआ कि यह प्रतिमा वास्तव में ईश्वर की कृपा से अब तक सुरक्षित रही. उधर, इस घटना की जानकारी रांची महाधर्म प्रांत के तत्कालीन आर्च विशप पीयूष को जैसे ही मिली. उन्होंने प्रतिमा को अपने पास विशप हाउस मंगवाया. वर्ष 1964 में संत पॉल (छठा) के भारत आगमन पर जारंगडीह के ख्रिस्त सदस्य प्रतिमा को मुंबई ले गये. जहां संत पॉल में प्रतिमा का दर्शन किया गया. 1970 में डाल्टेनगंज धर्मप्रांत के प्रथम विशप जार्ज सोपेन ने ढोरी माता की उपस्थिति तथा सभी तत्थों से अवगत होकर ढोरी माता को पूरे डाल्टेनगंज धर्मप्रांत की संरक्षिका घोषित किया. इस परंपरा को द्वितीय विशप चार्ल्स सोरेन ने भी बनाये रखा.
रिपोर्ट : राकेश वर्मा, बेरमो