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ऐसी थी मनमोहन सिंह की विदेश नीति, पाक-चीन और अमेरिका की चुनौती के बीच लिखी सफलता की इबारत

Manmohan Singh Foreign Policy: मनमोहन सिंह की विदेश नीति की काफी हद तक इस बात पर निर्भर थी कि 2005 के वसंत और गर्मियों में उनकी तीन कूटनीतिक पहलों ने प्रधानमंत्री के रूप में उनके बाकी कार्यकाल में कैसे काम किया? निश्चित रूप से ये तीन संभावनाएं 1998 से लेकर 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में उभरी थीं और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पूरी तरह से तैयार हुई थीं.

Manmohan Singh Foreign Policy: पूर्व पीएम मनमोहन सिंह न केवल आर्थिक उदारीकरण के शिल्पकार थे, बल्कि एक बड़े कूटनीतिज्ञ भी थे. साल 1991 से लेकर 1996 तक वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों के जरिए भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक नई पहचान बनाने और उभरने की नींव रखी. वहीं, 2004 से 2014 तक एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने क्षेत्रीय शांति स्थापित करने और अमेरिका के साथ वैश्विक साझेदारी के जरिए एक समान विदेश नीति विकसित करने में अहम भूमिका निभाई. यह वही दौर था, जब मनमोहन सिंह ने अमेरिका, पाकिस्तान और चीन के साथ चुनौतीपूर्ण रिश्तों के बीच बड़ी सफलताओं की इबारत लिखी.

मनमोहन सिंह को झेलना पड़ा था चौतरफा विरोध

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, अपने प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की धमक बढ़ाने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन, उन्हें अपनी ही पार्टी के साथ कठिनाइयां, राजनीतिक तौर पर चौतरफा विरोध, नौकरशाही और विदेशी नीति समुदाय के कड़े विरोध ने उनके पहले कार्यकाल से ही नई कूटनीतिक संभावनाओं को साकार करने से रोक दिया. साल 2005 की शुरुआत में कुछ ही हफ्तों के दौरान प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह को पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के साथ भारत के तीन सबसे चुनौतीपूर्ण रिश्तों में बड़ी सफलताएं तलाशने का मौका मिला.

अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उभरी थीं तीन संभावनाएं

रिपोर्ट में कहा गया है कि मनमोहन सिंह की विदेश नीति की काफी हद तक इस बात पर निर्भर थी कि 2005 के वसंत और गर्मियों में उनकी तीन कूटनीतिक पहलों ने प्रधानमंत्री के रूप में उनके बाकी कार्यकाल में कैसे काम किया? निश्चित रूप से ये तीन संभावनाएं 1998 से लेकर 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में उभरी थीं और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पूरी तरह से तैयार हुई थीं.

दिल्ली के साथ नया संबंध बनाने को उत्सुक था वाशिंगटन

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि विदेश नीति एक निरंतरता है, जो एक सरकार के साथ समाप्त नहीं होती और न ही दूसरी सरकार के साथ शुरू नहीं होती है. प्रत्येक सरकार ऑब्जेक्टिव बाहरी परिस्थितियों से निपटने में कुछ व्यक्तिपरक (ग्लोबल विजन, राजनीतिक इच्छाशक्ति और घरेलू क्षमता के संदर्भ में) लाती है. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि आपके वार्ताकार के पास वीटो है. यह सब हमारे बारे में नहीं है. अवसरों को नतीजों में बदलने के लिए एक इच्छुक संप्रभु की आवश्यकता होती है. यदि पाकिस्तान और चीन भारत के साथ तत्काल शांति की जरूरतों के बारे में आश्वस्त नहीं थे, तो वाशिंगटन दिल्ली के साथ एक नया और गहरा संबंध बनाने के लिए उत्सुक था.

पाकिस्तान के साथ रिश्ते को सुधार न सका क्रिकेट कूटनीति

रिपोर्ट में कहा गया है कि पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के साथ नए रास्ते आजमाते हुए कई बाहरी संकटों का सामना किया. इसमें 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से पोखरन परमाणु परीक्षण करना भी शामिल था. विरासत में अनुकूल परिस्थिति मिलने पर मनमोहन सिंह ने तीन कूटनीतिक मोर्चों पर गति बढ़ा दी. अप्रैल 2005 में जनरल परवेज मुशर्रफ की दिल्ली में क्रिकेट मैच देखने की यात्रा ने कश्मीर मुद्दे पर समझौते की व्यापक रूपरेखा तलाशने का अवसर प्रदान किया. हालांकि, भारतीय पक्ष की ओर से राजदूत सतिंदर लांबा द्वारा संचालित कश्मीर पर गंभीर बैक-चैनल वार्ता को समाप्त नहीं किया जा सका. कांग्रेस पार्टी का सत्तारूढ़ नेतृत्व पाकिस्तान के साथ बड़े कदम उठाने में पूरी तरह से असहज था. पार्टी मनमोहन सिंह को पाकिस्तान जाने तक नहीं देती थी.

2008 के मुंबई हमले से पाकिस्तान के साथ रिश्ते में आई खटास

रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में झिझक के कारण पाकिस्तान की ओर से भी गति धीमी पड़ गई, क्योंकि मुशर्रफ की शक्ति कम होने लगी और नवंबर 2008 में मुंबई में पाकिस्तान की ओर से प्रायोजित आतंकी हमलों के बाद रिश्ते फिर से संकट की स्थिति में आ गए. यह अनुमान लगाना व्यर्थ है कि क्या दिल्ली में मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति 2005-07 के दौरान भारत-पाकिस्तान संबंधों को एक नई दिशा दे सकती थी. लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के साथ एक बड़ा कूटनीतिक अवसर खो दिया गया.

अप्रैल 2005 में चीन के साथ सीमा विवाद समझौते पर हस्ताक्षर

रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल 2005 में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने दिल्ली का दौरा किया. दिल्ली और बीजिंग के बीच जटिल सीमा विवाद को सुलझाने के लिए सिद्धांतों और मापदंडों पर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. यह वास्तव में पहली बार था कि इस तरह की सहमति को अंतिम रूप दिया गया. लेकिन, सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत जल्द ही रुक गई. इसका कारण यह रहा कि बीजिंग ने समझौते के प्रावधानों की फिर से व्याख्या करना शुरू कर दिया. भारत समझौते के लिए उत्सुक था, लेकिन बीजिंग इसके लिए तैयार नहीं था, क्योंकि साल 2000 के दशक के मध्य से दोनों देशों के बीच पावर का अंतर चीन के पक्ष में तेजी से बढ़ रहा था.

2013 में बढ़ गया चीन के साथ सीमा विवाद

इसके बाद जब शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन राजनीतिक रूप से मुखर हुआ और अपने पड़ोसियों के साथ सीमा विवादों के लिए सशक्त दृष्टिकोण अपनाया, तो चीन-भारत संबंध भी जटिल मोड में आ गए. यह सैन्य संकटों की एक शृंखला के रूप में सामने आया. पहला बड़ा सीमा विवाद 2013 में यूपीए शासन के अंत में हुआ. मनमोहन सिंह की अमेरिकी कहानी बहुत और परिणाम अलग निकले. मार्च 2005 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोंडोलीजा राइस भारत के साथ लंबे समय से चले आ रहे परमाणु विवाद को सुलझाने का वादा करते हुए दिल्ली आईं. बदले में, यह भारत को एक मजबूत क्षेत्रीय साझेदार के रूप में लेकर एशियाई सुरक्षा व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित करने की अमेरिका की नई पहल का हिस्सा था.

अमेरिका के साथ हुए दो समझौते पर वामपंथियों और भाजपा का विरोध

इसके बाद कूटनीतिक कार्रवाई में दिल्ली और वाशिंगटन ने जून 2005 में एक रक्षा सहयोग समझौते और जुलाई 2005 में एक असैन्य परमाणु पहल पर हस्ताक्षर किए. अमेरिका के साथ नए कूटनीतिक जुड़ाव के पैमाने और संभावित दायरे ने यूपीए के वामपंथी सहयोगियों के जोरदार विरोध के बीच कांग्रेस पार्टी को परेशान कर दिया. अगर अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के साथ परमाणु संबंध बनाने का रास्ता बनाया था, तो लाल कृष्ण आडवाणी की भाजपा ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ मनमोहन सिंह के ऐतिहासिक समझौते पर हमला किया. वामपंथियों और भाजपा ने मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के लिए हाथ मिला लिया.

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अमेरिका के साथ समझौते को लागू करने के लिए करना पड़ा संघर्ष

रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार बड़ी चुनौती से बच गई, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में अमेरिका के साथ परमाणु पहल को समाप्त करने की कोई राजनीतिक इच्छा नहीं थी. मनमोहन सिंह के इस्तीफे की धमकी ने ही कांग्रेस पार्टी को 2008 में इस पहल को औपचारिक रूप देने के लिए प्रेरित किया. हालांकि, वे 2009 में एक बड़े जनादेश के साथ प्रधानमंत्री के रूप में वापस लौटे, लेकिन मनमोहन सिंह को अमेरिका के साथ कई नए समझौतों को लागू करने में संघर्ष करना पड़ा. बड़े स्तर पर राजनीतिक, बौद्धिक और नौकरशाही विरोध के बीच अमेरिकी संबंधों को बदलना प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी रणनीतिक विरासत के रूप में जाना जाएगा. इसने 1990 के दशक में भारत की आर्थिक प्रगति में उनके योगदान को सुदृढ़ किया.

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