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दलबदल की राजनीतिक संस्कृति

आज के दौर में राजनीति के लिए प्रमुख शर्त वैचारिक प्रतिबद्धता कहीं खो गयी है. पहला मकसद चुनाव जीतना भर रह गया है. इस दौर की राजनीति के लिए सत्ता साध्य बन चुकी है, साधन तो खैर वह है ही.

आधुनिक भारतीय राजनीतिक इतिहास में 1963 के साल को प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है. उस साल गैर कांग्रेसवाद की छतरी के नीचे समाजवादी धारा के प्रमुख स्तंभ और भारतीय राजनीति के विद्रोही राममनोहर लोहिया तथा राष्ट्रवादी धारा के विचारक-राजनेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय साथ आये थे. चार लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में दोनों ने मिलकर कांग्रेस को न सिर्फ चुनौती दी, बल्कि इतिहास रच दिया. वह चुनाव इस मायने में भी विशेष रहा कि उस साल चुनावी राजनीति में कुछ मूल्य रचे गये. मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्र होने के बावजूद लोहिया ने समान नागरिक संहिता की वकालत की, तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ब्राह्मण बिरादरी के नाम पर जौनपुर में वोट मांगने से इनकार कर दिया. इसका असर यह हुआ कि लोहिया को बमुश्किल जीत हासिल हुई, तो दीनदयाल उपाध्याय संसद की देहरी पहुंचने से चूक गये. पर दोनों नेताओं ने अपने राजनीतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया. आज के दौर में राजनीति के लिए प्रमुख शर्त वैचारिक प्रतिबद्धता कहीं खो गयी है. पहला मकसद चुनाव जीतना भर रह गया है. इस दौर की राजनीति के लिए सत्ता साध्य बन चुकी है, साधन तो खैर वह है ही. यही वजह है कि चुनावी मौसम आते ही राजनीतिक दलों में आवाजाही बढ़ जाती है. राजनीतिक आवागमन के इस खेल के खिलाड़ी लगभग हर पार्टी में हैं.


इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है. पंजाब के लुधियाना से कांग्रेस के सांसद रवनीत बिट्टू ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया. कुछ दिन पहले पंजाब से ही कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य परनीत कौर ने भी कमल के फूल में भरोसा जताना पसंद किया था. झारखंड की राजनीति में पितृपुरूष के रूप में स्थापित दिशोम गुरू शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन न सिर्फ भाजपा में शामिल हुईं, बल्कि उन्हें राज्य की दुमका सीट से पार्टी ने उम्मीदवार भी बना दिया. झारखंड के निर्दलीय विधायक रहते मुख्यमंत्री बनने वाले मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा भी अब भाजपा की नेता हैं. ऐसा नहीं कि सिर्फ कांग्रेस से ही भाजपा में लोग आ रहे हैं. झारखंड भाजपा के प्रभावशाली नेता जयप्रकाश पटेल कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं.

तेलंगाना से भाजपा नेता सतीश मडीगा कांग्रेस में गये हैं. राजनीतिक आवाजाही से न तो राजद मुक्त है और न जदयू. जदयू विधायक बीमा भारती आरजेडी में चली गयीं, तो आरजेडी के साथ रही लवली आनंद जदयू में शामिल हो चुकी हैं. मध्य प्रदेश में भाजपा नेता पंकज लोधा कांग्रेस में चले गये. हिमाचल कांग्रेस के छह बागी विधायक भी कमल का फूल खिलाने में जुट गये हैं. सियासी आवाजाही के इस खेल में अभी फायदे में भाजपा नजर आ रही है, जबकि दूसरे दल इक्का-दुक्का नेताओं को ही दूसरे दलों से तोड़ पाने में कामयाब हो पाये हैं. छोटे दलों के आलाकमान के अपवाद को छोड़ दें, तो किसी भी बड़े दल का प्रमुख नेतृत्व आवाजाही में शामिल नहीं है.


हर दल की अपनी वैचारिकी और प्रतिबद्धता होती है. किसी दल में लंबे समय तक कार्य करने का एक अर्थ यह होता है कि व्यक्ति, कार्यकर्ता या नेता उस दल की विचारधारा को लेकर प्रतिबद्ध होता है. जब तक वह दल में रहता है, तब तक उसके लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. अपने दलीय आलाकमान के प्रति निष्ठावान भी रहता है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या दलीय सीमा को पार करते ही बरसों से राजनीतिक वैचारिकी से लैस रहे राजनेता की वैचारिकी क्या उसके राजनीतिक पटके की तरह अचानक से बदल जाती है. आवाजाही का यह खेल दलों के उन कार्यकर्ताओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, जो बरसों से अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहे होते हैं. लेकिन उन कार्यकर्ताओं को यह आवाजाही उत्साह से भर देती है, जो दल विशेष के केंद्रीय नेतृत्व से प्रभावित होकर या सत्ताकांक्षा के चलते उस दल विशेष के प्रति सहानुभूति रखते हैं या फिर उसके समर्थक बन जाते हैं. राजनीतिक आवाजाही से जमीनी स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता को झटका भी लगता है.

दरअसल होता यह है कि जमीनी स्तर का कार्यकर्ता अपनी दलीय वैचारिकी और नेतृत्व की वजह से अपने दल से जहां विशेष मोहब्बत करता है, वहीं अपने नेतृत्व के प्रति निष्ठा भी रखता है. इसके चलते वह विरोधी दलों के नेता और कार्यकर्ता से अक्सर भिड़ता भी रहता है. जमीनी स्तर पर यह भिड़ंत कई बार व्यक्तिगत स्तर तक पहुंच जाती है. लेकिन जैसे ही राजनीतिक दबाव और जरूरत के लिहाज से कोई नेता विरोधी दल में शामिल होता है, जमीनी स्तर के कार्यकर्ता को झटका लगता है. जमीनी स्तर पर कई कार्यकर्ता ऐसे भी होते हैं, जो चुनावी राजनीति में खुद के भी स्थापित होने की ख्वाहिश रखते रहे हैं. लेकिन जब विपक्षी दल का वह नेता उसके दल में शामिल हो जाता है, जिसके विरोध में उसकी जमीनी राजनीति परवान चढ़ती रही है, तो जैसे उसके सपनों पर विराम लग जाता है. इसलिए कई बार आवाजाही के खेल का असर जमीनी स्तर पर उल्टा भी पड़ जाता है.


यह सच है कि भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी ने जो छवि और जगह हासिल कर ली है, फिलहाल उनके मुकाबले दूसरा कोई नेता नजर नहीं आ रहा है. इसलिए चुनावी राजनीति में अपना भविष्य संवारने वाले नेताओं को भाजपा में ही अपना भविष्य दिख रहा है. इसलिए भाजपा की ओर विपक्षी दलों के नेताओं का रुझान ज्यादा है. बेशक भाजपा इसे अपनी सफलता मान सकती है. लेकिन इनमें से कितने लोग भाजपा की विशेष वैचारिकी के प्रति निष्ठावान रह पायेंगे, यह कहना मुश्किल है. हमने जिस लोकतंत्र को स्वीकार किया है, उसे दुनिया का सबसे बेहतर शासन मॉडल माना जाता है. इसका एक मकसद लोक का विश्वास हासिल करना और लोक की भलाई करना है.

लेकिन सवाल यह है कि आवाजाही की राजनीतिक संस्कृति क्या लोक की इन अपेक्षाओं पर सही मायने में खरी उतर सकती है. सवाल यह भी है कि किसी खास विचारधारा के साथ काम करते हुए खास राजनीतिक शख्सियत ने अगर लोक भरोसा जीता होता, अगर लोक कल्याण किया होता, तो फिर उसे दल को बदलने की जरूरत ही क्यों पड़ती. ऐसे में यह भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि नये दल में जाकर वही राजनीतिक शख्सियत किस हद तक लोक के प्रति जवाबदेह रह पायेगी. आज नहीं तो कल, भारतीय लोकतंत्र को इन सवालों से जूझना ही होगा, भले ही इस ओर मौजूदा राजनीति का ध्यान नहीं हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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