फिल्म- ऐ वतन मेरे वतन
निर्माता- धर्माटिक्स
निर्देशक- कनन अय्यर
कलाकार- सारा अली खान, इमरान हाशमी, स्पर्श श्रीवास्तव, अभय वर्मा, एलेक्स ओ नील, आनंद तिवारी, सचिन खेड़ेकर और अन्य
प्लेटफार्म- अमेजॉन प्राइम वीडियो
रेटिंग- दो
Ae Watan Mere Watan Review: बीते कुछ सालों से गुमनाम नायकों की कहानियां हिंदी सिनेमा की कहानियों की अहम धुरी बनते जा रहे हैं. अमेजॉन प्राइम की आज रिलीज हुई फिल्म ऐ वतन मेरे वतन ऐसे ही इतिहास के पन्नों से गुम एक नायिका की कहानी है. यह कहानी स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता की है, जिन्होंने 1942 के अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी थी. यह फिल्म उसी दौरान उनके संघर्ष को सामने लाती है, लेकिन यह फिल्म इस महान आजादी की सेनानी की प्रेरक कहानी के साथ न्याय नहीं कर पायी है. फिल्म का स्क्रीनप्ले हो या फिर सारा अली खान का अभिनय पर्दे पर वह प्रभाव नहीं जोड़ पाया है, जो इस फिल्म की सबसे बड़ी जरूरत थी.
कांग्रेस रेडियो की है कहानी
फिल्म की कहानी की बात करें तो इसका कालखंड 1942 की आज़ादी के समय का है. जब पूरा देश अंग्रेज भारत छोड़ो, करो या मरो जैसे नारों से गूंज रहा था. असल घटनाओं से प्रेरित यह फिल्म 22 वर्षीय युवा उषा मेहता (सारा अली खान) की है. जिसके पिता अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए काम करते थे, लेकिन उषा देश को ग़ुलामी से आज़ाद करवाने के लिए संघर्ष कर रही थी. इसी बीच उषा मेहता ने कांग्रेस रेडियो की शुरुआत की, जिसने उस समय स्वतंत्रता संग्राम को गति दी जब ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया और उसके सभी शीर्ष नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया था. उषा मेहता की इस कहानी में रेडियो स्टेशन स्थापित करने, आजादी की आग को बढ़ाने से लेकर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इसे बंद करवाने की घटना सामने आती है. यह फिल्म उस वक्त संचार की जरूरत को भी समझाने की कोशिश करती है, जो पूरे भारत में आजादी की लड़ाई को एकजुट कर सकता था.
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फिल्म की खूबियां और खामियां
फिल्म की कहानी और उससे जुड़े किरदारों की बात करें तो इस प्रेरक कहानी में एक बेहतरीन फिल्म बनने के सभी गुण मौजूद थे, लेकिन यह फिल्म पर्दे पर वह रोमांच नहीं ला पायी है, जो रोंगटे खड़े कर दें ना ही भावनात्मक रूप से कोई दृश्य ऐसा बन पाया है, जो दिल को झकझोर दें. फिल्म का पहला भाग स्लो है. उषा मेहता का आजादी लड़ाई से जुड़ने और पिता से अलग सोच रखने की वजह को कहानी में ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है. निजी जिंदगी पर बहुत कम फोकस रखा गया है. इस प्रेरक कहानी में रोमांच तब थोड़ा बहुत आया है, जब अंग्रेजों द्वारा रेडियो स्टेशन को पकड़ने की जद्दोजहद शुरू होती है, उस वक्त फिल्म में थोड़ी दिलचस्पी जरूर बढ़ती है, लेकिन फिर कहानी के बढ़ने के साथ वह बढ़ता नहीं खत्म हो जाता है. इस बायोपिक फिल्म में उस दौर के नौजवानों के आजादी को लेकर जज्बे और जुनून को भी दिखाया गया है, जो एक अच्छा पहलू है लेकिन फिल्म दूसरे किरदारों को सही ढंग से गढ़ नहीं पायी है. फिल्म का बैकड्रॉप 40 का है. फिल्म के कॉस्ट्यूम और सिनेमाटोग्राफी में वह नजर आता है, लेकिन संवाद में वह गायब है. संवाद अदाएगी का अन्दाज मौजूदा दौर सा है. गीत संगीत कहानी के अनुरूप हैं.
सारा फिर गयी हैं चूक
अभिनय की बात करें तो यह सारा अली खान की फिल्म है. अपने किरदार में रचने-बसने के लिए उन्होंने बहुत कोशिश की है, लेकिन उन्हें खुद पर और काम करने की जरूरत है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कई बार उनका एक्सप्रेशन लाउड होने से बच नहीं पाया है, जो फिल्म में उनके अभिनय को कम कर गया है. स्पर्श श्रीवास्तव है की तारीफ करनी होगी. एक बार फिर उन्होंने अपने अभिनय में छाप छोड़ी है. दिव्यांग युवक की भूमिका को उन्होंने अपने बॉडी लैंग्वेज में बारीकी के साथ जोड़ा है. अभय वर्मा भी अपने किरदार के साथ न्याय कर गये हैं. इमरान हाशमी प्रभावी ढंग से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं. बाकी के किरदारों का काम कहानी के अनुरूप है.
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