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Tapan Sinha Birth Anniversary: बेटे का खुलासा बाबा खुश थे कि मैं फिल्मों में नहीं आया..

भारतीय सिनेमा के दिग्गज फिल्मकारों में शुमार तपन सिन्हा एक पिता के तौर पर कैसे थे.उनकी सीख और सोच को उनके बेटे अनिंद्य सिन्हा ने इस खास इंटरव्यू में साझा किया है.

tapan sinha birth anniversary: महान फिल्मकार तपन सिन्हा के बेटे अनिंद्य सिन्हा एक रिसर्च साइंटिस्ट हैं. उनकी मानें तो उनके बाबा तपन सिन्हा की परवरिश ही थी, जो उन्होंने फिल्मों से अलग अपना मुकाम बनाया. इस बात को कहने के साथ वह यह भी बताना नहीं भूलते कि उनकी गहरी रुचि साहित्य और संगीत में है. जो उन्हें माता पिता से ही विरासत में मिली है.अपने पिता की जन्म शताब्दी के इस मौके पर उन्होंने उर्मिला कोरी के साथ बातचीत में अपने पिता के साथ अपनी खास यादों को सांझा किया

बाबा खुश हुए कि मैं फिल्मों में नहीं आना चाहता

 मेरे पिता मेरे प्रेरणा थे.वह इतने महान फिल्मकार और पॉपुलर नाम थे,लेकिन उन्होंने कभी भी मुझ पर अपने किसी भी फैसले को थोपा नहीं।अगर आज मैं फिल्मकार नहीं बल्कि रिसर्च साइंटिस्ट हूं ,तो वह उनकी वजह से है. इस तरह से उन्होंने मुझे पाला है कि जहां मैं यह फैसला लेने के लिए पूरी तरह से आजाद था कि मैं किस तरह की जिंदगी जीना चाहता हूं.आमतौर पर आपके पिता जिस भी फील्ड में लीजेंड हैं.आपको वही पर जाना पड़ता है, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं था.जब मैंने अपने फैसले के बारे में उन्हें बताया तो वह बेहद खुश हुए कि मैं रिसर्च में जाना चाहता हूँ. रिसर्च फ्रेटर्निटी के लिए उनके दिल में बेहद सम्मान था क्योंकि उनकी सोच थी कि रिसर्च के जरिये ह्यूमन और नॉन ह्यूमन दोनों को बहुत फायदा होता है

वेस्टर्न के साथ भारतीय साहित्य की किताबें भी पढ़कर सुनाते थे

बाबा अपने काम के लिए बेहद समर्पित थे लेकिन वह मेरे लिए समय निकाल लेते थे. जब मैं १३ साल की उम्र का हुआ था, तब वह मुझे अपने साथ यूरोप टूर पर ले गए थे. उस दौरान उन्होंने मुझे वेस्टर्न आर्ट् और वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक से  रूबरू करवाया लेकिन उन्होंने इस बात का भी पूरा ख्याल रखा कि  मेरा एक्सपोज़र भारतीय साहित्य और संगीत से भी उतना ही रहे।खासकर रबीन्द्रनाथ टैगोर को लेकर। वह अपने व्यस्त शेड्यूल के बीच में समय निकालकर मेरे पास बैठकर किताबें पढ़ते थे.मर्डर इन कैथेर्डल को पढ़ते थे,तो अगली किताब रबीन्द्रनाथ टैगोर या किसी और भारतीय  साहित्यकार की होती थी. उनकी वजह से बहुत छोटी उम्र में ही पोएट्री से भी मेरा लगाव हो गया था.  

एडल्ट सर्टिफिकेट वाली फिल्में छोटी उम्र में दिखाना शुरू कर दी थी

 वह बहुत ही रोचक इंसान थे.उनके सोचने का नजरिया बिल्कुल अलग था. मुझे याद है कि मैं १३ साल का था, उसके बाद से वह मुझे एडल्ट सर्टिफिकेशन वाली फिल्म थिएटर में दिखाने ले जाते थे.जो टिकट चेक करते थे, वो बाबा को बोलते कि यह छोटा है. उस वक्त ही ऐसा समय होता था, जब बाबा अपना प्रभाव दिखाते थे और टिकट चेकर को बताते थे कि मैं फिल्ममेकर तपन सिन्हा हूं। मेरा बेटा ग्रोइंग ईयर में है.जो मौजूदा इश्यू है. उससे उसको आगे जाकर डील करना ही है.इसकी तैयारी मैं इसको आगे से करवा देना चाहता हूं और मेरे जैसे अनुभवी के साथ उसको चीजों का और बेहतर नजरिया मिल सकता है. मैं बहुत खुश हूं कि उन्होंने मुझे उस तरह से पाला है क्योंकि अगर उनकी परवरिश नहीं होती तो आज मैं जो हूं. वह नहीं होता था. मेरी रूचि आर्ट, साहित्य और म्यूजिक में उनकी वजह से ही थी. वर्ल्ड अफेयर से भी उन्होंने की वाकिफ करवाया था.वह बहुत ही लिबरल सोच के थे। इस वजह से मेरी भी सोच काफी विकसित हुई थी.

वह बहुत ही अनुशासन प्रिय थे

उनकी फिल्मों की शूटिंग में मैं बहुत जाता था लेकिन वहां कोई पिकनिक जैसा माहौल नहीं होता था. वह बहुत ही अनुशासन प्रिय थे. कुछ चीजों को जिस तरह से उन्होंने विजुअलाइज किया है, उन्हें वह उस तरह से ही करना पसंद था.सभी उनका बेहद सम्मान करते थे इसलिए सभी सेट पर उनके अनुशासन के डेकोरम को मेंटेन रखते थे. वह अनुशासन प्रिय थे, लेकिन सेट पर चिल्लाते नहीं थे. वह बहुत ही जेंटल तरीके से सभी से बात करते थे. मैं कितने टेक्नीशियन और एक्टर्स को जानता हूं, जो यह बात हमेशा कहते हैं कि बाबा का उनकी जिंदगी पर बहुत ही पॉजिटिव प्रभाव रहा है. वह युवाओं को बहुत गाइड करते थे. 

दिलीप कुमार को रवींद्रनाथ टैगोर की पोएट्री सुनाते थे 

हिन्दी फिल्मों के सुपरस्टार दिलीप कुमार ने बाबा के साथ फिल्म सगीना की थी. उस फिल्म के दौरान बाबा और उनके बीच एक बहुत ही खास बांडिंग बन गई. मुझे ज्यादा तो याद नहीं है। कुछ कुछ याद है.शूटिंग जब नहीं होती थी, तो बाबा दिलीप कुमार को रवीन्द्रनाथ टैगोर की पोएट्री को पढ़कर सुनाते थे,जिसके बदले में दिलीप कुमार उर्दू की शायरी बाबा को सुनाते थे .बाबा रियलिस्टिक फिल्म मेकर माने जाते थे. यही वजह है कि इस फिल्म के दौरान दिलीप कुमार ने पूरी फिल्म की शूटिंग एकदम रीयलिस्टिक अन्दाज में की थी. कुछ दृश्यों में बाबा बोलते भी थे कि वह बॉडी डबल का इस्तेमाल कर सकते हैं,लेकिन उन्होंने मना कर दिया था.

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वह अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट सहेजते थे 

मेरे पापा फिल्म से जुडी चीजों के  कलेक्शन में विश्वास नहीं करते थे. एक बार फिल्म बनाने के बाद वह उससे निकल जाते थे और फिर वह दूसरे फिल्म पर फोकस करते थे. वह कहते थे कि सहेजना मतलब बाद में पब्लिसिटी चाहना,मुझे  पब्लिसिटी नहीं करना. उनके पास एक चीज जो धरोहर की तरह थी. वह उनकी फिल्मों की उनके हाथ से लिखी गयी स्क्रिप्ट. उसे भी उन्होंने मरने से   स्कूल ऑफ फिल्म्स को दे दिया. उनकी सोच थी कि उनका जो भी काम है. वह सभी को शेयर किया जाए. सिर्फ उनका या उनके परिवार का ही उसपर अधिकार ना हो. यही वजह है कि वह कॉपीराइट जैसी चीजों को नहीं मानते थे. उनकी बांग्ला फिल्मों का हिंदी रीमेक बॉलीवुड में कई सारे हैं,लेकिन उन्होंने कभी भी किसी से पैसे नहीं मांगे. वह खुश होते थे कि उनके काम से लोग प्रेरित हो रहे हैं. वह मुझे हमेशा यही सीखाते कि किसी काम को पैशन के लिए करो. पैसों के लिए नहीं.  

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