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सिनेमाई गलियों में मिर्जा गालिब, जानें उनके बारे में कुछ रोचक बातें

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि रहे मिर्जा असदुल्लाह बेग खां ‘गालिब’ (1797-1869) को भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में ऊंचे दर्जे के शायरों-कवियों में गिना जाता है. सिनेमा ने जिस उर्दू शायर की रचनाओं को सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया, वह बेशक गालिब ही हैं.

‘हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे/ कहते हैं कि ‘गालिब’ का है अंदाज-ए-बयां और’ अठाहरवीं सदी के अंत में जन्मे और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि रहे मिर्जा असदुल्लाह बेग खां ‘गालिब’ (1797-1869) को भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में ऊंचे दर्जे के शायरों-कवियों में गिना जाता है. फारसी कविता को हिंदुस्तानी जुबान में जन-जन के बीच लोकप्रिय करवाने वाले इस शायर को आज दो सदियों बाद भी बड़े चाव से पढ़ा, सुना और याद किया जाता है.

गालिब पर कई फिल्में और टीवी धारावाहिक बने

सिनेमा ने जिस उर्दू शायर की रचनाओं को सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया, वह बेशक गालिब ही हैं. उन पर जो फिल्में और टीवी धारावाहिक बने, उनमें तो उनके लिखे को लिया ही गया और भी बहुत सी फिल्मों में गालिब के लिखे को सीधे या फिर उन्हें आधार बना कर लिखे गये गीतों-गजलों को प्रयोग में लाया गया. गालिब के प्रति सिनेमा वालों के आकर्षण का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1931 में फिल्मों को जुबान मिलते ही उसी वर्ष गालिब की लिखी गजल ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’ को फिल्म ‘अनंग सेना’ में इस्तेमाल किया गया. गालिब की सबसे लोकप्रिय इस गजल को फिल्मों में अनेक बार लिया गया. साल 1932 की ‘गुल-ए-बकावली’, नगेंद्र मजूमदार निर्देशित ‘कीमियागर’ (1936), न्यू थिएटर्स की ‘मिलेनियर’ (1936), बटुक भट्ट की ‘हंटरवाली की बेटी’ (1932), वी शांताराम की ‘अपना देश’ (1949), 1950 की ‘कश्मीर हमारा है’ जैसी कई फिल्मों में यह गजल सुनाई देती है. सोहराब मोदी द्वारा निर्देशित ‘मिर्जा गालिब’ (1954) में यह गजल गुलाम मोहम्मद के संगीत तथा सुरैया और तलत महमूद की आवाज में अमरत्व प्राप्त करती है.

गालिब के शेर की दुनिया है दीवानी

साल 1933 में न्यू थिएटर्स की फिल्म ‘यहूदी की लड़की’ में गालिब के लिखे ‘नुक्ताचीं है गम-ए-दिल’, ‘यह तसर्रुफ अल्लाह अल्लाह तेरे मयखाने में’ जैसे गीत कुंदन लाल सहगल की आवाज में सुनने को मिलते हैं. ‘दिल ही तो है न संगो-खिश्त’ को फिल्म ‘अनंग सेना’ (1931), ‘हृदय मंथन’ (1936), ‘कैदी’ (1940), ‘एक बात’ (1942) आदि में, ‘यह न थी हमारी किस्मत’ को ‘डेक्कन क्वीन’ (1936), ‘मिर्जा गालिब’ (1954), ‘मैं नशे में हूं’ (1959) आदि में इस्तेमाल किया गया. ‘मिर्जा गालिब’ (1954) और 1988 में दूरदर्शन पर आये गुलजार निर्देशित व नसीरुद्दीन शाह अभिनीत धारावाहिक ‘मिर्जा गालिब’ में तो स्वाभाविक तौर पर गालिब के लिखे गीत व गजलें ही ली गयीं. गालिब के एक शेर ‘जी ढूंढता है फिर वही फुर्सत’ को आधार बना कर गुलजार ने अपने निर्देशन में बनी फिल्म ‘मौसम’ (1976) का एक बेहद सुरीला और लोकप्रिय गीत रचा था. इससे पहले ‘दिल से’ (1998) के अपने गाने ‘सतरंगी रे…’ में भी गुलजार ने गालिब के शेर ‘इश्क पर जोर नहीं’ का इस्तेमाल किया था. गालिब का यह शेर तो सिनेमा में न जाने कितनी बार इस्तेमाल किया गया है. इनके अलावा, गालिब के ढेरों शेरों को न जाने कितनी ही फिल्मों में किरदारों द्वारा सुना-सुनाया गया. साथ ही, गालिब के लिखे को सिनेमा में बहुधा प्रयोग में लाया गया, जिनका जिक्र काफी लंबा है.

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