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राजनीतिक सवाल करता सिनेमा, हर स्तर पर झकझोर देती है यह फिल्म

विषय-वस्तु के स्तर पर यह फिल्म हमें गहरा झकझोरती है. समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए राजनीतिक विषय अछूते नहीं थे.

समांतर सिनेमा आंदोलन से निकले फिल्मकार और लेखक सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘अफवाह’ इन दिनों नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. इस फिल्म का सिनेमाघरों में बहुत ही सीमित प्रदर्शन हुआ और वह जल्दी ही उतर भी गयी. फिल्म की चर्चा उस रूप में नहीं हो पायी जिसकी अपेक्षा थी. एक विषय के रूप में राजनीति, सुधीर मिश्रा के सिनेमा में शुरू से मौजूद रही है. ‘अफवाह’ फिल्म में एक बार फिर से वे उसी तेवर और संवेदना के साथ मौजूद हैं. पिछली सदी के अस्सी के दशक में ‘जाने भी दो यारो (1983)’ के साथ उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक लेखक के रूप में की थी. मुंबई के स्लम की जिंदगी पर बनी ‘धारावी’ (1992) और नक्सलबाड़ी आंदोलन और आपातकाल की पृष्ठभूमि में बनी ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ (2003) उनकी बहुचर्चित फिल्में है.

हालांकि, इस फिल्म में राजनीति का विस्तार ‘हजारों ख्वाहिशें जैसी’ नहीं है, लेकिन सच को सच की तरह दिखाने का उनमें साहस है, जो इन दिनों मुश्किल है- न सिर्फ सिनेमा बल्कि साहित्य में भी. फिल्म में साहित्य समारोहों (लिट फेस्ट) पर भी कटाक्ष किया गया है, जहां साहित्य कम, तमाशे ज्यादा दिखते हैं. इस बारे में सुधीर मिश्रा ने कहा, ‘लिट-फेस्ट सिर्फ लिट-फेस्ट नहीं है. वह मेटाफर (रूपक) है हम सबका. हम सबने तो दरवाजे बंद कर दिये हैं न. हम जैसे लोग ही तो हैं. मैं भी तो था वहां. मैं भी रहाब (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) ही हूं.’

ऐसी सूचना या खबर जो तथ्य पर आधारित न हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता न हो, अफवाह है. ऐसा नहीं है कि खबर की शक्ल में दुष्प्रचार, अफवाह आदि समाज में पहले नहीं फैलते थे. वर्तमान में देश की राजनीतिक पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं. उनके पास एक पूरी टीम है जो अफवाह और फेक न्यूज के उत्पादन, प्रसारण, वायरल करने में जुटी रहती है. पिछले दशक में सोशल मीडिया और इंटरनेट के उभार ने भी समाज में अफवाह फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है. यह इस फिल्म का मूल विषय है. फिल्म सधे ढंग से दिखाती है, कि किस तरह अफवाह लोगों की जिंदगी तबाह कर देती है. साथ ही समकालीन समाज में चर्चा के जो विषय हैं- सांप्रदायिकता, लव जिहाद, लिंचिंग आदि फिल्म में लिपटा चला आता है.

मिश्रा कहते हैं, ‘चंदन (शारिब हाशमी) जो लिंचर (मारने वाला) था, वही विक्टिम (पीड़ित) भी है. एक तरह से चंदन ही फिल्म है. नुआंस (बारीकी) कहीं फिल्म में है तो वो है.’ भूमि पेडनेकर की भी फिल्म में केंद्रीय भूमिका है. हालांकि, निर्देशक ‘अफवाह’ की पड़ताल में मीडिया की भूमिका और फेक न्यूज की तरफ भी कैमरा मोड़ते तो ज्यादा अच्छा रहता. बहरहाल, यह फिल्म समकालीन उत्तर भारतीय राजनीति का एक ठोस दस्तावेज है. यह पूछने पर कि तकनीक क्रांति के इस दौर में सिनेमा की क्या भूमिका रह गयी है, मिश्रा कहते हैं कि ‘सवाल पूछना सिनेमा का काम है, जरूरी नहीं है कि सवाल घोर राजनीतिक हों’. विषय-वस्तु के स्तर पर यह फिल्म हमें गहरे झकझोरती है. समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए राजनीतिक विषय अछूते नहीं थे. उनका ध्येय संवेदनाओं के विस्तार के साथ-साथ दर्शकों को उद्वेलित करना भी था.

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