लघु फिल्म ‘चंपारण मटन’ बीते कुछ समय से सुर्खियों में है. ऑस्कर के स्टूडेंट अकेडमी अवॉर्ड के सेमीफाइनल में पहुंची इस फिल्म का चेहरा ‘पंचायत’ फेम चंदन रॉय हैं. चंदन कहते हैं कि सिनेमा का मतलब सिर्फ एंटरटेनमेंट नहीं होता है. हम सिर्फ नाचने, गाने या बजाने वाले नहीं हैं. आप अभिनय से किसी को हल्का-सा झकझोर दें या सोचने को मजबूर कर दें, तो सिनेमा और कलाकार दोनों की उम्र और बढ़ जाती है. ‘चंपारण मटन’ इसी लीग की फिल्म है. चंदन रॉय से इस फिल्म, उनके करियर और संघर्ष पर उर्मिला कोरी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश.
‘चंपारण मटन’ से किस तरह जुड़ना हुआ?
ये एफटीआइ की डिप्लोमा फिल्म थी. जो भी वहां स्टूडेंट होते हैं, उन्हें पासआउट होने से पहले एक फिल्म देनी पड़ती है. यह फिल्म रंजन कुमार की है. पंचायत के बाद मैं कुछ कमर्शियल फिल्में कर रहा था. जी की वेब सीरीज ‘जांबाज’ और एक सिटकॉम ‘मिसफिट’ से जुड़ा था. इसी बीच रंजन ने मुझे अप्रोच किया. मैंने रंजन को कहा कि फलाने डेट को कहानी सुना दीजिए. कहानी सही रही, तो आगे किया जायेगा. स्क्रिप्ट सुनने के बाद कहानी अच्छी लगी. काफी रियलिस्टिक थी. कैसे आदमी आधारभूत चीजों के लिए तरसता है. यह फिल्म स्टूडेंट ऑस्कर तक पहुंच गयी है, तो खुशी और बढ़ गयी है.
बिहार की कहानी होने के बावजूद बिहार की बजाय महाराष्ट्र में शूट करने की क्या वजह रही?
एफटीआइआइ में नियम है कि 180 मीटर के दायरे के भीतर ही आप वहां के कैमरा, इक्विपमेंट और दूसरी चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं. वैसे यह फिल्म पूरी तरह से बिहार की है. यह फिल्म बज्जिका भाषा में बनी है. मैं बिहार में जहां से आता हूं, वहां भी बज्जिका बोली जाती है. मैं और फिल्म के निर्देशक रंजन, दोनों हाजीपुर से ही हैं. फिल्म से जुड़े जो दूसरे लोग हैं, वो भी बिहार से ही हैं. 12 दिनों में फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली गयी. ये 12 दिन बेहद खूबसूरत और हसीन थे.
इस फिल्म की कहानी क्या है?
एक अति पिछड़ी जाति का युवक है. कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी कर रहा है, लेकिन कोरोना में उसकी नौकरी चली जाती है. एक साल से ऊपर का समय हो गया है,पर उसकी नौकरी लग नहीं रही है. उसी बीच युवक की पत्नी दूसरी बार मां बनने वाली है. उसे काफी समय से मटन खाने का मन है. युवक तय करता है कि वह अपनी पत्नी को मटन बनाकर खिलायेगा. किस तरह से वह मटन बनाने के लिए पैसों का इंतजाम करता है. उसी जद्दोजहद की कहानी है यह फिल्म. फिल्म में मटन एक मेटाफर की तरह है. यह फिल्म मटन के जरिये समाज की विसंगतियों और अन्याय को सामने लाती है.
निर्देशक के तौर पर रंजन को किस तरह से परिभाषित करेंगे?
फिल्म के निर्देशक रंजन कुमार खुद दलित परिवार से है. उसने जिंदगी को बारीकी से देखा है, जो उसकी फिल्म में भी है. फिल्म में एक रोमांटिक सीन है, जिसमें मेरा किरदार अपनी पत्नी के साथ रोमांटिक होना चाहता है. मगर पत्नी मना कर रही है, तो वह उसे बोलता है कि उनका अब जो बच्चा होगा, उसे वह प्राइवेट स्कूल में भेजेगा. इससे यह बात समझ में आती है कि इस समाज के लिए प्राइवेट स्कूल में पढ़ना ही बड़ी बात है.
खबर है कि इस फिल्म के लिए पैसे नहीं लिए?
इस तरह के जो प्रोजेक्ट होते हैं, वो मैं अपने लिए करता हूं, ताकि मैं थोड़ा रिफ्रेश हो जाऊं और मेरे अंदर की इंसानियत थोड़ी बची रहे. फिल्म, वेब सीरीज और विज्ञापन फिल्मों से मैं अच्छा चार्ज करता हूं. मैंने बहुत कुछ झेला है. मुंबई में ऐसे भी दिन देखे हैं, जब सिर्फ खाने के लिए को-एक्टर रघुबीर यादव के घर चला जाता था. सात बंगला में गुरुद्वारा है, वहां के लंगर खाकर मैंने कई दिन गुजारे हैं. वो जो बुरे वक्त मैंने देखे हैं, उसकी कीमत मैं चार्ज करता हूं. जब चंपारण जैसी फिल्में आती हैं, जिनके मेकर्स में प्रतिभा तो है, पर पैसे नहीं है. तब मुझे लगता है कि ऐसी प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए.
पत्रकारिता छोड़ एक्टिंग में संघर्ष करने का जज्बा कैसे आया?
मैं मुंबई के लोखंडवाला में बैठकर आपसे बात कर रहा हूं. पीछे मुड़कर जब मैं देखता हूं और पीछे, जो दस साल मैंने बिताए है. दिल्ली में पत्रकारिता की नौकरी से बिना इस्तीफा दिये मुंबई भाग आना, ये पागलपन अचानक से नहीं आया. बचपन से ही मुंबई के लिए पागल था. भारत के नक्शे में मैं सिर्फ मुंबई ढूंढ़ता था. पटना में अगर देख लूं कि कोई ट्रेन मुंबई जा रही है, तो लगता था कि उसे चूम लूं. इतना मोहब्बत था मुझे मुंबई से. पत्रकारिता भी मैंने मुंबई आने के लिए ही की थी, क्योंकि जानता था कि घरवाले मुंबई के लिए पैसे नहीं देंगे. इसलिए मैंने पत्रकारिता का कोर्स किया, ताकि पैसे थोड़े कमा सकूं. मुंबई आकर संघर्ष करने से मुझे कभी डर नहीं लगा. जानता था कि एक दिन तो मरना ही है. मैं कफन बांधकर आया था. जीत गया तो बहार ही बहार है, हार गया तो कोई बात नहीं.
मुंबई में शुरुआती दिन कैसे थे?
ऑफिस के एक परिचित थे. वे मुंबई में थे, तो उनको बोला कि मुंबई आने पर मुझे भाड़े का घर दिला दीजियेगा. वर्सोवा में उन्होंने रूम दिलवा दिया. फिर ऑडिशन देना शुरू किया. तीन महीने तक भटकता रहा. पहला मौका मुझे डिस्कवरी के सीरियल बाबा रामदेव में मिला. शुरू में टीवी बहुत किया. इससे थोड़े बहुत पैसे मिल जाते थे, पर मुंबई बहुत महंगा शहर है. मुंबई के शुरुआती पांच महीने में ही पत्रकारिता की नौकरी से ढाई साल की जमा पूंजी खत्म हो गयी. यहां घर का भाड़ा बहुत है. ब्रोकर को भी देना है. पैसे खत्म हो गये, तो एक जगह ऐसा ढूंढा, जहां सिर्फ मैं भाड़ा दूं, डिपॉजिट नहीं. लेकिन, कुछ महीने में ही घर से निकाल दिया गया. ऐसा दो-तीन बार हुआ.
परिवार वाले आपकी एक्टिंग से आपके खुश हैं?
मेरे परिवार वाले आर्मी बैकग्राउंड से हैं. मेरे दादा पांच भाई थे. तीन आर्मी में थे. उन्होंने 62, 65 व 71 का युद्ध देखा है. चाचा कारगिल में लड़े हैं. पिताजी पुलिस में रहे हैं. मम्मी को लगता था कि मैं कम से कम दारोगा तो बन ही जाऊंगा, पर मैंने कभी सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म नहीं भरा, क्योंकि मैं शुरू से एक्टिंग में कुछ करना चाहता था. मेरी मां गृहणी है. पिताजी से मैं आज भी बहुत डरता हूं. मेरा भाई सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. दो बहनें हैं. मेरे माता-पिता ने सिर्फ मेरा शो ‘पंचायत ’देखा है. उन्हें ज्यादा मतलब नहीं है, उन्हें बस इस बात की खुशी है कि मैं अपने पैर पर खड़ा हो गया हूं और उनसे पैसे नहीं मांगूंगा.
‘पंचायत 3’ कब आ रही है?
जनवरी के आखिर में उम्मीद है. पांच एपिसोड की शूटिंग पूरी हो चुकी है. तीन एपिसोड बचे हैं. बारिश खत्म होने के बाद भोपाल के पास सीहोर में उनकी शूटिंग होगी.