-शकील खान –
सिर पर कैप, आंखों में नंबर वाला चश्मा और होठों के बीच दबा हुआ सिगार. रंगकर्म से वास्ता रखने वालों को बताने की ज़रूरत नहीं है कि बात हबीब तनवीर की हो रही है. कहां पश्चिमी सभ्यता का प्रतीक ‘सिगार’’ और कहां छत्तीसगढ़ के अनपढ़, गरीब और आदिवासी लोगों के साथ ठेठ देशी अंदाज़ में रंगकर्म. रंगकर्म की दुनिया में नया और अनूठा मुहावरा गढ़ने वाले हबीब साहब को कंट्रास ज्यादा भाता था. इसीलिए तो लंदन के ड्रामा स्कूल ‘राडा’ (रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट) से प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति जब भारत आता है, तो महानगरों का रूख करने के बजाय ग्रामीण परिवेश में अपने रंगमंच के लिए आशियाना तलाशता है.
आज़ादी के पहले हिंदी रंगमंच पारसी थिएटर शैली के प्रभाव में आकंठ डूबा था. देश के रंगकर्म पर पाश्चात्य प्रभाव की झलक साफ दिखाई देती थी. अंग्रेजी सहित विदेशी भाषाओं के अनूदित नाटकों का बोलबाला था. दिलचस्प है कि इस परिपाटी को बदलने और देशज रंगमंच करने का काम ऐसा रंगकर्मी करता है, जो विदेशियों की संगत में रहकर और वहीं से नाटक सीखकर भारत आया था.
कमाल तब तो होता ही है जब ‘आगरा बाज़ार’ में छत्तीसगढ़ी भाषा बोलने वाले ग्रामीण-मजदूर कलाकार उर्दू में संवाद अदायगी करते नज़र आते हैं. कमाल तब भी होता है जब ‘लाहौर’ नाटक में महिला का केन्द्रीय किरदार एक मर्द करता दिखाई देता है. यह जोखिम सिर्फ हबीब जी ही ले सकते थे. इससे जुड़ा एक रोचक किस्सा. यह किरदार निभाने वाले भोपाल के आर्टिस्ट बालेन्द्र सिंह कहते हैं ‘कोलकाता दौरे के वक्त वर्घ्दमान में जब मुझे यह रोल करने को कहा गया तब शो में सिर्फ दो दिन शेष थे. हुआ यूं था कि इस रोल को प्ले करने वाली एक्ट्रेस फ्लोरा बोस को उनके पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के चलते शो छोड़कर जाना पड़ रहा था. तब हबीब साहब ने आदेश दिया ‘बालू दाढ़ी मूंछ कटा लो तुम्हें ये रोल करना है.’
दो दिन में बालेन्द्र इसे कैसे कर पाए ? दरअसल वो इस नाटक में बैक स्टेज और लाइट डिज़ाइनिंग के अलावा रिहर्सल के दौरान प्राक्सी, प्राम्पटिंग भी किया करते थे, इसलिए उन्हें सारे डॉयलॉग याद थे. एक्टर तो वो थे ही. सो ये रोल कर पाए. हबीब साहब पहले भी इस रोल को मेल आर्टिस्ट गिरीश रस्तोगी और राज अर्जुन से करवा चुके थे. दरअसल माई का किरदार एक दबंगई पंजाबन का किरदार था जो बंटवारे के बाद लाहौर के एक मुस्लिम बहुल इलाके में अकेले रह रही थी. सो हबीब जी ने इस किरदार को मेल आर्टिस्ट से करवाया. कलाकारों और केरेक्टर्स की अदला-बदली जैसा दुरूह कार्य हबीब जी सहज कर लिया करते थे, अचानक भी कर लिया करते थे. दरअसल उन्हें अपने कलाकारों पर हद से ज्यादा यकीन था, शिष्यों ने भी गुरू को कभी निराश नहीं किया.
हबीब जी वर्स्टाईल आर्टिस्ट थे. निर्देशक तो थे ही कमाल के अभिनेता भी थे. उन्होंने कमर्शियल सिनेमा भी किया और ऑफ बीट सिनेमा भी. वे गीतकार, कवि, गायक और संगीतकार थे. उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में लोकगीत-संगीत, लोकधुनों और लोक नृत्यों की सुंदर बानगी देखी जा सकती है. इसके लिए उन्होंने खूब पसीना बहाया. देश भर के ग्रामीण इलाकों में घूमे और लोग-गीत, लोक शैलिया को नज़दीक जाकर देखा. उनके नाटक की कहानी गीत संगीत के सहारे आगे का सफर तय करती है. मशहूर संगीत कंपनी एचएमवी ने हबीब तनवीर के नाटक के गीतों के अनेक ऑडियो कैसेट जारी किए.
हबीब जी को अनेक पुरस्कारों से यूं ही नहीं नवाज़ा गया. वे इसके स्वाभाविक हकदार थे. वे राज्य सभा सांसद रहे. पद्मश्री और पद्म विभूषण अवार्ड से अलंकृत हुए. संगीत नाटक अकादमी अवार्ड और संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप भी उन्हें दी गई. ‘चरणदास चोर’ के जि़क्र बिना हबीब तनवीर की बात नहीं होती. उनके इस रोचक नाटक को एडिनबर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टीवल में 1982 में पुरस्कृत किया गया. इस फेस्टीवल में इससे पहले किसी और नाटक को यह सम्मान नहीं मिला था. कहना गलत नहीं होगा ‘दिलचस्प और साहसी प्रयोग करने वाले नाटककार थे हबीब तनवीर.’