पंकज त्रिपाठी ने छठ पर्व को लेकर अपनी यादें शेयर की. साथ ही कहा कि अभिनेता बनने के पीछे छठी मइया की महिमा है. एक्टर कहते है, छठ का नाम लेते ही पुरानी यादों का पिटारा खुल जाता है. इस साल इस खास मौके पर पिताजी की बहुत याद आ रही है. वे अब रहे नहीं, तो उनसे जुड़ी छठ की स्मृतियां आंखों के सामने हैं. किस तरह से सब मिलकर ये त्योहार मनाते थे. दशहरे से ही इसका इंतजार शुरू हो जाता था. कैसे मां साफ-सफाई करती थी, सब मिलजुल कर ठेकुआ बनाना, दउरा के प्रसाद की तैयारी, जैसे गन्ना, हल्दी, अदरक, कच्चा केला, मूली, नये धान आदि सब हमलोग खेतों से लाते थे. हमारे गांव में घर के पीछे ही नदी है. सबसे पहले जाकर घाट की सफाई करते थे. फिर गांव से लेकर घाट तक जाने के रास्ते की सफाई. उसके किनारे केले का पेड़ लगाना व अन्य सजावट करना, हम बच्चों की जिम्मेदारी होती थी. इसे हमलोग बड़े उत्साह से करते थे.
शूटिंग की वजह से इस बार बिहार जाकर छठ नहीं मना पाऊंगा. मेरी मां पहले छठ करती थीं, लेकिन चार साल से हो गये, उन्होंने छोड़ दिया. उसके बाद भाभी ने ले लिया. पटना में मेरी भाभी रीता तिवारी हैं. वे छठ पूजा करती हैं. इस साल भी वहां छठ मनाया जायेगा, लेकिन मैं नहीं जा पाऊंगा. मैं मध्य प्रदेश के एक ग्रामीण इलाके में शूटिंग कर रहा हूं, तो किसी फ्लाइट का कनेक्शन नहीं बन पा रहा है कि एक दिन में जाकर आया जा सके, सो सूरज देव को वहीं से प्रणाम करूंगा. शूटिंग के बाद आसपास के किसी नदी, तालाब में प्रात: जाने की कोशिश रहेगी, ताकि सूरज भगवान को अर्घ्य दे पाऊं.
छठ पूजा करने वाले जो इलाके हैं, वहां पर विस्थापन बहुत हुआ है. लेकिन अच्छी बात ये है कि वे अगर गये भी हैं, तो अपने साथ इस पर्व को भी लेकर गये हैं. जुहू बीच पर होने वाले छठ महापर्व पर पिछले साल गया था. बहुत शानदार अनुभव रहा. बहुत बड़ी संख्या में आस्थावान श्रद्धालु लोग थे. देखकर लगा कि आदमी जब विस्थापित होता है, तो कैसे अपनी सांस्कृतिक-धरोहर को भी अपने साथ लेकर आता है. उसका शानदार उदाहरण जुहू का छठ है, जहां पर लाखों की संख्या में लोग पूरे रीति-रिवाज के साथ करते थे. अक्सर लोग यह भी कहते हैं कि शहरों के छठ पूजा में बदलाव हुआ है. स्विमिंग पूल या कृतिम तालाब में लोग छठ मना रहे हैं, लेकिन हमें समझने की जरूरत है कि वहां वही संसाधन मौजूद है, इससे छठ के प्रति हमारी आस्था तो कहीं से कम नहीं हुई है, बल्कि और बढ़ गयी है.
हां, छठ पूजा से अब बाजारवाद ज्यादा जुड़ गया है. ये सबसे बड़ा बदलाव देखता हूं. हमारे वक्त में पूरा गांव परिवार की तरह था. हमारे खेत में गन्ने की खेती होती थी, तो हम गन्ने दूसरे छठ व्रतियों को बांटते थे और दूसरे अपने खेत के सामान. जिसके घर में जो सामान है, वो दूसरे घर में देता है. हमारे बचपन में छठ का सामान बहुत ही कम बाजार से आता था. सब ऐसे ही एक-दूसरे से आदान-प्रदान कर पर्व हो जाता था. शायद यही वजह है कि इसे ‘लोक त्योहार’ कहा जाता है. गौर करें तो इस त्योहार में बजार की जरूरत ही नहीं है. मिठाई चढ़ती नहीं है, बल्कि घर का बना ठेकुआ चढ़ता है. उसमें पवित्रता की इतनी आवश्यकता है कि उसे छठ व्रती ही बनाते हैं. कपड़े भी रेडीमेड नहीं मिलते थे. एक थान का दस मीटर कपड़ा आता था, जिसे परिवार के पांच लोग धोती के साथ एक ही तरह की शर्ट या कुर्ता पहन लेते थे.
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मेरे कलाकार बनने की कड़ी भी छठ से जुड़ी है. खरना के दिन हमलोग नाटक करते थे, जो लोग बाहर से कमाकर आते थे, वो अच्छा चंदा देते थे. उससे माइक, लाउडस्पीकर, जनरेटर तक का खर्च उठाते थे. अपनी जिंदगी का पहला दो नाटक इसी पर्व पर किये थे. वहीं से अभिनय से जुड़ाव हो गया. इसे आप छठि मइया की महिमा भी मान सकते हैं.
छठ को लेकर सरकार से लेकर आम लोग तक नदियों, तालाब और जो भी जलाशय हैं, उनकी सफाई करते हैं, पर फिर उसी में गंदगी फैलाते हैं. यह प्रकृति पर्व हमें अपने पर्यावरण को स्वच्छ रखने का संदेश देता है, जिसका पालन सभी को करना चाहिए.