चर्चित साहित्यकार धर्मवीर भारती रचित काव्य-नाटक ‘अंधा युग’ (1954) क्लासिक का दर्जा पा चुका है. वर्ष 1963 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निर्देशक रहे इब्राहिम अल्काजी ने जिस रूप में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला और फिर 1974 में पुराने किले के खंडहर की पृष्ठभूमि में खुले मंच पर इस नाटक को प्रस्तुत किया, वह भारतीय रंगमंच के लिए एक किंवदंती बन चुका है. पिछले साठ सालों में सैकड़ों बार विभिन्न निर्देशकों ने इसका मंचन किया है, लेकिन आज भी रंगकर्मी इसे एक चुनौती के रूप में लेते हैं.
पिछले दिनों एनएसडी के पूर्व निर्देशक राम गोपाल बजाज के निर्देशन में एनएसडी रंगमंडल ने इसका मंचन किया. महाभारत से प्रेरित इस नाटक में युद्ध के अंतिम दिन को आधार बनाया गया है. आस्था, अनास्था, ईश्वर की मृत्यु जैसे सवाल आज भी दर्शक को मथते हैं. युद्ध की विभीषिका, ध्वंस, जय-पराजय के बीच निरर्थकता का एक बोध आधुनिक मानव की नियति बन चुका है. नाटक की ये पंक्तियां- ‘उस दिन जो अंधा युग अवतरित हुआ जग पर / बीतता नहीं रह-रहकर दोहराता है’, जैसे हमारे समय को लक्ष्य कर लिखी गयी है. क्या रूस-यूक्रेन युद्ध को मीडिया के माध्यम से देखते-पढ़ते हुए महाभारत की कहानी को हम नहीं जी रहे? क्या हम राजसत्ता के निर्णय को भोगने को अभिशप्त नहीं है? क्या मानवता प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध से कोई सबक ले सकी है? अश्वत्थामा के पागलपन में क्या हम सब शामिल नहीं हैं, जो प्रतिशोध की आग में झुलस रहा है? इन्हीं सवालों में इस नाटक की प्रासंगिकता है.
नाटक में अंधे राजा धृतराष्ट्र और आंखों पर पट्टी बांधे गांधारी कोई मिथक नहीं हैं, बल्कि ये आधुनिक राजनीति व्यवस्था के यथार्थ को निरूपित करते हैं. नाटक में दो प्रहरी जिस तरह सत्ता का परिहास उड़ाते हैं, वह आम आदमी की वेदना और त्रासदी को उजागर करता है. राम गोपाल बजाज ने मंच की परिकल्पना सादगी से की है. उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘इसे एक ऐसा नाटक बनाने की कोशिश कर रहा हूं कि यह प्रोसीनियम व अन्य सभी जगहों पर आसानी से खेला जा सके.’
मंच पर गांधारी की भूमिका में पोतशंगबम रीता देवी और अश्वत्थामा की भूमिका में बिक्रम लेप्चा प्रभावी थे. असल में, इस नाटक में हर पात्र के अभिनय के लिए, चाहे वह प्रहरी हो, वृद्ध याचक हो या युयुत्सु, पर्याप्त जगह है. सौति चक्रवर्ती की प्रकाश योजना रेखांकित करने योग्य है, पर संगीत प्रभावी नहीं कहा जा सकता. यह नाटक रंग-योजना में अलग से कुछ भी जोड़ने में नाकाम है. अल्काजी के नाटकों को हमारी पीढ़ी ने नहीं देखा है, पर हमने बजाज को मंच पर अभिनय करते और उनके निर्देशन में हुए नाटकों को देखा है. बजाज जैसे सिद्ध रंगकर्मी से अपेक्षा थी कि इस क्लासिक नाटक को एक नये रूप में लेकर आते. सवाल है कि इस नाटक की प्रस्तुति में क्यों कोई अभिनव प्रयोग लक्षित नहीं होते? धर्मवीर भारती की रचना से आगे जाकर यह प्रस्तुति कुछ भी नया रचने में क्यों नाकाम रही?
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