काहे खाती
बाता-बाती ठकुर-सुहाती
काहे खाती
काऽहे खाऽती…
की त तोहरे में मिल जाईं
खिलऽ खिलीं, हिल्लऽ हिल जाईं
ना त तोह से लड़-भिड़ जाईं
तू छेड़ऽ, हम छिड़-छिड़ जाईं
किच-किच होखे दिन्ने-राती
काहे खाती
काऽहे खाऽती…
तू गरियवलऽ हम गरियवलीं
फरियावे चललऽ फरियवलीं
कवन-कवन गारी दिहलीं जा
कइसे-कइसे फरियवलीं जा
बान्हि के रखले राखीं गाँती
काहे खाती
काऽहे खाऽती…
की तू रोइबऽ हमरा गइले
की हम रोइब तहरा गइले
मन भ मन प धइले-धइले
जिनिगी बीते फइले-फइले
डाहत आपन-आपन छाती
काहे खाती
काऽहे खाऽती…
काहे वास्ते !
बाताबाती… (या फिर) ठकुरसुहाती… काहे वास्ते !
या तो तुम्हीं में मिल जाऊँ, खिलो (तो) खिलूँ, हिलो (तो) हिल जाऊँ, नहीं तो तुमसे लड़-भिड़ जाऊँ, तुम छेड़ो और मैं छिड़-छिड़ जाऊँ… काहे वास्ते !
तुमने गरियाया, (तो) मैंने (भी) गरियाऽ दिया ; फरियाने चले (तुम) तो फरियाऽ (भी) लिया… कौन-कौन गाली दी हमने, कैसे-कैसे फरियाया हमने – इसे गाँती (की तरह) बाँध के रखे रखूँ… काहे वास्ते!
या तो तुम रोओगे, मेरे (गुजर) जाने पर, या मैं रोऊँगा तुम्हारे (गुजर) जाने पर, (ऐसे में) मन पर मन भर धरे-धरे, जिन्दगी (एक-दूसरे से) दूर-दूर बीते (हमारी)… काहे वास्ते !
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सुर शिकायती
घरवा के लगहीं
छोटी-मुटी गड़ही
गड़ही में गीरि परल जड़ही। … जड़ही।
जड़ही जड़ाऽतिया
बाउरे बराऽतिया
काहे के बनवलऽ प्रभु गड़ही !… गड़ही !
सात गो समुनरा बनवलऽ … बनवलऽ
नदी नार झरना बनवलऽ … बनवलऽ
कबो कुछो तहरा के कहलीं ?… कहलीं ?
गड़ही बनवलऽ बनइतऽ
आपन प्रभुताई तू जनइतऽ
बाकी तनी सोच के बतइतऽ
काहे हमरा घरवा के लगहीं ? … लगहीं !
लगहीं बनवलऽ, चलऽ ठीक बा
तहरा खाती रीत-अनरीत का !
हमरा से बाकी कवन खीस बा
हमके बनवलऽ काहे जड़ही ? … जड़ही।
गिरितीं छपकि के नहइतीं
काहे खाती अतना बरइतीं
हमरा के रउआ जो बनइतीं
मछरी सेवार चाहे बेंगुची।… बेंगुची।
काहे ना बनवलऽ हम के बेंगुची हो रामा
जड़ही बनवलऽ
बेंगुची बनइतऽ भले गड़ही गिरइतऽ
छपकि छपकि के नहइतीं हो रामा
गुन तोहर गइतीं
अखड़ित ना गड़ही ना घरवा के लगहीं
काहे खाती अतना सुनइतीं हो रामा
मानऽ आपन गलती
पुतिन तू होखऽ भा जेलेन्सकी हो रामा
मानऽ आपन गलती…
घर के नगीच ही छोटी-सी गड़ही, गड़ही में गिर पड़ी जड़ही।
जड़ही जड़ा रही है, बहुत बड़बड़ा रही है – प्रभु, काहे को बनाई गड़ही!
सात ठो समन्दर (तुमने) बनाया, नदी-नार-झरना बनाया – (इसके लिए) कभी कुछ भी कहा क्या (मैंने) तुमसे !
(खैर,) गड़ही बनाई (तुमने), बनाते… अपनी प्रभुता तुम जताते, लेकिन जरा सोच के बताते – काहे मेरे घर के नगीच ही (काहे मेरे ही घर के नगीच) !
(मेरे ही घर के) नगीच बनाई (तुमने गड़ही), चलो ठीक है… तुम्हारे लिए रीत क्या, अनरीत क्या… लेकिन, मुझसे कौन खीस है (तुम्हें), मुझे क्यों जड़ही बना दिया!
गिरती (उस गड़ही में, तो मैं भी), छपक कर नहाती, किस लिए इतना बर्राती, मुझे (भी) अगर आप बनाते – मछली, सेवार (शैवाल) या बेंगुची!
काहे नहीं बनाया मुझे बेंगुची हो राम… (इसके बजाय) जड़ही बना दिया ! बेंगुची बनाते, भले ही गड़ही में गिरा देते, छपक-छपक कर नहाती हो राम… गुन गाती तुम्हारे। न गड़ही अखरती, न (गड़ही का) घर के नगीच होना (अखरता)… किसलिए (तुम्हें) इतना सुनाती हो राम… मान लो अपनी गलती … पुतिन तुम होओ चाहे जेलेन्स्की हो राम… मान लो अपनी गलती!
पता : श्री बलदेव पीजी कॉलेज, बड़ागाँव, वाराणसी – 221204, मो. : 9415290286, ई-मेल : udayprakash.1964@gmail.com