प्रत्युष प्रशांत
महात्मा गांधी अपनी पीढ़ी के कुछ उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका को उस वक्त पहचाना, जब कांग्रेस के अंदर महिला भागीदारी और सवालों को लेकर कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी. गांधीजी ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में नये आत्मसम्मान, एक नये विश्वास और एक नयी आत्मछवि को परिभाषित करने का प्रयास किया. 1906-09 के दौरान जब दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के अधिकारों की पैरवी के लिए लंदन का दौरा किया, उन्होंने महिला मताधिकार के नाम से जाने जानेवाले कार्यकताओं द्वारा सड़क पर विरोध प्रदर्शन होते देखा. 1906 में अपनी पत्रिका ‘ओपिनियन’ में प्रकाशित एक लेख में गांधीजी ने लिखा- ‘‘आज पूरा देश उन पर हंस रहा है और उनके पक्ष में केवल कुछ ही लोग हैं. लेकिन ये महिलाएं निडर होकर अपने मकसद में डटकर काम करती हैं. उनका सफल होना और मताधिकार हासिल करना तय है, इसका सीधा कारण यह है कि कर्म शब्दों से बेहतर होते हैं.’’
जब महिला मताधिकार का किया समर्थन
सच है कि भारत में गांधीजी ने शुरुआत में वोटिंग का अधिकार पाने में महिलाओं का समर्थन नहीं किया, उनका कहना था – ‘‘औपनिवेशिक शासकों से लड़ने के लिए उन्हें पुरुषों की मदद करनी चाहिए, परंतु नमक सत्याग्रह संकल्प की तैयारी के दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं का शामिल होना, संघर्षरत रहना और जेल तक जाना, महिलाओं की मुक्ति को लेकर गांधीजी के विचारों में परिवर्तन का प्रस्थान बिंदु सिद्ध हुआ.’’ 1929 में गांधीजी नारी अधिकारों का प्रबल समर्थन करते हुए कहते हैं- ‘‘महिलाओं को मताधिकार और समान कानूनी प्रस्थिति मिलनी ही चाहिए, परंतु समस्या यहां समाप्त नहीं होती. यह राष्ट्र की राजनीतिक पर्यालोचनाओं को प्रभावित करने के लिए वह आरंभ बिंदु है, जहां से महिलाओं को शुरुआत करनी है.’’
जाहिर है वे भारतीय महिलाओं के मताधिकार को उनके सामाजिक जीवन में स्वराज का अंतिम विजय नहीं मानते थे. सिर्फ विधायिका से समानता का लक्ष्य असंभव गांधीजी के अनुसार, समानता का लक्ष्य विधायिकाओं में महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी से पाना संभव नहीं है, इसलिए एक तरफ गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी विधायिका में महिलाओं की भागीदारी का जोरदार वकालत करते हैं, वहीं दूसरी तरफ 23 दिसंबर, 1936 को अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में कहते हैं- ‘‘जब महिलाएं, जिन्हें हम अबला कहते हैं, सबला बन जायेंगी, तो वे सभी जो असहाय हैं, शक्तिशाली बन जायेंगी. सशक्तीकरण उन्हें विधायिका या पुरुषों द्वारा दी जाने वाली सहायता द्वारा नहीं, बल्कि खुद को कमजोर समझने वाली कुछ और भाग्यशाली महिलाओं को अपने दम पर खड़ा होने की ताकत से जुटानी होगी. महिला को खुद को पुरुष की वासना की वस्तु समझना बंद कर देना चाहिए. इसका इलाज पुरुष से ज्यादा उनके हाथ में है.’’ स्पष्ट है गांधीजी महिला समानता के लक्ष्य को महिलाओं की आत्म चेतना से प्राप्त करने पर जोर देते हैं. विधायिका में भागीदारी उसमें सहायक भर हो सकती है, नारी मुक्ति का कोई अंतिम सूत्र नहीं.
स्वतंत्रता-समानता का एक समान अधिकार स्त्रियों को मिलना ही चाहिए
फरवरी, 1918 में भगिनी समाज, बंबई में एक भाषण में गांधीजी ने कहा- महिलाओं को जीवन की सभी गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है और पुरुषों की तरह स्वतंत्रता और समानता का अधिकार है. वह अपने कार्यक्षेत्र में उसी सर्वोच्च स्थान की हकदार है, जिस तरह मनुष्य अपने क्षेत्र में, परंतु महिलाओं को समानता तभी मिलेगी जब लड़की के जन्म को भी उतनी खुशी से मनाया जायेगा, जितना लड़के के मामले में मनाया जाता है (द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी खंड-87, पेज-229). जाहिर है महात्मा गांधी महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में उचित स्थान दिलाने के प्रबल पक्षधर थे. वहीं घर की चारदिवारों में महिलाओं के उत्पीड़न को वे सड़ी-गली पूर्वाग्रही सोच मानते थे, जिसे कानूनी अधिकारों के साथ-साथ नैतिक मूल्यों के प्रयोग से जड़-मूल से नाश किया जा सकता है. एक आजाद देश में महिलाओं के स्वतंत्रता का लक्ष्य तय करते हुए गांधीजी ने 1936 में हरिजन में लिखा था- ‘‘जिस दिन भारतीय महिला रात में सड़कों पर स्वतंत्र रूप से चलने लगेगी, उस दिन हम कह सकते हैं कि भारत में महिलाओं ने स्वतंत्रता हासिल कर ली.’’
भारतीय महिलाओं के संदर्भ में गांधीजी के ये विचार संदेश देते हैं कि देश की उन्नति व एक सभ्य समाज के निर्माण में हमने कई मीलों तक कदमताल तो किया है, परंतु मंजिल अभी भी कोसों दूर है, जिसको महिलाओं के साथ चलकर ही हम हासिल कर सकते हैं.
(स्रोत : पुस्तक – ‘द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी’)