रचना प्रियदर्शिनी
दो लोगों की सोच में जब समानता हो, एक-दूसरे की बात-बर्ताव दिल को भाने लगे, तो दोस्ती की शुरुआत हो जाती है. हर बात शेयर करने का जी करे, भावनात्मक रूप से किसी का साथ सुकून एवं संबल देता हो, तो इसे दोस्ती का नाम मिल जाता है. ये दोस्ती किसी के बीच भी हो सकती है, इसमें उम्र, जाति, लिंग, अमीरी-गरीबी कोई मायने नहीं रखती. हमारे बीच सुधा मूर्ति और नारायण मूर्ति का जीवन जीवंत उदाहरण है, जो बताता है कि दोस्ती में समर्पण व त्याग हो, तो ये दोस्ती उम्र भर के लिए ‘जीवनसाथी’ के रूप में टिकाऊ बनी रहती है. मित्रता दिवस पर जानते हैं हमारे बीच के ऐसे ही कुछ साथी को, जो जीवनसाथी बन गये.
थिएटर की वजह से हम दोस्त बने और फिर बन गये जीवनसाथी
अजहर से मेरी पहली मुलाकात कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई. हमारा एमए का बैच 1990-92 था. अगस्त में हमने यूनिवर्सिटी ज्वॉइन किया और सितंबर में हमारी फ्रेशर्स पार्टी थी, जिसमें पहली बार उससे मिली. कॉलेज में हिंदी विभाग की ओर से मुझे सांस्कृतिक सचिव चुना गया. अजहर की भी नाटकों में रुचि थी, तो हमें एक-दूसरे के करीब लाने में थियेटर की भूमिका अहम रही. हम घंटों नाटकों के सिलसिले में एक-दूसरे के साथ बैठ कर चर्चा किया करते. दूसरे शहरों तक जाकर नाटक किया करते. मैं उसे विभिन्न हिंदी रचनाकारों की रचनाएं पढ़ कर सुनाती, तो वह मुझे उर्दू साहित्कारों के नज्में और कहानियां पढ़ कर समझाता. इस तरह धीरे-धीरे हमारी दोस्ती कब प्यार में बदल गयी, मालूम ही नहीं चला.
घरवालों को जब मेरी पसंद के बारे में पता चला, तो थोड़ी सुगबुगाहट जरूर हुई हुआ, क्योंकि हमलोग संयुक्त परिवार में पले-बढ़े हैं. हालांकि मैं इस मामले में लकी रही हूं कि हमारे परिवार में बेटियों को बड़ा दुलार-प्यार मिलता है. आखिर में सब मान गये और हमारी कोर्ट मैरेज हुई. परिवारों ने हमें अपनाया.
हमारे रिश्ते की सबसे अच्छी बात ये थी कि हम एक-दूसरे से कुछ कहने के बजाय एक-दूसरे को सुनना ज्यादा पसंद करते थे. कॉलेज में हमारी टीम में करीब 15-20 लोग थे. कॉलेज के बाद हमारा पूरा समय उस टीम के साथ ही बीतता था. हमारी आपसी चर्चा भी ज्यादातर थियेटर वर्क को लेकर ही होती थी. कॉलेज टाइम से ही अजहर मुझे लेकर बड़ा पजेसिव था. हमने कभी एक-दूसरे को ‘प्यार के वो तीन शब्द’ कभी नहीं कहे. बावजूद इसके हम एक-दूसरे की फीलिंग को बिन कहे समझ जाते थे. यह अजहर की मुहब्बत ही थी कि मेरी बेटी ने भी अपने जीवन का पहला शब्द ‘पापा’ बोलना सीखा, जबकि अधिकांश बच्चे मां बोलना पहले सीखते हैं.
हालांकि हर कपल की तरह हमारे बीच भी तू-तू, मैं-मैं होती थी, लेकिन कुछ समय बाद हममें में कोई आकर दूसरे को मना लेता और हम फिर पहले की तरह हंसने लगते. हम जीवन के हर संघर्ष में एक-दूसरे के साथ दोस्त बन कर डटे रहे. एक-दूसरे की अच्छाइयों के साथ कमियों को भी हमने स्वीकार किया. आज अजहर इस दुनिया में नहीं है, लेकिन मेरे भीतर वह हमेशा जिंदा है. मैं भले उसके आखिरी वक्त में उससे मिल नहीं सकी (कोरोना आपदा की वजह से) हर रोज उसके होने को महसूस करती हूं. वह हमारे थियेटर ग्रुप को खूब आगे तक ले जाना चाहता था और मेरे जीवन का ध्येय भी अब यही है. मेरे दोनों बच्चे भी थियेटर में रुचि लेते हैं.
पहाड़ी लड़की का गंगा के दोआब से जुड़ना दोस्ती व प्रेम की ही उपज थी
मैं हिमाचल प्रदेश की एक पहाड़ी लड़की, जिसकी पैदाइश दिल्ली में हुई. घर में खानपान, भाषा और पहाड़ी संस्कृति, पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान और जात-पात के मामले में बेहद कट्टर. रामजस स्कूल और लेडी श्रीराम कॉलेज जैसे संस्थानों में पढ़ कर 19 साल की उम्र में ग्रेजुएट हो गयी. आगे दिल्ली यूनिवर्सिटी में एमए के दौरान शेखर जी से मुलाकात हुई. सेमिनार, लाइब्रेरी में बैठने वाले दर्जनों छात्र-छात्राओं में हम दोनों भी थे.
उस दौरान एक लड़का कई दिनों से मुझे फॉलो करता, क्लास में आकर बैठ जाने जैसी हरकतें करके तंग करता. एक दिन लाइब्रेरी में परेशान करने लगा. हरदम साथ रहने वाली सहेली उस दिन साथ नहीं थी, तो मैं बहुत घबरा गयी. आसपास सभी तमाशा देख रहे थे, पर शेखर जी ने उठ कर दखलंदाजी की और उस लड़के से बचाया, मुझे हौसला दिया. मैं इस अनजान लड़के की ‘हीमैन शिप’ पर एक झटके में ही मोहित हो गयी. इस घटना के बाद हमारी दोस्ती हुई, जो बाद में धीरे-धीरे प्रेम में परिणत हो गयी. दो साल बाद जब घर में शादी की बात शुरू हुई और मैंने उन्हें शेखर जी के बारे में बताया, तो हंगामा मच गया. एक तो लड़का दूसरी जाति का और उस पर से बिहारी! यह जान कर पिताजी आगबबूला हो गये. मुझे हाउस अरेस्ट कर दिया गया. मेरी पीएचडी रोक दी गयी. शेखर लैंडलाइन पर फोन करते और मेरी ‘हैलो, दिस इज रॉन्ग नंबर’ सुन कर आश्वस्त हो जाते कि मैं हूं.
बड़ी हिम्मत करके मैंने आजीवन विवाह न करने का ऐलान कर दिया. अब छोटी बहन के लिए लड़के देखे जाने लगे. आगे सात साल की कोर्टशिप के बाद बड़े ही नाटकीय अंदाज में मां-बाप के आशीर्वाद और सप्तपदी की रस्म के साथ आखिरकार हमारी शादी हुई. विवाह के बाद मैं शेखर के साथ पटना आ बसी. अनजान शहर, अनजान भाषा और संस्कृति के खांचे में खुद को फिट करना आसान नहीं था, किंतु प्रेम जो न कराये. जींस पहननेवाली और खुले बाल रखनेवाली दिल्ली की फैशनबल लड़की माथे पर टिकुली, मांग में सिंदूर भरे हुए जूड़ा बांध कर आदर्श बिहारी बहू बनने की राह पर चल निकली. पतिदेव एक दीवार और छत की तरह हमेशा साथ रहे. एक पहाड़ी लड़की का गंगा के दोआब से जुड़ना और टिक जाना सिर्फ और सिर्फ प्रेम व दोस्ती से उपजे समर्पण और त्याग की बदौलत संभव हो पाया.
हम प्यार के दिनों में कुछ घंटे साथ गुजारने वाले के साथ पूरा जीवन गुजारने के सपने देखते हैं और अगर सच में वही जीवनसाथी बन जाये, तो इससे ज्यादा खुशकिस्मती क्या होगी! परफेक्ट न मैं हूं न वो. शायद इस प्यार में हमारे कॉलेज के दिनों की दोस्ती की वो मिठास आज भी भरी है, जो हमारे रिश्ते को संतुलित बनाये रखती है.
एक अच्छे दोस्त की तरह प्रेम में करते हैं एक-दूसरे का सम्मान
हमारी लव मैरिज हुई. शादी के तीसरे साल की बात है. मैं तब दो साल से यूपी में रह रही थी. जिस घर में रहते थे, वहां चार अन्य युवा जोड़े भी रहते थे. एक दिन लाइट जाने के समय छत पर महिलाओं की मंडली जमी. मुझसे पहले एक सवाल वहां घूम रहा था, जिसे मेरी ओर उछाल दिया गया. सवाल था कि ‘शर्मा जी’ (ये शब्द लोगों की जबान पर चढ़ गया है) और विशाखा की मम्मी (यानी मैं ) में कभी लड़ाई क्यों नहीं होती? मतलब हम पति-पत्नी को किसी ने कभी लड़ते नहीं देखा था.
मैंने हंस कर उत्तर दिया- ”आपको क्या पता कि लड़ाई नहीं होती है. आपने नहीं देखा तो क्या! होती है और अक्सर होती है, अभी कल शाम ही हुई. पर हम दोनों एक-दूसरे से केवल प्रेम नहीं करते, एक-दूसरे का सम्मान भी करते हैं एक अच्छे दोस्त की तरह. हर पति-पत्नी की तरह हम जमकर लड़ते हैं, बहस करते हैं, शिकायतें करते हैं, रूठते-मनाते हैं, पर इस स्तर पर लड़ाई को नहीं जाने देते, जहां रिश्ते में कड़वाहट घुल जाये. हम एक-दूसरे की पसंद का ध्यान रखते हैं पर पसंद थोपते नहीं. जैसे शर्मा जी मांसाहार के शौकीन हैं और मैं शाकाहारी तो शर्मा जी कभी मुझे खाने को बाध्य नहीं करते और मैं उन्हें छुड़वाने पर आमादा नहीं होती. अलबत्ता इस पर हमारी नोक-झोंक और चुहल अक्सर चलती है.
हमारे रोजाना के काम यानी खाना बनाना, खाना, घर के दूसरे काम आदि हम लोगों में बंटे हुए हैं. उन्हें वैसे ही करते हैं जैसे रोजाना होता है. आज इतने वर्षों बाद पूरी ईमानदारी से स्वीकार करती हूं कि अब चूंकि मैं स्त्री हूं, तो विवाह के पारंपरिक स्वरूप के हिसाब से सब छोड़ कर उनके घर आयी हूं. जो व्यक्ति मेरे सम्मान, मेरी अभिरुचि, मेरे स्पेस का इतना सम्मान करता है, तो क्या मैं थोड़ा एडजस्ट नहीं कर सकती. हम पति-पत्नी कम, दोस्त ज्यादा हैं. यही है हमारी 27 साल पुरानी सफल शादी का राज.