पिछले दिनों 10th और 12th के रिजल्ट प्रकाशित हुए. इन दो परीक्षाओं में देश स्तर में छात्रों को 500 में 500 नंबर भी आए. उसी तरह हजारों बच्चों को इससे एक से दो नंबर कम आए और 90% से ज्यादा नंबर लाने वाले छात्रों की संख्या तो बहुत ही ज्यादा रही. ये सिर्फ इस साल की बात नहीं है. पिछले वर्षों में भी कमोबेश इसी तरह का परिणाम आया था. इस तरह के नंबर्स देखकर काफी खुशी महसूस होती है कि बच्चों का बौद्धिक स्तर कितना बेहतरीन है कि उन्हें शत प्रतिशत मार्क्स आ जाता है.
परीक्षा के परिणाम आने से पहले और उसके बाद छात्रों पर परिवार और समाज का भारी दबाव रहता है और इसका कारण होता बच्चों के बीच तुलनात्मक अध्ययन. किसी छात्र को नंबर आया उससे ज्यादा ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसके सहपाठियों को कितना अंक आया. सवाल ये है कि क्या सिर्फ अंकों के आधार पर किसी छात्र के मेरिट का आकलन करना सही है. निश्चित तौर पर किसी भी छात्र का रिजल्ट बढ़िया होता है, तो उसका हौसला बढ़ता है. लेकिन, सिर्फ इसी आधार पर किसी को बेहतर मान लेना सही नहीं है. कोई छात्र परीक्षा में बेहतर करता है, तो वो सिर्फ उसकी बौद्धिक क्षमता पर निर्भर नहीं करता है. उससे ज्यादा उसके द्वारा वर्षों किये गए श्रम, टीचर्स और अभिभावकों का मार्गदर्शन का भी बड़ा प्रभाव रहता है. मेरा मानना है कि किसी भी क्लास में 90% छात्रों का बौद्धिक स्तर कमोबेश एक जैसा ही होता है. विलक्षण प्रतिभा तो हजारों या लाखों में कोई एक-दो ही होता है.
इससे बड़ी बात ये है कि जीवन इन परीक्षाओं और मार्क्स के साथ खत्म भी नहीं होता है. जब किसी भी छात्र को खुद ये एहसास हो जाता है कि मेरे प्रयास में कहां कमी रह गयी, तो यकीन मानिए आगे का रास्ता भी खुल जाता है. इंसान दूसरे से झूठ बोल सकता है खुद से नहीं और हर व्यक्ति अपनी कमियों को जानता है. दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने से पहले खुद से प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत है. हाल में छत्तीसगढ़ कैडर के एक आईएएस अवनीश शरण ने अपना मार्कशीट सोशल मीडिया में शेयर किया था कि कैसे 10वीं की परीक्षा में उन्हें सिर्फ 44.85% मार्क्स मिल पाया था. उससे कुछ दिन पहले भरूच के डीसी तुषार दी सुमेरा ने अपने 10वीं के नंबर्स सोशल मीडिया में शेयर किया था, जिसमें उन्हें बमुश्किल पासिंग मार्क्स आया था.
Also Read: शीर्ष लंबे संघर्ष का उत्कर्ष है
इसके अतिरिक्त भी लाखों उदाहरण हैं, जिसमें किसी छात्र को 10th और 12th में बेहतर मार्क्स नहीं आए, लेकिन उसने आगे जीवन में बेहतरीन मुकाम बनाया. इसलिए ‘जब जागा तभी सवेरा’ और जब अपनी क्षमता का एहसास हो जाता है, तो इंसान बेहतर करने का रास्ता भी खोज लेता है, जो हो गया सिर्फ उसपर रोते रहने, बेहतर होने की उम्मीद में समय गवानें से बेहतर है. अपनी कमियों को चिन्हित कर आगे बेहतर हो इसपर लग जाने की जरूरत है.