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Sarhul: कहीं खद्दी, तो कहीं बाहा के नाम से मनाया जाता है प्रकृति पर्व सरहुल, ये है मान्यता

Sarhul: सरहुल का जश्न सिर्फ नाच - गाने और सजने सवरने तक ही सीमित नहीं रहता है पर इसके मनाने के पीछे बहुत सारे महत्वपूर्ण कारण होते है. यह त्योहार हमे आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति के बारे में बताता है.

Sarhul: सरहुल झारखंड में मनाया जाने वाला विशेष पर्व है जिसे आदिवासियों द्वारा मनाया जाता है. सरहुल को आदिवासी भाषाओं में अलग – अलग नाम से जाना जाता है. उरांव में इसे ‘खद्दी’ कहा जाता है, मुंडा में इसे बाह अर्थात फूलों का त्योहार, संथाल में इसे बाहा कहते हैं जिसका अर्थ भी फूल होता है, खड़िया में इसे जनकोर कहा जाता इसका मतलब होता है बीज का अंकुरित होना. डॉक्टर हरि उराँव (पूर्व विभागाध्यक्ष टी.आर.आई.डिपार्टमेंट रांची विश्वविद्यालय) ने बताया कि, सरहुल के समय में जंगलों में हमे विषेशकर सफ़ेद फूल देखने को मिलते है, नए पत्ते भी निकलते है. प्रकृति अपने आपको एक नए रूप में दिखाना शुरू कर देती है.

सूरज और धरती का विवाह

उराँव धर्म में सूरज को सबसे बड़ा देवता माना जाता है, सूरज देवता को धर्मेश्वर कहा जाता है. सरहुल से पहले धरती को कुंवारी माना जाता है और सरहुल के दिन ही उसकी सूरज देवता के साथ शादी रचाई जाती है. इसके पीछे यह मान्यता होती है की विवाह के बगैर नए सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती जैसे मनुष्य में विवाह के बिना शिशु की प्रजनन की कल्पना नहीं की जा सकती है. इसलिए आदिवासी भी सरहुल से पूर्व किसी भी नए काम को शुरू नहीं करते है. वह अपने घर के अंदर नए फल या फूल को नहीं लाते है. सरहुल के बाद ही वह नए फसल को लगाना शुरू करते है.

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साल वृक्ष का प्रयोग क्यों किया जाता है.

आदिवासी पूर्वज बहुत पहले से ही सरहुल में साल वृक्ष का इस्तेमाल करते हुए आ रहे है. ऐसे बहुत सारे पेड़ों का इस्तेमाल किया जा सकता था पर उन्होंने इस वृक्ष को इसलिए चुना क्योंकि यह वृक्ष बहुत लंबे समय तक जीवित रहता है. यह करीबन 100 साल तक जीवित रहता है. इसके काटे जाने पर भी इसकी लकड़ी को कुछ नहीं होता है. इसे पानी में बहुत समय तक डुबा कर रखने पर भी इसे कोई हानि नहीं पहुंचती है. आज भी गांव में इस पेड़ के दातुन इस्तेमाल किया जाता है और इसके पत्तों से पत्तल और दोना बनाया जाता है. साल के वृक्ष से जो गध निकलता है उससे धुवन बनाया जाता है जो सरहुल पूजा में प्रयोग किया जाता है. शायद उपयोगिता और मजबूती को देख कर इसका प्रयोग आदिवासियों द्वारा किया गया होगा.

प्रकृति को अपना ईश्वर मानते हैं आदिवासी

आदिवासी पहले से ही प्रकृति को संरक्षित करते आ रहे है, पहली भी वह लड़की जलाने के लिए पेड़ नहीं काटते थे उसकी जगह वह सुखी लकड़ी इकठ्ठा करते थे. आज जब दुनिया पर्यावरण को बचाने के तरीके ढूंढ रहा है, आदिवासी पहले से ही इस बात से वाकिफ थे. वह यह जानते थे कि प्रकृति उन्हें जीवित रखने का काम करती है, उसे बचाना और संरक्षित करके रखना बहुत जरूरी है. अगर यह नहीं किया जाए तो वह भी अच्छी तरह से अपना पालन पोषण नहीं कर पाएंगे. इसलिए आदिवासी सरहुल को प्रकृति पूजा कहते है, वह प्रकृति को अपना ईश्वर मानते है, क्योंकि वही उनकी देख – रेख करता है.

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सरहुल में माने जाने वाले कुछ परंपरा

सरहुल के लिए एक दिन पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है. सरहुल के पहले दिन कुछ पाहन एक साथ मिलकर केकड़ा पकड़ने जाते हैं, वह जो केकड़े को पकड़ कर लाते है उसे वह पूजा करने के लिए टांग देते हैं. सरहुल से एक पहले दिन पहले सरना स्थल पर दो घड़े रखे जाता है और उसपर सफ़ेद धागा बांधा जाता, फिर दूसरे दिन पूजा की जाती है, अगर उस घड़े में पानी रहता है तो इससे अच्छी बारिश होने का संकेत मिलता है और अगर घड़े में पानी सुख जाता है तो यह पता चल जाता है कि इस वर्ष अच्छी बारिश नहीं होगी. इस दिन एक सफ़ेद मुर्गी की बली चढ़ाई जाती है जो देवी देवताओ के नाम पर चढ़ाई जाती हैं. फिर पहान पूर्वजों के लिए भी एक मुर्गी की बलि चढ़ाई जाती है. सरहुल में पहान पुरे क्षेत्र और राज्य के लिए प्राथना करता है ताकि सभी लोग स्वस्थ रहें, वह उनत्ति कर पाए, बारिश अच्छी तरह से आए ताकि फसल की अच्छी उपज हो. हर कोई सिर्फ अपनी सुख शांति के लिए प्राथना करता हैं पर सरना पद्धत्ति में पहान हर किसी के लिए प्राथना करता है.

आदिवासी उत्सव में गीत और नृत्य का महत्व

आदिवासियों के लिए सरहुल में गीत और नृत्य बहुत ज्यादा महत्व रखते है क्योंकि, आदिवासी अपने जीवन को आनंदमय बनाए रखना पसंद करते हैं. इसके लिए वह गीत और नृत्य का सहारा लेते है. अपने उत्साह को दिखाने के लिए वह गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं. आदिवासी पहले से ही अपने जीवन से थकान और मायूसी को दूर करने के लिए गीत गाते थे, आदिवासी किसान जब खेतों में काम कर थक जाते थे तब वे गीत गाते थे और मांदर बजाते थे. वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि काम की थकान को भूलकर अगले दिन फिर से एक नए जोश के साथ काम पर जा सके. आदिवासियों के लिए संगीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वे गीतों के जरिए ही अपने जीवन के बारे में बताते है. आदिवासी अपने जीवन संबंधी बातों को गीतों में पिरोकर रखते है. पहले के समय में वह अपने इतिहास को लिख नहीं पाए पर गीतों में उन्होंने अपनी जीवन शैली की बारे सारी चीजें बताई चाहे वह खान – पान हो या रहन – सहन. आदिवासी गीतों में उनका इतिहास छुपा हुआ है और साथ ही साथ इसे गाने से उमंग उत्पन होता है. सरहुल के समय हम आदिवासियों को मंदार के धून पर बहुत सारे मधुर गीत को गाते हुए देखते हैं.

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सोभा यात्रा

सोभा यात्रा हर साल सरहुल के उपलक्ष में किया जाता है. यह एक बहुत बड़ा जुलुस होता है जो आदिवासी एक साथ मिलकर करते हैं. सोभा यात्रा की शुरुआत झारखंड की राजधानी रांची में 1967 में कार्तिक उरांव के नेतृत्वव में शुरू की गई थी. सोभा यात्रा के जरिए आदिवासी अपने संस्कृति, पद्धति और जीवन शैली को दिखाते हैं. वह पूरी दुनिया को दिखाना चाहते है की वह कितने उमंग और उल्लास के साथ अपना त्योहार बनाते हैं. इस जुलुस में सारे आदिवासी शामिल होकर यह सन्देश देना चाहते है की आज भी वह अपने संस्कृति को भूले नहीं है और आगे भी नहीं भूलेंगे. इस यात्रा में सरहुल के महत्व, अवधारणा और सोच का प्रदर्शन किया जाता है. इनपुट: अनु कंडुलना

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