Independence Day 2023: देश में आमतौर पर अखाड़ों का जिक्र कुंभ मेले के दौरान होता है, जब इन अखाड़ों की भव्य पेशवाई शाही स्नान के दौरान निकलती है. आमतौर पर लोग अखाड़ों को उनकी धार्मिक गतिविधियों के कारण जानते हैं. लेकिन, बहुत कम लोग अखाड़ों के आजादी की लड़ाई में योगदान से वाकिफ हैं. निर्मोही अखाड़ा इन्ही में से एक है, जिसका संबंध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और इसकी नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अंतिम संस्कार से है.
इतिहासकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी अंतिम सांस ग्वालियर स्थित निर्मोही अखाड़े के स्थान गंगादास के मठ में ली थी और यहीं पर उनका अंतिम संस्कार हुआ. झांसी की रानी ने अपनी अंतिम लड़ाई 18 जून 1858 को ग्वालियर में फूल बाग नामक स्थान पर लड़ी इसी स्थान पर आज उनका स्मारक भी है. महंत गंगादास की बड़ी शाला निर्मोही अखाड़े का मठ है और वैष्णव परंपरा की 52 पीठों में से एक है.
यह रामानंदी संप्रदाय से संबंधित है. कहा जाता है कि इस पीठ की स्थापना अकबर के काल में हुई. 1858 के दौरान इस मठ के प्रमुख महंत गंगादास थे. अंग्रेजों से लड़ाई के कुछ दिन पूर्व झांसी की रानी के महंत गंगादास के साथ अहम वार्तालाप का भी कई इतिहासकारों ने जिक्र किया है.
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के दौरान ग्वालियर में 18 जून 1858 को जब रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते बुरी तरह घायल हो गईं तो उनके विश्वासपात्र सैनिक घायल अवस्था में उठाकर उन्हें महंत गंगादास की कुटिया में लेकर गए. कहा जाता है कि महंत गंगादास ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर गंगाजल पिलाया. महारानी लक्ष्मीबाई को जब आभास हो गया कि उनका अंतिम क्षण अब बहुत निकट है, तो उन्होंने महंत गंगादास से निवेदन किया,’ अंग्रेज मेरे मृत शरीर को हाथ भी नहीं लगा पाए.’
इसके बाद महंत का आदेश मिलते ही सैकड़ों हथियारबंद बैरागी साधुओं ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए सुरक्षा कवच बना दिया. इस दौरान अंग्रेजी सैना और बैरागी सुधाओं के बीच दोनों तरफ से कई घंटे गोलियां चलती रहीं. जब रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्याग दिए तो बाबा गंगादास की कुटिया तोड़कर तत्काल चिता बनाई गई और बाबा ने वैदिक रीति से रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार कर दिया.
इतिहास में जिक्र है कि मठ के अंदर से दो बंदूकों से गोलियां तब तक चलती रहीं, जब तक रानी लक्ष्मीबाई की चिता जलकर पूरी तरह शांत नहीं हो गई. इस युद्ध में 745 बैरागी साधुओं ने भी अपने प्राणों की आहूति दी. अंग्रेजी सैनिक जब चिता तक पहुंचे तो उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा.
रानी लक्ष्मीबाई के शहीद होने के बाद बाबा गंगादास ने रानी के दत्तक पुत्र दामोदर को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. रानी लक्ष्मीबाई का साथ देने की वजह से बाबा गंगादास ग्वालियर छोड़कर हरिद्वार चले गए थे. इस मठ में मंदिर एवं समाधियां बनाई गई हैं. इस मठ में युद्ध में प्रयुक्त साधुओं के चिमटे, भाले, बंदूक और एक छोटी तोप आज भी सुरक्षित है. मठ के अनुयायी झांसी की रानी के बलिदान को आज भी याद करते हैं.
कहा जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आंखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा. कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने घोड़े की रस्सी अपने दांतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ वार कर रही थीं.
कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो खुद आगे जाकर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे. लेकिन, जब-जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें. कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ बढ़ चले थे.
उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज की अत्यंत निपुण ऊंट की टुकड़ी ने एंट्री ली. इस टुकड़ी को रोज ने रिजर्व में रख रखा था. इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे. इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई. रानी इसे फौरन भांप गईं. उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई.
उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा कि अचानक रानी जोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ.’ पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके पीछे हो लिया. वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेजी से हटीं कि अंग्रेज सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ झांसी, कैच हर.
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफर तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय. लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई. रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे. अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ. एक अंग्रेज सैनिक ने जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेजी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं.
रानी लक्ष्मीबाई को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेजी से खून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा-सा पानी का झरना आ गया. उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा. तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा.
उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलांग लगाने के बजाए इतनी तेजी से रुका कि वो करीब करीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं. उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़ा एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा. तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ किसी ने बहुत तेजी से वार हुआ है. उनको राइफल की एक गोली लगी थी. रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर जमीन पर गिर गई. उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले खून को दबा कर रोकने की कोशिश की.
इतिहासकार एंटोनिया फ्रेजर ने अपनी पुस्तक, ‘द वॉरियर क्वीन’ में लिखा है तब तक एक अंग्रेज रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था. उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई. रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज की तलवार उनके सिर पर इतनी तेजी से लगी कि उनका माथा फट गया.
इसके बावजूद रानी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर उस अंग्रेज सैनिक पर जवाबी हमला किया. लेकिन, वो सिर्फ उसके कंधे को ही घायल कर पाई. रानी घोड़े से नीचे गिर गईं. तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और महंत गंगादास के मठ में ले लाया. रानी तब तक जीवित थीं.
महंत गंगादास ने उनके मुंह में गंगाजल की बूंदे डाली. रानी बहुत बुरी हालत में थीं. धीरे-धीरे वो अपने होश खो रही थीं. उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फायरिंग चल रही थी. अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है.
तभी रॉड्रिक ने चिल्ला कर कहा कि वो लोग मंदिर के अंदर गए हैं. उन पर हमला करो. रानी अभी भी जिंदा है. उधर, बैरागी साधुओं ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी. रानी की एक आंख अंग्रेज सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी. उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आंख खोली. उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक-रुक कर शब्द निकल रहे थे. उन्होंने दामोदर को सुरक्षित स्थान पर ले जाने को कहा. बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की. लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गईं.
महंत गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई के गले से हार उतारकर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में दामोदार के लिए रख दिया. रानी की सांसे तेजी से चलने लगी थीं. इससे पहले की उनकी आंखे पूरी तरह से बंद होती, वह अचानक बोलीं कि अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए. ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुढ़क गया और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए.
इसके बाद महंत का आदेश मिलते ही बैरागी साधुओं ने तत्काल रानी लक्ष्मीबाई की चिता तैयार की और उनका अंतिम संस्कार किया. मठ के बाहर से अंग्रेज सैनिक गोलियां बरसा रहे थे और अंदर से बैरागी साधू उन पर जवाबी हमला कर रहे थे. धीरे धीरे अंदर से रायफल शांत हो गई. जब अंग्रेज मठ के अंदर घुसे तो वहां से कोई आवाज नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था.
सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसे. वहां रानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों और पुजारियों के कई रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ एक शव की तलाश थी. तभी उनकी नजर एक चिता पर पड़ी, जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की. तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियां लगभग राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा कि हमारा विरोध खत्म हो चुका था. सिर्फ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज आवाज से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी. युद्ध के दौरान हमारे एक सैनिक की कटार का तेज वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई थी.
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में निर्मोही अखाड़े ने बढ़ चढ़कर भाग लिया. 1857 की क्रांति में अम्बाला की जेल में फांसी पर चढ़ने वाले सेनानी महंत राम प्रसाद निर्मोही अखाड़े के बैरागी थे. इसके बाद निर्मोही अखाड़े के के महंत श्याम दास ओर हरियाणा के स्वामी बीडर दास ओर अयोध्या के महंत राम दास को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था. राम जन्म भूमि विवाद में भी निर्मोही अखाड़ा प्रमुख पक्षकार रहा.
निर्मोही अखाड़े की बात करें तो इसका इतिहास 900 वर्षों से अधिक पुराना है. इस अखाड़े की सशस्त्र सेना ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए कई लड़ाई लड़ीं. भारतीय इतिहास के कई प्रतिष्ठित योद्धाओं का निर्मोही अखाड़े से घनिष्ठ संबंध रहा है, जिनमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सहित धर्म योद्धा वीर बंदा बैरागी, शिवाजी आदि शामिल हैं. इतिहासकार विलियम आर पिंच ने उल्लेख किया है कि शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास के शिष्य वैष्णव दास ने औरंगजेब के काल में अयोध्या में हनुमानगढ़ी की रक्षा की थी. धर्म योद्धा वीर बंदा बैरागी का प्रथम सैनिक मुख्यालय दिल्ली से कुछ दूरी पर खांडा गांव में निर्मोही अखाड़ा मठ ही था.