Maharashtra by Poll Result: महाराष्ट्र की राजनीति में आखिर क्या चल रहा है ये किसी की समझ ने नहीं आ रहा…दरअसल, उपचुनाव के नतीजे ने भाजपा की टेंशन बढ़ा दी है. पिछले साल कोल्हापुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा हरा गयी. इसके बाद नागपुर में शिक्षक एमएलसी सीट पर निराशा हाथ लगी. अब पुणे की कसबा पेठ सीट पर भाजपा उम्मीदवार की हार हुई है. इस हार से भाजपा की चिंता बढ़ गयी है. भाजपा के लिए यह इसलिए भी टेंशन देने वाली है क्योंकि बीते तीन दशकों से वह लगातार यहां से जीत दर्ज करती नजर आयी थी.
उपचुनाव में हार के बाद महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस ने कसबा पेठ की हार पर आत्मचिंतन करने की बात कही है. हालांकि भाजपा ने पुणे की ही चिंचवाड़ सीट पर कब्जा बरकरार रखा है. फडणवीस ने कहा कि कांग्रेस उम्मीदवार रवींद्र धंगेकर अपनी राजनीतिक क्षमता की वजह से इस सीट से उपचुनाव जीते हैं. कांग्रेस प्रत्याशी धंगेकर ने (प्रचार के दौरान)अपनी पार्टी के नेता राहुल गांधी की तस्वीरों का इस्तेमाल नहीं किया. उन्हें (मतदाताओं की) स्वाभाविक सहानुभूति थी और यह हमारे (चुनाव पूर्व) सर्वेक्षण में भी झलकता है.
यहां चर्चा कर दें कि इस सीट पर भाजपा के हेमंत रासाने को कांग्रेस के उम्मीदवार रवींद्र धंगेकर के मुकाबले 10 हजार वोटों से हार झेलनी पड़ी. यह हार भाजपा को ऐसे वक्त में मिली, जब भाजपा और उसकी सहयोगी एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने पूरा जोर क्षेत्र में लगाया था. कसबा पेठ में एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस ने भी कई रैलियों को संबोधित किया था. यही नहीं चंद्रकांत पाटिल, गिरीश महाजन और रविंद्र चव्हाण जैसे सीनियर नेता भी क्षेत्र में नजर आये थे.
भाजपा सूत्रों के हवाले से जो खबर चल रही है उसके अनुसार हार के कुछ कारण है जिसे पार्टी ने इग्नोर किया. यदि भाजपा सजग रहती तो उपचुनाव में उसे हार का मुंह नहीं देखना पड़ता. दरअसल, कसबा पेठ में ब्राह्मणों की अच्छी खासी आबादी रही है और यहां से मुक्ता तिलक विधायक थीं. मुक्ता तिलक के निधन के बाद चुनाव हुआ. मुक्ता तिलक की बात करें तो वह ब्राह्मण होने के साथ लोकमान्य तिलक जैसी हस्ती के परिवार से संबंध रखतीं थीं. उनके निधन के बाद परिवार के किसी सदस्य को टिकट देने की मांग उठी थी, जिसे भाजपा ने इग्नोर कर दिया.
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भाजपा उपचुनाव में हिंदुत्व के मुद्दे के इर्द-गिर्द रही जो हार की एक बड़ी वजह बतायी जा रही है. खबरों की मानें तो एक उपचुनाव में इस तरह राष्ट्रीय मुद्दे उठाना क्षेत्र के लोगों को रास नहीं आया. स्थानीय मसलों पर यदि वह चुनाव लड़ती तो चुनाव का परिणाम उलट हो सकता था. यही नहीं उद्धव ठाकरे की शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के वोटों का बंटवारा ना होना भी हार का कारण बना.